________________ 94 : डॉ० धर्मचन्द जैन वह माया, मिथ्यादर्शन एवं निदान शल्यों को छोड़कर आत्मशुद्धि करता है / वह साधु तप आदि करके संलेखनां भी करता है / गण का अधिपति भी इस मरण को अपनाता है। सविचार भक्तपरिज्ञामरण का तृतीय द्वार है-ममत्वव्युच्छेद / इस ममत्वव्युच्छेद द्वार में मात्र शरीरादि से ममत्व छोड़ने की बात नहीं है, अपितु इसके भी 10 प्रतिद्वार हैं१. आलोचना 2. गुण-दोष 3. शय्या 4. संस्तारक 5. निर्यापक 6. दर्शन 7. हानि 8. प्रत्याख्यान 9. क्षमणा 10. क्षमादान / इन द्वारों से मरण की विधि प्रकट होती है / सविचारमरण का चौथा द्वार है-समाधिलाभ / इसके आठ प्रतिद्वार हैं१. अनुशिष्टि 2 सारणा 3. कवच 4. समता ५.ध्यान 6. लेश्या ७.आराधना 8. परित्याग। संस्तारकगत क्षपक को निर्यापक (चित्त में ममाधि लाने वाले योग्य उपदेशक साधु) नौ प्रकार की भाव संलेखना का उपदेश देते हैं जिसमें मिथ्यात्व का वमन, सम्यक्त्व का ग्रहण, पञ्चमहाव्रत की रक्षा आदि सम्मिलित हैं। धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान तथा प्रशस्त लेश्याओं को इसमें अपनाया जाता है / अन्त में शरीरत्याग करने के सम्बन्ध में उल्लेख हैं। (ii) अविचार भक्तपरिज्ञामरण यह मरण साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए है / आचार्य वीरभद्र ने इसके 3 भेद किए हैं-१. निरुद्ध २.निरुद्धतर और 3. परमनिरुद्ध / 24 जंघाबल के क्षीण हो जाने पर अथवा रोगादि के कारण कृश शरीर वाले साधु का बिना शरीर संलेखना किए जो समाधिमरण होता है उसे निरुद्ध अविचार भक्तपरितामरण कहते हैं / वह मरण यदि लोगों को ज्ञात हो जाय तो उसे प्रकाश और ज्ञात न होने पर अप्रकाश कहा जाता है / व्याल (सर्प), अग्नि, व्याघ्र आदि के कारण अथवा शूल, मूर्छा एवं दस्त लगने आदि के कारण अपनी आयु को उपस्थित समझकर समाधिमरण की जो क्रिया करता है वह निरुद्भतर कहलाती है। जबभिक्षु की वाणी भी वातादि के कारण रूक जाय तो वह मृत्युको उपस्थित समझकर परमनिरुद्धमरण मरता है / 25 भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में अविचारमरण का विस्तृत विवेचन है किन्तु वहां निरुद्ध, निरुद्धतर एवं परमनिरुद्ध भेद नहीं किए गए हैं / भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक के रचयिता आचार्य वीरभद्र के अनुसार साधु एवं गृहस्थ दोनों के द्वारा इस मरण को ग्रहण किया जाता है / 26 जब व्याधि, जरा और मरण के मगरमच्छों की निरन्तर उत्पत्ति से युक्त संसारसमुद्र दुःखद प्रतीत हो तथा मृत्यु नजदीक प्रतीत हो तो शिष्य गुरु के चरणों में जाकर कहे कि मैं संसार समुद्र को तैरना चाहता हूँ आप मुझे भक्तपरिज्ञा में आरूढ़ कीजिए / वह गुरु भी शिष्य को आलोचना और क्षमापना के साथ भक्तपरिज्ञा में आरूढ़ होने के लिए कहता है / शिष्य फिर वैसा ही करके तीन शल्यों से भी रहित होता है / गुरु उस शिष्य को महाव्रतों में आरूढ़ करता है / यदि शिष्य देशविरत अर्थात् श्रावक हो तो गुरु उसे अणुव्रतों में आरूढ़ करता है / वह शिष्य हर्षित होकर गुरु, संघ एवं साधर्मिक की पूजा करता है / गृहस्थ साधक फिर अपने द्रव्य का मन्दिर बनवाने, जिनप्रतिमाओं की स्थापना करवाने आदि कार्यों में उपयोग करता है / यदि वह एवंविरति में अनुराग रखने वाला हो तो वह भी संस्तारक-प्रव्रज्या को