________________ गच्छाचार ( प्रकीर्णक ) का समीक्षात्मक अध्ययन : 171 ग्रन्यकर्ता के रूप में हमने पूर्व में जिन वीरभद्र का उल्लेख किया है वह सम्भावना मात्र है इस सन्दर्भ में निश्चयपूर्वक कुछ कहना दुराग्रह होगा / गच्छाचार का रचनाकाल नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण किया गया है उसमें गच्छाचार प्रकीर्णक का कोई उल्लेख नहीं है / तत्त्वार्थभाष्य और दिगम्बर परम्परा की सर्वार्थसिद्धि टीका में भी गच्छाचार प्रकीर्णक का कहीं कोई उल्लेख नही हुआ है / इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में भी कहीं भी गच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे यही फलित होता है कि ६ठीं शताब्दी से पूर्व इस ग्रन्थ का कोई अस्तित्व नहीं था / गच्छाचार प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा में मिलता है जहाँ चौदह प्रकीर्णकों में गच्छाचार को अन्तिम प्रकीर्णक गिना गया है१८ / इसका तात्पर्य यह है कि गच्छाचार प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र से परवर्ती अर्थात् ६वीं शताब्दी के पश्चात् तथा विधिमार्गप्रपा अर्थात् १४वीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में आ चुका था / गच्छाचार प्रकीर्णक के रचयिता ने जिसप्रकार ग्रन्थ में ग्रन्थकर्ता के रूप में कहीं भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है उसीप्रकार इस ग्रन्थ के रचनाकाल के सन्दर्भ में भी उसने ग्रन्थ में कोई संकेत नहीं दिया है / किन्तु ग्रन्थ की १३५वीं गाथा में ग्रन्थकार का यह कहना कि इस ग्रन्थ की रचना महानिशीध, कल्प और व्यवहारसूत्र के आधार पर की गई है१९। इस अनुमान को बल देता है कि गच्छाचार की रचना महानिशीथ के पश्चात् ही कभी हुई है / ___ महानिशीथ का उल्लेख नन्दीसूत्र की सूची में मिलता है 20 / इससे यह फलित होता है कि महानिशीथ ६ठीं शताब्दी पूर्व का ग्रन्थ है किन्तु महानिशीथ की उपलब्ध प्रतियों में यह भी स्पष्ट उल्लिखित है कि महानिशीथ की प्रति के दीमकों द्वारा भक्षित हो जाने पर उसका उद्धार आचार्य हरिभद्रसूरि ने ८वीं शताब्दी में किया था 21 / इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महानिशीथ ग्रन्थ भले ही ६ठीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में रहा हो, किन्तु उसके वर्तमान स्वरूप का निर्धारण तो आचार्य हरिभद्र की ही देन है / इससे यही प्रतिफलित होता है कि गच्छाचार के प्रणेता के समक्ष महानिशीथसूत्र अपने वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध था / इस आधार पर गच्छाचार की रचना ८वीं शताब्दी के पश्चात् तथा १३वीं शताब्दी से पूर्व ही कभी हुई है, ऐसा मानना चाहिए / हरिभद्रसूरि द्वारा आगम ग्रन्थों के उल्लेख में कहीं भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं किये जाने से भी यही फलित होता है कि गच्छाचार की रचना हरिभद्रसूरि (८वीं शताब्दी) के पश्चात ही कभी हुई है / हम पूर्व में ही यह उल्लेख कर चुके हैं कि गच्छाचार में 'गच्छ' शब्द का मुनि संघ हेतु जो प्रयोग हुआ है, वह प्रयोग भी ८वीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आया है / लगभग ८वीं शताब्दी से चन्द्रकुल, विद्याधरकुल, नागेन्द्रकुल और निवृत्तिकुल से चन्द्रगच्छ, विद्याधरगच्छ आदि 'गच्छ' नाम से अभिहित होने लगे थे। इतना तो निश्चित है कि गच्छों के अस्तित्व में आने के बाद ही गच्छाचार प्रकीर्णक की रचना हुई होगी। अभिलेखीय एवं