________________ गच्छाचार ( प्रकीर्णक ) का समीक्षात्मक अध्ययन : 175 निन्दित कर्म नहीं करते, जिनदेव-प्रणीत सिद्धांत की आलोचना नहीं करते अपितु गुरु के कठोर, क्रूर आदि वचनों के द्वारा जो भी कार्य-अकार्य कहा जाता है उसे तहत्ति' ऐसा कहकर स्वीकार करते हों, उन शिष्यों का गच्छ ही वास्तव में गच्छ है (54-56) / सुविनीत शिष्य की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह न केवल वस्त्र-पात्रादि के प्रति ममता से रहित होता है अपितु वह शरीर के प्रति भी अनासक्त होता है / वह न रूप तथा रस के लिए और न सौन्दर्य तथा अहंकार के लिए अपितु चारित्र के भार को वहन करने के लिए ही शुद्ध एवं निर्दोष आहार ग्रहण करता है (57-59) / पाँचवें अंग आगम व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में वर्णित प्रश्नोत्तर शैली के अनुसार ही प्रस्तुत ग्रन्थ में भी गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि हे गौतम ! जहाँ छोटे-बड़े का ध्यान रखा जाता हो, एक दिन भी जो दीक्षा पर्याय में बड़ा हो उसकी जहाँ अवज्ञा नहीं की जाती हो, भयंकर दुष्काल होने पर भी जिस गच्छ के साधु, साध्वी द्वारा लाया गया आहार ग्रहण नहीं करते हों, वृद्ध साधु भी साध्वियों से व्यर्थ वार्तालाप नहीं करते हों, स्त्रियों के अंगोपांगों को सराग दृष्टि से नहीं देखते हों, ऐसा गच्छ ही वास्तव में गच्छ है (60-62) / ... साधुओं के लिए साध्वियों के संसर्ग को सर्वथा त्याज्य माना गया है / ग्रन्थानुसार साध्वियों का संसर्ग अग्नि तथा विष के समान वर्जित है / जो साधु, साध्वियों के साथ संसर्ग करता है वह शीघ्र ही निन्दा प्राप्त करता है / ग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि स्त्री समूह से जो सदैव अप्रमत्त रहता है, वही ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है उससे भिन्न व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता (63-70) / - गच्छाचार-प्रकीर्णक की एक विशेषता यह है कि इसमें कहीं तो साधु के उपलक्षण से और कहीं साध्वी के उपलक्षण से सुविहित आचार मार्ग का निरूपण किया गया है / हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आचार मार्ग का निरूपण चाहे साधु अथवा सांध्वी के उपलक्षण से किया गया हो, वह दोनों ही पक्षों पर लागू होता है / जैन आगमों में ऐसे अनेक प्रसंग हम देखते हैं जहाँ मुनि आचार का निरूपण किसी एक वर्ग विशेष के उपलक्षण से किया गया है, किन्तु हमें यह समझना चाहिए कि वह आचार निरूपण दोनों ही वर्गों पर समान रूप से लागू होता है। ग्रन्थ में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा त्रसकायिक जीवों को किसी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुँचे, इस हेतु विशेष विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि स्वयं मरते हुए भी जिस गच्छ के साधु षड़कायिक जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते हों, वास्तव में वही गच्छ है (75-81) / प्रस्तुत ग्रन्थ में साधु के लिए स्त्री का तनिक भी स्पर्श करना दृष्टिविष सर्प, प्रज्वलित अग्नि तथा हलाहल विष की तरह त्याज्य माना गया है और यह कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु, बालिका, वृद्धा ही नहीं अपनी संसार पक्षीय पौत्री, दौहित्री, पुत्री एवं बहिन का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हों, वही गच्छ वास्तविक गच्छ है / साधु के लिए ही नहीं गच्छ के आचार्य