________________ 106 : डॉ० धर्मचन्द जैन स्वीकार किया जाता है / अचानक मृत्यु का प्रसंग आने पर भी साधक इस मरण को . सजगतापूर्वक अपना सकता है / 15. यदि समाधिमरण काल में कोई साधक विचलित हो जाय एवं चित्त में: असमाधि हो जाय तो उसका मरण समाधिमरण नहीं कहा जा सकता / इसलिए यह पूरे जीवन की साधना की अन्तिम परिणति ही माना जा सकता है / साधना के अभ्यास के अभाव : में इसे अपनाना उतना आसान नहीं है / 16. समस्त साधु या श्रावक इस मरण से नहीं मर पाते, कुछ ही इसे अपना पाते सन्दर्भ सूची द्रष्टव्य, समवायांगसूत्र, सप्तदश स्थानक समवाय द्रष्टव्य, समवायांगसूत्र, दशस्थानक समवाय द्रष्टव्य, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र स्थानाङ्गसूत्र, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र 2.4.4 11-414 वही, सूत्र 3.4.519 वही, सूत्र 3.4.520-522 उत्तराध्ययनसूत्र, पंचम अध्ययन, गाथा 2-3 इच्चेवं विमोहायतणं हियं सुहं खमं णिस्सेसं आणुगामियं त्ति बेमि / -आचारांग सूत्र, प्रका० आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र 1.8.4.215 द्रष्टव्य, महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक , प्रका० आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, भूमिका पृ० 52 10. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, गाथा 49, आराधनापताका प्रकीर्णक, गाथा 50, मरणसमाधि प्रकीर्णक, गाथा 245 जं अन्नाणी कम्मं खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहिं / तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ, ऊसास मित्तेणं / / (महाप्रत्याख्यान, गाथा 101) 12. चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक, गाथा 122 13. वही, गाथा 149-150 14. दंसणनाण चरित्ते तवे य आराहणा चउक्खंधा / सा चेव होइ तिविहा उक्कोसा मज्झिम जहन्ना / / ( महाप्रत्याख्यान, गाथा 137)