________________ प्रकीर्णक और प्रवचनसारोद्धार : 193 इस ग्रंथ से इसके रचनाकाल पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता फिर भी नेमिचंद्रसूरि और उनकी अन्य रचनाओं के आधार पर इसका काल १३वीं शताब्दी ही माना जाता है। प्रवचनसारोद्धार पर सिद्धसेनसूरि की 16500 श्लोक परिमाण की तत्त्वप्रकाशिनी नाम की एक वृत्ति है, इसका रचनाकाल वि. सं. 1248 अथवा 1278 है / वृत्ति के अंत में 19 पद्य की प्रशस्ति है जिससे इसके प्रणेता एवं गुरुपरम्परा ज्ञात होती है / वह इस प्रकार __ अभयदेवसूरि-धनेश्वरसूरि-अजितसिंहसूरि-वर्धमानसूरि-देवचन्द्रसूरिचन्द्रप्रभसूरि-भद्रेश्वरसूरि-अजितसिंहसूरि-देवप्रभसूरि / ___ इसके अतिरिक्त रविप्रभ के शिष्य उदयप्रभ ने इस पर 3203 श्लोक परिमाण विषमपद नाम की व्याख्या लिखी है / ये रविप्रभ यशोभद्र के शिष्य और धर्मघोष के प्रशिष्य थे। एक और 'विषमपद' नामक 3303 श्लोक परिमाण टीका का उल्लेख मिलता है, जो अज्ञातकर्तृक है / पद्ममन्दिरगणि ने इस पर एक बालावबोध भी लिखा है / इसकी एक हस्तलिखित प्रति विक्रम संवत् 1651 की मिलती है / - प्रवचनसारोद्धार में सात प्रकीर्णकों५ की 72 गाथाएं मिलती हैं / इनमें से कुछ को छोड़कर अधिकांशतया पूर्णरूपेण मिलती हैं, कहीं-कहीं पाठ भेद का अंतर दिखाई देता है / कुछ गाथाओं के अर्थ में समानता होते हुए भी दूसरे चरण भित्र हैं / इनमें. देविंदत्यओ की 7, गच्छाचार की 1, ज्योतिषकरंडक की 3, तित्थोगाली की 32, आराधनापताका (श्रीपाईणाचार्य रचित) की 20, आराधनापताका (श्री वीरभद्राचार्य रचित) की 6 एवं पज्जंताराहणा की 4 गाथाएं मिलती हैं। जहां तक दोनो ग्रंथों के पूर्वापर का सम्बन्ध है, बहुत स्पष्ट है कि प्रकीर्णकों से ही गाथाएं नेमिचंद्रसूरि ने प्रवचनसारोद्धार में ली हैं / क्योंकि यह काफी बाद का ग्रंथ है और प्रकीर्णक इसके बहुत पहले के हैं / अतः प्रवचनसारोद्धार से गाथाएं प्रकीर्णकों में गई होंगी, इसतरह की कल्पना के लिए कोई अवकाश नहीं रह जाता / यद्यपि चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, गच्छाचार, तन्दुलवैचारिक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान एवं मरणसमाधि आदि १०.प्रकीर्णक जो मुख्य माने जाते हैं, ये प्राचीन हैं, परंतु 22 प्रकीर्णकों में से कुछ प्रकीर्णक अवश्य ही ऐसे हैं जो बाद के हैं तथापि वे प्रवचनसारोद्धार से तो प्राचीन ही हैं / इस तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर हम स्पष्ट रूपसे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रकीर्णकों के बाद लिखे जानेवाले ग्रंथों में प्रकीर्णकों से गाथाएं अवतरित करने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। इससे हम एक निष्कर्ष यह भी निकाल सकते हैं कि प्रकीर्णकों के महत्त्व को परवर्ती जैन आचार्य स्वीकृत करते रहे हैं और उसकी विषयवस्तु एवं गाथाओं का अपनी ग्रंथरचनाओं में उपयोग भी करते रहे हैं। विभित्र प्रकीर्णकों की प्रवचनसारोद्धार में उपलब्ध होने वाली 72 गाथाओं का तुलनात्मक विवरण इसप्रकार है