________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा : 91 हैं / मैं इनके पूर्वापर होने की चर्चा में न जाकर इतना ही कहूँगा कि समाधिमरण के प्रतिपादन की दृष्टि से यापनीय परम्परा के ये दोनों ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं | प्रकीर्णक साहित्य पर दृष्टिपात करने के अनन्तर ज्ञात होता है कि उसमें सर्वत्र पंडितमरण, अभ्युद्यतमरण किंवा समाधिमरण से मरने की प्रेरणा दी गई है / सर्वत्र यह ध्वनि गूंजती है - इक्कं पंडियमरणं छिण्णइ जाईसयाई बहुयाइं / तं मरणं मरियव्वं जेण मओ सुम्मओ होई // 10 __ अर्थात् पंडितमरण सैंकड़ों जन्मों का बंधन काट देता है, इसलिए उस मरण से मरना चाहिए, जिससे मरना सार्थक हो जाय / मरण उसी का सार्थक है जो पंडितमरण से देह त्याग करता है / इसके लिए पर्याप्त तैयारी अथवा तत्परता की आवश्यकता होती है, इसलिए इस मरण को अभ्युद्यतमरण कहा गया है तथा इस मरण के समय चित्त में समाधि रहती है, आत्मा, देह एवं शरीर में भिन्नता का अनुभवकर तीव्र वेदना काल में भी शान्त एवं अनाकुल रहता है, इसलिए इसे समाधिमरण कहते हैं। यह मरण पण्डा अर्थात् सद्-असद् विवेकिनी बुद्धि से सम्पन्न किंवा सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न संयती ही कर सकता है, इसलिए इस मरण को पण्डितमरण कहते हैं / प्रकीर्णकों में ये तीनों शब्द एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं / ज्ञानपूर्वक मरने वाला एक उच्छ्वास मात्र काल में उतने कर्मों को क्षय कर देता है जितने अज्ञानी जीव बहुत से करोड़ों वर्षों में भी क्षय नहीं कर सकता।११ इसलिए कर्म-निर्जरा की दृष्टि से पण्डितमरण अत्यन्त उपादेय है / : प्रकीर्णक-रचयिता आचार्यों की दृष्टि में पंडितमरण साधना का उत्कृष्ट रूप है। इसके लिए जीवन में साधना के अभ्यास की आवश्यकता होती है / जो साधक अपने जीवन में योग साधना का अभ्यास नहीं करते हैं वे मरणकाल में परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं / यही नहीं बहिर्मुखी वृत्तियों वाला, ज्ञानपूर्वक आचरण न करने वाला तथा पूर्व में साधना न किया हुआ जीव आराधना काल में अर्थात् समाधिमरण के अवसर पर विचलित हो जाता है / इसलिए मुक्ति रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अप्रमादी होकर निरन्तर सद्गुण सम्पत्र होने का प्रयत्न करना चाहिए / इसका अर्थ यह नहीं कि मरणकाल के उपस्थित होने पर कोई साधक अपने को बदल नहीं सकता / यद्यपि विशिष्ट साधक मरणकाल मे भी अपने को बदल सकता है किन्तु सामान्य साधकों को पर्याप्त समय एवं प्रतिबोध की आवश्यकता होती है / चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक के रचयिता ने मृत्युकाल उपस्थित होने पर मिथ्यात्व का वमनकर सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए कामना की है तथा उन्हें धन्य कहा है जो इन्द्रिय-सुखों के अधीन न होकर मरणसमुद्घात के द्वारा मिथ्यात्व की निर्जरा कर देते हैं / 13 यहाँ एक बात यह स्पष्ट हो जाती है कि साधुवेश अंगीकार कर लेने मात्र से प्रत्येक श्रमण सम्यक्त्वी नहीं हो जाता / जब तक वह बहिर्मुखी है, ऐन्द्रियक सुखों के अधीन एवं रसलोलुप है, जब तक शरीर के साथ वह ममत्व को उचित मानता है तब तक वह सम्यक्त्वी नहीं होता। सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यक् होता है तथा ज्ञान सम्यक् होने पर ही चारित्र एवं तप सम्यक् होते हैं / इन चारों को आराधना के चार स्कन्धं माना