________________ 50 : डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया . नवें निमित्तबल द्वार के अनुसार पुरुष नाम वाले निमित्तों में पुरुष दीक्षा ग्रहण करे एवं स्त्री नाम वाले निमित्तों में स्त्री दीक्षा ग्रहण करे / नपुंसक संज्ञा वाले निमित्तों में कृतअकृत कार्यों का विवेचन किया गया है / तत्पश्चात् अप्रशस्त निमित्तों में समस्त कार्यों का त्याग करना चाहिए, ऐसा विवेचन है / 15 ग्रन्थ का समापन यह कहते हुए किया है कि दिवसों से तिथि, तिथियों से नक्षत्र, नक्षत्रों से करण, करणों से ग्रह, ग्रहों से मुहूर्त, मुहूर्तों से शकुन, शकुनों से लग्न और लग्नों - से निमित्त बलवान होते हैं / 16 (5) ऋषिभाषित ऋषिभाषित प्रकीर्णक साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ है / इस ग्रन्थ में पैतालीस अध्याय हैं / समवायांगसूत्र की सूचनानुसार इसमें चंवालीस अध्याय थे। संभवतः उत्कटवादियों का अध्याय जोड़ने से इसके अध्यायों की संख्या पैतालीस हो गई हों / पैतालीस अध्यायों में प्रत्येक में एक ऋषि के उपदेशों का संकलन है / इसप्रकार इस ग्रन्थ में पैतालीस ऋषियों के उपदेशों का संकलन है। प्रथम अध्याय में देवऋषि नारद के उपदेशों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन चार प्रकार के शौचों (पवित्रताओं) का उल्लेख किया गया है / वस्तुतः जैन परम्परा के पंच महाव्रतों को ही यहाँ शौचों के रूप में उल्लिखित किया गया है / इस अध्याय के अन्त में साधक को सत्यवादी, दत्तभोजी और ब्रह्मचारी होने का निर्देश दिया गया है / इन्हें ही आचारांगसूत्र में त्रियाम कहा गया है / द्वितीय अध्याय में वज्जीयपुत्त (वात्सीयपुत्र) के उपदेशों का संकलन है / इस अध्याय में मुख्य रूप से कर्म सिद्धान्त का विवेचन है / इसमें बताया गया है कि कर्म ही सर्वदुःखों का मूल है और कर्म का मूल स्रोत मोह है / बीज और अंकुर की भाँति कर्म तथा जन्म-मरण और दुःख की परम्परा चलती रहती है / वज्जीयपुत्त के इन उपदेशों की समरूपता हमें उत्तराध्ययन के तीसवें अध्याय में भी मिलती है / विशेषता यह है कि वज्जीयपुत्त नामक इस अध्याय में बौद्ध परम्परा के अनुरूप कर्म-सन्तति की चर्चा की गई है और अन्त में यह बताया गया है कि ज्ञान और चित्त की शुद्धि से ही कर्म परम्परा का क्षय होता है तथा साधक निर्वाण को प्राप्त होता है / तृतीय अध्याय में असित दैवल के उपदेशों का संकलन है / असित देवल का उल्लेख जैन, बौद्ध और औपनिषदिक तीनों ही धाराओं में मिलता है / इनके उपदेशों का मुख्य सार यह है कि व्यक्ति को क्रोध, मान, माया और लोभइन चारों का त्याग करना चाहिए, क्योंकि ये चारों ही बन्धन और दुःख के मूल कारण हैं / 6 वस्तुतः इस अध्याय में जैन परम्परा के अनुरूप चारों कषायों पर विजय पाने का निर्देश किया गया है। चौथा अध्याय अंगिरस भारद्वाज के उपदेशों का संकलन है / इस अध्याय में मनुष्य के छद्मपूर्ण जीवन का चित्रण करते हुए कहा गया है कि मनुष्य के हृदय को जान पाना