________________ 112 : डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय श्वेताम्बर जैनागम अर्धमागधी में निबद्ध है / श्वेताम्बर परंपरा 45 आगमों को मानती है / जिसमें आचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग आदि 12 अंग, औपपातिक, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना आदि 12 उपांग, चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान आदि 10 प्रकीर्णक, व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध आदि चार छेद सूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आवश्यक और पिण्डनियुक्ति आदि चार मूल सूत्र तथा नन्दी और अनुयोगद्वार इन दो चूलिका सूत्रों का समावेश है। __ दिगम्बर आगम शौरसेनी भाषा में निबद्ध है। शौरसेनी भाषा शूरसेन नामक क्षेत्र (ब्रजमण्डल, मथुरा के आसपास का प्रदेश) में बोली जाने के कारण शौरसेनी कहलाई। . उसी प्रकार जैसे मगध की भाषा मागधी या अर्धमागधी कहलाई / मध्यप्रदेश (गंगा-यमुना की उपत्यका) के साथ शौरसेनी का घनिष्ठ सम्बन्ध था, जो प्राचीन भारतीय संस्कृति का केन्द्र रहा है और जो संस्कृत नाटकों की उत्पत्ति का केन्द्र माना जाता है / मागधी और अर्धमागधी की भाँति शौरसेनी की उत्पत्ति भी प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं से हुई है। वररुचि ने प्राकृत प्रकाश में संस्कृत को शौरसेनी का आधार स्वीकार किया है / ध्वनितत्त्व की दृष्टि से शौरसेनी मध्य भारतीय भाषा के विकास में संक्रमण काल की अवस्था है, महाराष्ट्री इसके बाद आती है / 5 मथुरा जो शौरसेनी का केन्द्रबिन्दु रहा है, जैन आचार्यो की प्रवृत्तियों का मुख्य केन्द्र रहा है / अतएव उनकी रचनाओं में शौरसेनी की प्रमुखता आना स्वाभाविक है / शौरसेनी में रचित आगमों की भाषा में एकरूपता का अभाव दृष्टिगोचर होता है / पिशल ने दिगम्बरीय आगम ग्रंथों की शौरसेनी को जैन शौरसेनी नाम दिया। उनके मतानुसार बोलियाँ अर्थात बोल-चाल की भाषाएं जो व्यवहार में लाई जाती हैं, उनमें शौरसेनी का स्थान प्रथम है / हर्मन याकोबी ने इसे क्लासिकल पूर्व (Pre-Classical) नाम दिया है। इसी शौरसेनी में दिगम्बरों के सम्पूर्ण आगम निबद्ध हैं / दिगम्बर परंपराश्वेताम्बर परंपरा को मान्य 45 आगमों को नहीं मानती / उनके अनुसार आगम साहित्य विच्छिन हो गया है, परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में भी प्राचीन आगमों के उल्लेख तो मिलते ही हैं / जैसे श्वेताम्बरीय नन्दीसूत्र में आगमों की गणना में 12 उपांगों का उल्लेख नहीं है, वैसे ही दिगम्बर परंपरा में भी उपांगों का उल्लेख नहीं है / किन्तु द्वादशांगों को दिगम्बर भी श्वेताम्बर की भांति अर्धमागधी में गणधरों द्वारा रचित मानते हैं परंतु उनका लोप हो गया है, वे ऐसा मानते हैं। दिगम्बर परंपरा के अनुसार आगमों के दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट / अंगबाह्य के 14 भेद हैं- 1 सामायिक, 2 चतुर्विंशतिस्तव, 3 वन्दना, 4 प्रतिक्रमण, 5 वैनयिक, 6 कृतिकर्म, 7 दशवैकालिक, 8 उत्तराध्ययन, 9 कल्पव्यवहार, 10 कल्पाकल्प, 11. महाकल्पिक, 12 पुण्डरीक, 13 महापुण्डरीक और 14 निषिद्धिका / अंगप्रविष्ट के 12 भेद हैं, जो श्वेताम्बरों को मान्य आचारांग आदि 12 अंग ही हैं। जिनका दिगम्बर परंपरा सम्पूर्ण विच्छेद मानती है / दृष्टिवाद का लोप दोनो परंपराएं मानती हैं / दिगम्बरीय परंपरा दृष्टिवाद के पांच अधिकार मानती है-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और