________________ गणिविद्या प्रकीर्णक एवं उसका अन्य प्राचीन ग्रन्थों में स्थान * डॉ. सुभाष कोठारी वर्तमान में जैन आगमों का नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र के पश्चात् सर्वप्रथम विभागीकरण विधिमार्गप्रपा (आचार्य जिनप्रभसूरि १३वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है / उसमें अंग, उपांग, मूलसूत्र के साथ-साथ प्रकीर्णकों का भी उल्लेख प्राप्त होता है / जैन पारिभाषिक दष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रन्थों को कहा जाता है जो तीर्थंकरों के शिष्य उबुधवेत्ता श्रमणों द्वारा आध्यात्म संबद्ध विविध विषयों पर रचे जाते हैं। अनेक जैन आगमों एवं प्राचीन ग्रन्थों में भी प्रकीर्णकों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है / यद्यपि अलग-अलग ग्रन्थों में संख्या व नाम में कथंचित भेद पाया जाता है तथापि सभी वर्गीकरणों में गणिविद्या प्रकीर्णक को स्थान मिला है। गणिविद्या प्रकीर्णक की व्याख्या करते हुए नन्दीचूर्णि में लिखा है : सबाल वुड्ढाउलो गच्छो गणो, सो जस्स अत्थि सो गणी, विज्जत्ति णाणं, तं च जोइस-निमित्तगतं णातुंपसत्येसुइमे कज्जे कुरेति, तंजहा-पव्वावणा (१)सामाइयारोवणं (2) उवट्ठावणा (3) सुत्तस्स उद्देस समुद्देसा अणुण्णातो (4) गणारोवणं (5) दिसाणुण्णा (6) खेत्तेसु य णिग्गमपवेसा (7) एमाइया कज्जा जेसु तिहि करणणक्खत्त-मुहुत्त-जोगेसु य जे जत्थ करणिज्जा ते जत्थअज्झयणे वणिज्जति तमज्झयणं गणिविज्जा"४ अर्थात् गण का अर्थ है-समस्त बाल वृद्ध मुनियों का समूह / जो इनकी आज्ञा में हो, वह गणि कहलाता है / विद्या का अर्थ ज्ञान होता है / ज्योतिष निमित्त विषय का ज्ञान, दीक्षा, सामायिक का आरोपण, व्रत में स्थापना, श्रुत सम्बन्धित उपदेश, समुद्देश, अनुज्ञा गण का आरोपण, दिशानुज्ञा, निर्गम तथा प्रवेश आदि कार्यों को तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त एवं योग से करने का निर्देश जिस अध्ययन में होता है, वह गणिविद्या कहलाता है / श्री हरिभद्रसूरि कृत नन्दीसूत्र वृत्ति एवं पाक्षिकसूत्र वृत्ति में कहा गया है कि गुणों का समूह जिसमें हो, वह गणि कहलाता है / गणि को आचार्य भी कहा जाता है / आचार्य की विद्या को गणिविद्या कहा जाता है / विषयवस्तु इस ग्रन्थ में 82 एवं कहीं-कहीं पर 85 गाथाओं में 9 विषयों का निरुपण दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, गृह, दिवस, मुहूर्त, शकुनबल, लग्नबल, निमित्तबल के रुप में किया गया है / ग्रन्थ में प्रतिफलित विषयों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है :