________________ 166 : डॉ० सुरेश सिसोदिया का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि उसे १४वीं शती में एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त थी। सामान्यतया प्रकीर्णकों का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे / परम्परागत मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था / समवायांगसूत्र में 'चौरासीइं पइण्णगं सहस्साई' कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों की ओर संकेत किया गया है / आज यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या निश्चित नहीं है, किन्तु वर्तमान में 45 आगमों में दस प्रकीर्णक माने जाते हैं / ये दस प्रकीर्णक निम्नलिखित हैं : (1) चतुःशरण, (2) आतुरप्रत्याख्यान, (3) महाप्रत्याख्यान, (4) भक्तपरिज्ञा, (5) तन्दुलवैचारिक, (6) संस्तारक, (7) गच्छाचार, (8) गणिविद्या, (9) देवेन्द्रस्तव और (10) मरणसमाधि। इन दस प्रकीर्णकों के नामों में भी भित्रता देखी जा सकती है / कुछ ग्रन्थों में गच्छाचार और मरणसमाधि के स्थान पर चन्द्रवेध्यक और वीरस्तव को गिना गया है। कहीं भक्तपरिज्ञा को नहीं गिनकर चन्द्रवेध्यक को गिना गया है। इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं यथा-'आउरपच्चक्खाणं' (आतुर प्रत्याख्यान) के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं / दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों की श्रेणी में मानता है। मुनि श्री पुण्यविजयजी के अनुसार प्रकीर्णक नाम से अभिहित इन ग्रन्थों का संग्रह किया जाय तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं (1) चतुःशरण, (2) आतुरप्रत्याख्यान, (3) भक्तपरिज्ञा, (4) संस्तारक, (5) तंदुलवैचारिक, (6) चन्द्रवेध्यक, (7) देवेन्द्रस्तव, (8) गणिविद्या, (9) महाप्रत्याख्यान, (10) वीरस्तव, (11) ऋषिभाषित, (12) अजीवकल्प, (13) गच्छाचार, (14) मरणसमाधि, (15) तीर्थोद्गालिक, (16) आराधनापताका, (17) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, (18) ज्योतिष्करण्डक, (19) अंगविद्या, (20) सिद्धप्राभृत, (21) सारावली और (22) जीवविभक्ति। ___इस प्रकार मुनि श्री पुण्यविजयजी ने बाईस प्रकीर्णकों में गच्छाचार का भी उल्लेख किया है / आचार्य जिनप्रभ के दूसरे ग्रन्थ सिद्धान्तागमस्तव की विशालराजकृत वृत्ति में भी गच्छाचार का स्पष्ट उल्लेख मिलता है / इस प्रकार जहाँ नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र की सूचियों में गच्छाचार का उल्लेख नहीं है वहाँ आचार्य जिनप्रभ की सूचियों में गच्छाचार का स्पष्ट उल्लेख है / इसका तात्पर्य यह है कि गच्छाचार नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र से परवर्ती किन्तु विधिमार्गप्रपा से पूर्ववर्ती है /