________________ चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में प्रतिपादित विनयगुण ... * डॉ० हुकमचन्द जैन मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है / समाज एवं परिवार के बिना उसका जीवन निष्फल है / घर, परिवार एवं समाज को सुखमय बनाने के लिए व्यक्ति में जिन मानवीय गुणों का होना नितान्त आवश्यक है, उन्हीं में से एक गुण है-विनय / जैन आगमों, व्याख्याओं एवं टीकाओं के साथ ही चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में इसका विस्तार से विवेचन मिलता है / विनय का स्वरूप चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में विनय का स्वरूप समझाते हुए कहा है- 'जो छः प्रकार के जीवनिकायों के संयम का ज्ञाता और सरल चित्तवाला हो, वह निश्चित ही विनीत कहा जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में विनय की व्याख्या करते हुए कहा गया है-'जो कर्ममल को नष्ट करता है तथा पूज्य व्यक्तियों का आदर करता है, वह विनीत है / प्रायः 'विनय' शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है-(१) नम्रता, (2) आचार और (3) अनुशासन के अर्थ में / उत्तराध्ययनसूत्र में मुख्य रूप से श्रमणाचार तथा अनुशासन के अर्थ में ही विनय को समझा गया है। विनय की विविध परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि 'विनय' वस्तुतः व्यक्ति को 'अहं' से दूर हटाकर 'यथार्थ' में लाकर खड़ा करता है / जिससे व्यक्ति त्रिरत्न का पालन करता हुआ कर्मों की निर्जराकर अपने को परमतत्त्व (मोक्ष) की ओर अग्रसर करता है। विनय के भेद विनय के सामान्यतः पांच भेद बतलाये गये हैं 1. लोकानुवृत्ति विनय : आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, पाहणगति करना तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार देवता की पूजा करना, लोकानुवृत्ति विनय है। 2. अर्थनिमित्त विनय : अपने स्वार्थवश दूसरों को हाथ जोड़ना, अर्थनिमित्त विनय 3. काम तन्त्र विनय : काम के अनुष्ठान हेतु किया जाने वाला विनय कामतन्त्र विनय 4. भय विनय : भय के कारण विनय करना भय विनय है / 5. मोक्ष विनय : जिस विनय से कर्मों की निर्जरा होती हो और जो मोक्ष की ओर अग्रसर कराता हो, वह मोक्ष विनय है / पुनः मोक्ष विनय पाँच प्रकार का कहा गया है(अ) ज्ञान विनय, (ब) दर्शन विनय, (स) चारित्र विनय, (द) तप विनय और (य) उपचार विनय / इसके भी भेदाभेद है, किन्तु हम यहाँ इसकी विस्तृत चर्चा नहीं कर रहे हैं।