Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 182
________________ 170 : डॉ० सुरेश सिसोदिया परम्परा के प्रतिष्ठा लेखों में 'गण', 'शाखा' और 'कुल' शब्दों का उल्लेख होता हो, किन्तु व्यवहार में तो 'गच्छ' शब्द का ही प्रचलन है। 'गच्छ' शब्द का मुनि समूह के अर्थ में प्रयोग यद्यपि ६ठी-७वीं शताब्दी में मिलने लगता है। किन्तु स्पष्ट रूप में गच्छों का आविर्भाव १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही माना जा सकता है / वृहद्गच्छ, संडेरगच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छों का प्रार्दुभाव १०वीं-११वीं शताब्दी के लगभग ही हुआ है / गच्छाचार प्रकीर्णक में मुख्य रूप से अच्छे गच्छ में निवास करने से क्या लाभ और क्या हानियाँ हैं, इसकी चर्चा के साथ-साथ अच्छे गच्छ और बूरे गच्छ के आचार की पहचान भी कराई गई है / इसमें यह बताया गया है कि जो गच्छ अपने साधु-साध्वियों के आचार एवं क्रिया-कलापों पर नियंत्रण रखता है, वही गच्छ सुगच्छ है और ऐसा गच्छ ही साधक के निवास करने योग्य है / प्रस्तुत ग्रंथ में इस बात पर भी विस्तार से चर्चा हुई है कि अच्छे गच्छ के साधु-साध्वियों का आचार कैसा होता है ? इसी चर्चा के सन्दर्भ में प्रस्तुत ग्रन्थ में शिथिलाचारी और स्वच्छन्द आचार्य की पर्याप्त रूप से समालोचना भी की गयी है / गच्छाचार के कर्ता प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिताओं के सन्दर्भ में मात्र देवेन्द्रस्तव को छोड़कर अन्य किसी प्रकीर्णक के रचयिता का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता / यद्यपि चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान और भक्तपरिज्ञा आदि कुछ प्रकीर्णकों के रचयिता के रूप में वीरभद्र का नामोल्लेख उपलब्ध होता है१६ और जैन परम्परा में वीरभद्र को महावीर के साक्षात् शिष्य के रूप में उल्लिखित किया जाता है, किन्तु प्रकीर्णक ग्रन्थों की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह फलित होता है कि वे भगवान महावीर के समकालीन नहीं हैं / एक अन्य वीरभद्र का उल्लेख वि० सं० 1008 का मिलता है 17 / सम्भवतः गच्छाचार की रचना इन्हीं वीरभद्र के द्वारा हुई हो। प्रस्तुत प्रकीर्णक में प्रारम्भ से अन्त तक किसी भी गाथा में ग्रन्थकर्ता ने अपना नामोल्लेख नहीं किया है / ग्रन्थ में ग्रन्थकर्ता के नामोल्लेख के अभाव का वास्तविक कारण क्या रहा है ? इस सन्दर्भ में निश्चय पूर्वक भले ही कुछ नहीं कहा जा सकता हो, किन्तु एक तो ग्रन्धकार ने इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही यह कहकर कि श्रुतसमुद्र मेंसे इस गच्छाचार को समुद्भत किया गया है, अपने को इस संकलित ग्रन्थ के कर्ता के रूप में उल्लिखित करना उचित नहीं माना हो, दूसरे ग्रन्थ की गाथा 135 में भी ग्रन्थकार ने यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि महानिशीथ, कल्प और व्यवहारसूत्र से इस ग्रन्थ की रचना की गई है / हमारी दृष्टि से इस अज्ञात ग्रन्थकर्ता के मन में यह भावना अवश्य रही होगी कि प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु तो मुझे, पूर्वाचार्यों अथवा उनके ग्रन्थों से प्राप्त हुई है, इस स्थिति में मैं इस ग्रन्थ का कर्ता कैसे हो सकता हूँ ? वस्तुतः प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के समान ही इस ग्रन्थ के कर्ता ने भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है / इससे जहाँ एक ओर उसकी विनम्रता प्रकट होती है वहीं दूसरी ओर यह भी सिद्ध होता है कि यह एक प्राचीन स्तर का ग्रन्थ है।

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