________________ प्रकीर्णक और शौरसेनी आगम साहित्य : 113 चूलिका / दिगम्बर परंपरा दृष्टिवाद के कुछ बचे हुए अंशों को षट्खण्डागम के रूप में मानती है। दिगम्बर परंपरा में षट्खण्डागम और कषायप्राभृत ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सम्बन्ध महावीर की द्वादशांग वाणी से बताया जाता है / शेष समस्त श्रुत ज्ञान क्रमशः विलुप्त और विच्छिन्न हुआ माना जाता है / सम्पूर्ण दिगम्बरीय साहित्य को चार भागों में विभक्त किया गया है 1. प्रथमानुयोग-इमसें रविसेन का पद्मपुराण, जिनसेन का हरिवंशपुराण और आदिपुराण तथा जिनसेन के शिष्य गुणभद्र के उत्तरपुराण का अंतर्भाव होता है / 2. करणानुयोग-इसमें सूर्यप्रज्ञप्ति और जयधवला का अंतर्भाव होता है / 3. द्रव्यानुयोग-इसमें कुन्दकुन्दाचार्य की रचनायें-प्रचवनसार, पंचास्तिकाय, समयसार आदि, उमास्वामी के तत्त्वार्धसूत्र और उनकी टीकाएँ, समन्तभद्र की आप्तमीमांसा और अकलंक व विद्यानन्द कृत टीकाओं का समावेश है। __4. चरणानुयोग-इसमें वट्टकेर के मूलाचार और त्रिवर्णाचार तथा समन्तभद्र के रत्नकरंडकश्रावकाचार का अंतर्भाव है। प्रकीर्णक दिगम्बरीय परंपरा प्रकीर्णकों को नहीं मानती / परंतु, श्वेताम्बर परंपरा की चाहे चौरासी आगमों को माननेवाली परंपरा हो या पैंतालीस, दोनों ने प्रकीर्णक ग्रन्थों के स्थान और महत्त्व को स्वीकार किया है। सामान्यतः प्रकीर्णक का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है / नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परंपरानुसार यह भी मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था / समवायांगसूत्र में 'चौरासीइं पइण्णगं सहस्साई पण्णत्ता' कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के 84 हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया गया है / महावीर के तीर्थ में 14 हजार साधुओं का उल्लेख प्राप्त होता है / अतः उनके तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या भी 14 हजार मानी जासकती है-यद्यपि यह मात्र पारम्परिक मान्यता है / वर्तमान में मुख्य प्रकीर्णकों की संख्या 10 है, ये हैं-१ चतुःशरण, 2 आतुरप्रत्याख्यान, 3 महाप्रत्याख्यान, 4 भक्तपरिज्ञा, 5 तन्दुलवैचारिक, 6 संस्तारक, 7 गच्छाचार, 8 गणिविद्या, 9 देवेन्द्रस्तव, 10 मरणसमाधि / प्रकीर्णक नाम से अभिहित समस्त ग्रन्थों का संग्रह करने पर निम्न 22 प्रकीर्णक प्राप्त होते हैं-१ चतुःशरण, 2 आतुरप्रत्याख्यान, 3 महाप्रत्याख्यान, 4 भक्तपरिज्ञा, 5 तन्दुलवैचारिक, 6 संस्तारक, 7 गच्छाचार, 8 गणिविद्या, 9 देवेन्द्रस्तव, 10 मरणसमाधि, 11 चन्द्रावेध्यक, 12 वीरस्तव, 13 अजीवकल्प, 14 ऋषिभाषित, 15 द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 16 ज्योतिषकरण्डक, 17 अंगविद्या, 18 सिद्धप्राभृत, 19 सारावली, 20 आराधनापताका, 21 तित्थोगाली और 22 जीवविभक्ति / 1deg एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी मिलते हैं, यथा आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं / इनमें