________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार * डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय प्रवचनसारोद्धार जैन महाराष्ट्री प्राकृत में प्रायः आर्याछन्द में रचित 1599 पद्य परिमाण ग्रन्थ है जिसका जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है / इस ग्रन्थ के प्रणेता नेमिचंद्रसूरि हैं / ये आम्रदेव के शिष्य तथा जिनचंद्रसूरि के प्रशिष्य थे। इनकी गुरुपरम्परा उनके द्वारा ही वि. सं. 1216 में प्राकृतभाषा में रचित 1200 श्लोकप्रमाण अनंतनाथचरित' नामक ग्रंथ की प्रशस्ति में इस प्रकार है "बृहद्गच्छीय देवसूरि-अजितदेवसूरि-आनन्दसूरि जिनचंद्रसूरि-आम्रदेवसूरि-नेमिचंद्रसूरि / "1 प्रवचनसारोद्धार जैनप्रवचन के सारभूत पदार्थों का बोध कराता है / इसमें आये हुये अनेक विषय पद्युम्नसूरि के विचारसार में देखे जाते हैं परंतु ऐसे भी अनेक विषय हैं जो एक में हैं तो दूसरे में नहीं हैं / इस आधार पर इन दोनों ग्रंथों को एक दूसरे का पूरक कहा जा सकता है / यह ग्रंथ सिद्धसेनसूरि कृत तत्त्वप्रकाशिनी नामक वृत्ति के साथ दो भागों में देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने अनुक्रम से सन् 1922 और 1926 में प्रकाशित किया है / प्रथम भाग में 103 द्वार और 771 गाथाएं हैं जबकि दूसरे भाग में 104 से 276 द्वार तथा 772 से 1599 तक की गाथाएँ हैं। दूसरे भाग के प्रारम्भ में उपोद्घात तथा अंत में वृत्तिगत पाठों, व्यक्तियों. क्षेत्रों एवं नामों की अकारादि क्रम से सूची है / मुख्यतया इसमें 276 द्वार माने जाते हैं / इन द्वारों में जिन विषयों का निरूपण हुआ है उनमें चैत्यवंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, अतिचार, ऋषभादि के आद्य गणधरों एवं आद्य प्रवर्तिनियों के नाम, तीर्थंकरों के माता-पिता, उनकी गति तथा उनके आठ प्रतिहार्य, चौंतीस अतिशय, सिद्धों की संख्या, आचार्य के छत्तीस गुण, बारह भावना, पांच महाव्रत, बाईस परीषह, श्रमणाचार के विभिन्न पहलू, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा, मृत्यु के भेद, कर्मप्रकृति, गुणस्थान, व्रत तथा भौगोलिक एवं गर्भविद्या आदि मुख्य हैं / 2 ___ जीवसंखाकुलय (जीवसंख्याकुलक) नाम की सत्तरह पद्य की अपनी कृति को नेमिचंद्रसरि ने २१४वें द्वार के रूप में मूल में ही समाविष्ट कर लिया है / सातवें द्वार की ३०३वीं गाथा में श्रीचंद नामक मुनि का उल्लेख है / ऐसा प्रतीत होता है कि 287 से 300 तक की गाथाएं उन मुनि द्वारा रचित हैं / गाथा 470 में श्रीचंद्रसूरि का उल्लेख है, हो सकता है वे ही उपर्युक्त मुनिपति हों / गाथा 457-470 भी शायद उन्हीं की कृति हो / श्रीचन्द नाम के दो या फिर अभिन्न एक ही मुनि यहाँ अभिप्रेत हों तो भी उनके विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती, जिसके आधार पर प्रवचनसारोद्धार की पूर्व सीमा निश्चित की जा सके / गाथा 235 में आवश्यकचूर्णि का उल्लेख है /