________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 33 (3) शय्या, (4) संस्तारक, (5) निर्यामक, (6) दर्शन, (7) हानि, (8) प्रत्याख्यान, (9) क्षमणा (१०)क्षमण / प्रथम प्रतिद्वार में क्षपक की आलोचना का विस्तार से निरूपण, द्वितीय में सम्यक् रूप से आलोचना न करने के दस दोषों के निरूपण के साथ सम्यक् आलोचना के गुणों का प्रतिपादन, तृतीय में क्षपक के लिए उपयुक्त वसति, चतुर्थ में योग्य संस्तारक, पंचम में विविध सुश्रूषाप्रवीण अड़तालिस प्रकार के निर्यामकों का स्वरूप कथन, छठवें में आहार का विविध प्रकार त्याग करने पर उत्कृष्ट आहार दिखाने कानिरूपण, सप्तम 'हानि' प्रतिद्वार में उत्कृष्ट आहार का दर्शन कराने पर किसी क्षपक को रसासक्त जानकर उस-उस उत्कृष्ट आहार से हानि का निरूपण करते हुए क्षपक को रस में आसक्ति के त्याग का निर्देश है। आठवें में कम से क्षपक द्वारा सर्वाहार के त्याग का, नवें क्षमणा' प्रतिद्वार में गुरु की प्रेरणा से सर्वसंघ के प्रति क्षमायाचना, दसवें क्षमण' में क्षपक का सर्वसंघ को क्षमादान का कथन है, उसके पश्चात् ममत्व व्युच्छेद का फल बताया गया है / चतुर्थ समाधिलाभद्वार' के आठ प्रतिद्वार इस प्रकार बताये गये हैं-(१) अनुशिष्टि, (2) सारणा, (3) कवच, (4) समता, (5) ध्यान, (6) लेश्या, (7) आराधनाफल और (8) विजहान प्रतिद्वार / प्रथम अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में संस्तारक गत क्षपक के प्रति निर्यामक प्ररूपित नवप्रकार की भाव संलेखना का उपदेश है / इसके अन्तर्गत मिथ्यात्व-वमन, सम्यक्त्व भावना, श्रेष्ठ भक्ति, अर्हनमस्कार, ज्ञानोपयोग, पञ्चमहाव्रत रक्षा, कषाय त्याग, इन्द्रिय विजय और तप में उद्यम का उपदेश है / उपदेश के अन्त में क्षपक द्वारा उपदेश स्वीकार करने का उल्लेख है / 10 द्वितीय 'सारणा' प्रतिद्वार में क्षपक के ध्यान में विघ्नकारी वेदनाओं के प्रसंग में चिकित्सा आदि का प्ररूपण, 'कवच' प्रतिद्वार में विविध परिषहों को सम्यक्त्वपूर्वक सहन करने का निरूपण, समता' प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा समभाव अंगीकार करना, 'ध्यान' प्रतिद्वार में आर्त व रौद्र ध्यान के परित्यागपूर्वक धर्म एवं शुक्ल ध्यान अंगीकार का विस्तार से स्वरूप कथन, 'लेश्या' प्रतिपत्ति द्वार में प्रशस्त लेश्याओं की प्रतिपत्ति, सप्तम आराधनाफल' प्रतिद्वार में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य आराधना के फल के निरूपण के साथ शिथिलाचारियों की अप्रशस्त गति का कथन है / अष्टम विजहाण' प्रतिद्वार में समय आने पर क्षषक द्वारा शरीर के परित्याग का विस्तार से निरूपण है / 11 - सविचार भक्तपरिज्ञा मरण के वर्णन के पश्चात अविचार भक्तपरिज्ञामरण का निरूपण है / इसके-(१) निरुद्ध (2) निरुद्धतर (3) परमनिरुद्ध तीन भेद कहे गये हैं। जंघाबल के क्षीण हो जाने पर अथवा रोगादि के कारण कृशशरीर वाले साधु का गुफादि में होने वाला मरणविशेष निरुद्ध अविचार भक्त परिज्ञामरण है / पूर्वोक्त विधि-(१) प्रकाश और (2) अप्रकाश दो प्रकार की होती है / प्रथम जिसमें मरण लोगों को ज्ञात हो जाय और द्वितीय जिसमें मरण लोगों को ज्ञात न हो सके / व्याल, अग्नि, व्याघ्र, शूल, मूर्छा, विशूचिका आदि के कारण अपनी आयु को संकुचित जानकर मुनि का जो गुफादि में मरण हो, वह निरुद्धतर अविचार भक्तपरिज्ञामरण है / जब भिक्षु की वाणी वातादि के करण अवरुद्ध हो जाये तब वह आयु को समाप्त जानकर जो शीघ्र मरण करता है वह परमनिरुद्ध अविचार भक्तपरिज्ञामरण है / 12