________________ 174 : डॉ. सुरेश सिसोदिया वात्सल्य भाव रखना चाहिए तथा औषध आदि से उनकी सेवा स्वयं तो करनी ही चाहिए और दूसरों से भी करवानी चाहिए (35) / / ___प्रस्तुत ग्रन्थ में लोकहित करने वाले महापुरुषों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ऐसे कई महापुरुष भूतकाल में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे जो अपना सम्पूर्ण जीवन अपने एकमात्र लक्ष्य लोकहित हेतु व्यतीत करते हैं, ऐसे महापुरुषों के चरणयुगल में तीनों लोकों के प्राणी नतमस्तक होते हैं (36) / आगे की गाथा में यह भी विवेचन है कि ऐसे महापुरुषों के व्यक्तित्व का स्मरण करने मात्र से पापकर्मों का प्रायश्चित हो जाता है (37) / ग्रन्थ में शिष्य के लिए गुरु का भय सदैव अपेक्षित मानते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार संसार में नौकर, अश्व एवं वाहन आदि अपने स्वामी की सम्यक् देखभाल या नियन्त्रण के अभाव में स्वच्छंद हो जाते हैं उसीप्रकार प्रतिप्रश्न, प्रायश्चित तथा प्रेरणा आदि के अभाव में शिष्य भी स्वच्छंद हो जाते हैं इसलिए शिष्य को सदैव गुरु का भय रहना चाहिए (38) / ग्रन्थ में साधुओं के प्रत्येक गच्छ को गच्छ नहीं माना गया है वरन शास्त्रों का सम्यक अर्थ रखने वाले, संसार से मुक्त होने की इच्छा वाले, आलस्य रहित, व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले, सदैव अस्खलित चारित्र वाले और राग-द्वेष से रहित रहने वाले साधुओं के गच्छ को ही वास्तव में गच्छ माना गया है (39) / . साधु स्वरूप का निरूपण करते हुए ग्रन्थ में कहा गया है कि गीतार्थ के वचन भले ही हलाहल विष के समान प्रतीत होते हों तो भी उन्हें बिना संकोच के स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वे वचन विष नहीं, अपितु अमृत तुल्य होते हैं। ऐसे वचनों से एक तो किसी का मरण होता नहीं है और कदाचित् कोई उनसे मर भी जाय तो वह मरकर भी अमर हो जाता है। इसके विपरीत अगीतार्थ के वचन भले ही अमृत तुल्य प्रतीत होते हों तो भी उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए / वस्तुतः वे वचन अमृत नहीं, हलाहल विष की तरह हैं जिससे जीव तत्काल मृत्यु को प्राप्त होता है और वह कभी भी जन्म-मरण से रहित नहीं हो पाता (44 - 47) / अतः अगीतार्थ और दुराचारी की संगति का त्रिविध रूप से परित्याग करना चाहिए तथा उन्हें मोक्षमार्ग में चोर एवं लुटेरों की तरह बाधक समझना चाहिए (48-49) / ग्रन्थ के अनुसार सुविनीत शिष्य गुरुजनों की आज्ञा का विनयपूर्वक पालन करता है और धैर्यपूर्वक परिषहों को जीतता है / वह अभिमान, लोभ, गर्व और विवाद आदि नहीं करता है, वह क्षमाशील होता है, इन्द्रियजयी होता है / स्व-पर का रक्षक होता है, वैराग्यमार्ग में लीन रहता है तथा दस प्रकार की समाचारी का पालन करता है और आवश्यक क्रियाओं में संयमपूर्वक लगा रहता है (52-53) / विशुद्ध गच्छ की प्ररूपणा करते हुए ग्रन्थ में कहा गया है कि गुरु अत्यन्त कठोर, कर्कश, अप्रिय, निष्ठुर तथा क्रूर वचनों के द्वारा उपालम्भ देकर भी यदि शिष्य को गच्छ से बाहर निकाल दे तो भी जो शिष्य द्वेष नहीं करते, निन्दा नहीं करते, अपयश नहीं फैलाते,