________________ ___42 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ० सुरेश सिसोदिया अन्त में अरिहन्तों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए ऋषिपालित कहते हैं कि सभी भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव अरिहन्तों की वन्दना व स्तुति करने वाले ही होते हैं / 16 (2) तंदुलवैचारिक ई० सन की प्रथम शताब्दीसे लेकर पाँचवीं शताब्दी के मध्य विरचित तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक एक गद्य-पद्य मिश्रित रचना है / इसका गद्य भाग अधिकांशतः व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से लिया गया है / इस प्रकीर्णक का उल्लेख उत्कालिक श्रुत के अन्तर्गत मिलता है | पाक्षिकसूत्र वृत्ति के अनुसार सौ वर्ष की आयु वाला मनुष्य प्रतिदिन जितना चावल खाता है, उसकी जितनी संख्या होती है उसी के उपलक्षणरूप संख्या विचार को तंदुलवैचारिक कहते हैं। 'तंदुलवैचारिक' नामक प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्य रूप से मानव-जीवन के पक्षों, यथा-गर्भावस्था, मानव शरीर-रचना, उसकी सौ वर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें होने वाली शारीरिक स्थितियाँ, उसके आहार आदि के बारे में पर्याप्त विवेचन किया गया है। ग्रन्थकार मंगलाचरण के रूप में भगवान महावीर को वन्दना कर ग्रन्थ प्रारम्भ करता है। वर्णित विषय इसप्रकार हैं सर्वप्रथम इसमें गर्भावस्था का विस्तार से विवेचन किया गया है / सामान्यतया मनुष्य दो सौ साढ़े सत्तहत्तर दिन गर्भ में रहता है / इस संख्या में कभी-कभी कमी या वृद्धि भी हो सकती है / इसके पश्चात् गर्भ धारण करने में समर्थ योनि का स्वरूप बतला कर कहा गया है कि स्त्री पचपन वर्ष की आयु तक तथा पुरुष पचहत्तर वर्ष की आयु तक सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ होता है / माता के दक्षिण कुंक्षि में रहने वाला गर्भ पुत्र का, वाम कुक्षि में रहने वाला पुत्री का और मध्य कुक्षि में रहने वाला गर्भ नपुंसक का होता है / गर्भगत जीव सम्पूर्ण शरीर से आहार ग्रहण करता है तथा श्वाँस लेता है और छोड़ता है / इसके आहार को ओजाहार कहा जाता है। गर्भस्थ जीव के तीन अंग माता के एवं तीन अंग पिता के कहे गये हैं / गर्भ के मांस, रक्त और मस्तक का स्नेह माता के एवं हड्डी-मज्जाकेश-रोम-नाखून पिता के अंग माने गये हैं / गर्भ में रहा हुआ जीव यदि मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो वह नरक एवं देवलोक दोनों में उत्पत्र हो सकता है। गर्भगत जीव माता के समान भावों एवं क्रियाओं वाला होता है / माता के उठने, बैठने, सोने अथवा दुःखी या सुखी होने पर वह भी उठता, बैठता, सोता है तथा दुःखी यासुखी होता है / 6 पुरुष, स्त्री और नपुंसक की उत्पत्ति के विषय में कहा है कि पुरुष का शुक्र अधिक एवं माता का ओज कम हो तो पुत्र, ओज अधिक और शुक्र कम हो तो पुत्री और दोनों बराबर हो तो नपुंसक की उत्पत्ति होती है। शरीर के अशुचित्त्व को प्रकट करते हुए कहा गया है कि अशुचि से उत्पत्र सदैव दुर्गन्ध युक्त विष्ठा से भरे हुए इस शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए।