________________ 172 : डॉ. सुरेश सिसोदिया साहित्यिक साक्ष्यों में मुनिसंघ के रुप में 'गच्छ' शब्द का प्रयोग ८वीं शताब्दी के पूर्व नहीं मिलता / अतः गच्छाचार-प्रकीर्णक किसी भी स्थिति में ८वीं शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है / पुनः गच्छाचार प्रकीर्णक में स्वच्छन्द और सुविधावादी गच्छों की स्पष्ट रूप से समालोचना की गई है / यह सुविदित है कि निर्ग्रन्थ संघ में स्वच्छन्द और सुविधावादी प्रवृत्तियों का विकास चैत्यवास के प्रारंभ के साथ लगभग चौथी शताब्दी में हुआ जिसका विरोध सर्वप्रथम ६ठीं शताब्दी में दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ सूत्तपाहुड, बोधपाहुड एवं लिंगपाहुड आदि में किया 22 / श्वेताम्बर परम्परा में शिथिलाचारी और स्वच्छन्दाचारी प्रवृत्तियों का विरोध लगभग ८वीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थसंबोधप्रकरण में किया है 23 | संबोधप्रकरण और गच्छाचार प्रकीर्णक में अनेक गाथाएँ समान रूप से पाई जाती हैं इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इन दोनों ग्रन्थों का रचनाकाल समकालीन होना चाहिए / यद्यपि इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि संबोधप्रकरण और गच्छाचार में समान रूप से उपलब्ध गाथाएँ गच्छाचार में संबोधप्रकरण से ली गई हैं / यदि हम यह मानते हैं तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि गच्छाचार संबोधप्रकरण से परवर्ती है / श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्रसूरि के पश्चात् स्वच्छन्द और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों का विरोध खरतरगच्छ के संस्थापक आचार्य जिनेश्वरसरि के द्वारा भी किया गया, उनका काल लगभग १०वीं शताब्दी का है / अतः यह भी संभव है कि गच्छाचार की रचना १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध अथवा ११वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कभी हुई हो / पुनः यदि हम गच्छाचार के रचयिता आचार्य वीरभद्र को मानते हैं तो उनका काल ईस्वी सन की १०वीं शताब्दी निश्चित होता है। ऐसी स्थिति में गच्छाचार का रचनाकाल भी ईस्वी सन की १०वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध होना चाहिये, किन्तु वीरभद्र गच्छाचार के रचयिता हैं, यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है / अतः गच्छाचार का रचनाकाल ८वीं शताब्दी से 10 शताब्दी के मध्य ही कभी माना जा सकता है। विषयवस्तु गच्छाचार प्रकीर्णक में कुल 137 गाथायें हैं। ये सभी गाथायें गच्छ, आचार्य एवं साधु-साध्वियों के आचार का विवेचन प्रस्तुत करती हैं / इस ग्रन्थ में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है ___ सर्वप्रथम लेखक मंगलाचरण के रूप में त्रिदशेन्द्र (देवपति) भी जिसे नमन करते हों, ऐसे महाभाग महावीर को नमस्कार करके गच्छाचार का वर्णन करना प्रारम्भ करता है (1) / ग्रन्थ में सन्मार्गगामी गच्छ में रहने को ही श्रेष्ठ मानते हुए कहा गया है कि उन्मार्गगामी गच्छ में रहने के कारण कई जीव संसारचक्र में घूम रहे हैं (2) / सन्मार्गगामी गच्छ में रहने का लाभ यह है कि यदि किसी को आलस्य अथवा अहंकार आ जाए, उसका उत्साह भंग हो जाए अथवा मन खिन हो जाए तो भी वह गच्छ के अन्य साधुओं को देखकर तप आदि क्रियाओं में घोर पुरुषार्थ करने लग जाता है जिसके परिणाम स्वरूप उसकी आत्मा में वीरत्व का संचार हो जाता है (3-6) /