Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 221
________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 209 प्राचीन काल में जैन परम्परा में इसे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था / आवश्यकनियुक्ति में भद्रबाहु ऋषिभाषित पर भी नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, वर्तमान में यह नियुक्ति उपलब्ध नहीं होती है / आज तो यह कहना भी कठिन है कि यह नियुक्ति लिखी भी गई थी या नहीं / यद्यपि 'इसिमण्डल' जिसका उल्लेख आचारांगचूर्णि में है, इससे सम्बन्धित अवश्य प्रतीत होता है / इन सबसे इतना तो सिद्ध हो जाता है कि ऋषिभाषित एक समय तक जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है। स्थानांगसूत्र में इसका उल्लेख प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के रूप में हुआ है / समवायांगसूत्र इसके 44 अध्ययनों का उल्लेख करता है / जैसा कि पूर्व में हम सूचित कर चुके हैं नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि में इसकी गणना कालिकसूत्रों में की गई है / आवश्यनियुक्ति इसे धर्मकथानुयोग का ग्रन्थ कहती है (आवश्यक-नियुक्ति हरिभद्रीय वृत्ति : पृ० 206) / ऋषिभाषित का रचनाकाल यह ग्रन्थ अपनी भाषा, छन्द-योजना और विषयवस्तु की दृष्टि से अर्धमागधी जैन आगम ग्रन्थों में अतिप्राचीन है / मेरी दृष्टि में यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध से किंचित् परवर्ती तथा सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्रचीन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध होता है / मेरी दृष्टि में इसका वर्तमान स्वरूप भी किसी भी स्थिति में ईसवी पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं होता है / स्थानांग में प्राप्त सूचना के अनुसार यह ग्रन्थ प्रारम्भ में प्रश्नव्याकरणदशा का एक भाग था ; स्थानांग में प्रश्नव्याकरणदशा की जो दस दशाएं वर्णित हैं, उसमें ऋषिभाषित का भी उल्लेख है / समवायांग इसके 44 अध्ययन होने की भी सूचना देता है / अतः यह इनका पूर्ववर्ती तो अवश्य ही है / सूत्रकृतांग में नमि, बाहुक, रामपुत्त, असित देवल, द्वैपायन, पराशर आदि ऋषियों का एवं उनकी आचारगत मान्यताओं का किंचित निर्देश है / इन्हें तपोधन और महापुरुष कहा गया है / उसमें कहा गया है कि पूर्व कालिक ऋषि इस (आर्हत प्रवचन) में 'सम्मत' माने गये हैं / इन्होंने (सचित्त) बीज और पानी का सेवन करके भी मोक्ष प्राप्त किया था। अतः पहला प्रश्न यही उठता है कि इन्हें सम्मानित रूप में जैन परम्परा में सूत्रकृतांग के पहले किस ग्रन्थ में स्वीकार किया गया है ? मेरी दृष्टि में केवल ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इन्हें सम्मानित रूप से स्वीकार किया गया है / सूत्रकृतांग की गाथा का 'इंह-सम्मता' शब्द स्वयं सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित के पूर्व अस्तित्व की सूचना देता है / ज्ञातव्य है कि सूत्रकृतांग और ऋषिभाषित दोनो में जैनेतर परम्परा के अनेक ऋषियों यथा असित देवल, बाहुक आदि का सम्मानित रूप में उल्लेख किया गया है / यद्यपि दोनो की भाषा एवं शैली भी मुख्यतः पद्यात्मक ही है, फिर भी भाषा की दृष्टि से विचार करने पर सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा भी ऋषिभाषित की अपेक्षा परवर्तीकाल की लगती है / क्योंकि उसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के निकट है, जबकि . ऋषिभाषित की भाषा कुछ परवर्ती परिवर्तन को छोड़कर प्राचीन अर्धमागधी है / पुनः जहाँ सूत्रकृतांग में इतर दार्शनिक मान्यताओं की समालोचना की गयी है वहाँ ऋषिभाषित में इतर परम्परा के ऋषियों का सम्मानित रूप में ही उल्लेख हुआ है / यह सुनिश्चित सत्य

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