________________ 32 : डॉ. अशोक कुमार सिंह का फल, आराधना के उपाय के भेद के सम्बन्ध में मतान्तर की चर्चा, विराधना-आराधना का प्रतिपादन, और पांच प्रकार के मरण-(१) पंडित-पंडित, (2) पंडित, (3) बालपण्डित, (4) बालमरण और (5) बाल-बाल मरण का कथन है / क्षीण कषाय केवलि प्रथम मरण, श्रेष्ठ मुनि द्वितीय मरण, देशविरत और अविरत तृतीय मरण, मिथ्यादृष्टि बालमरण और सबसे जघन्य, कषाय-कलुषित बाल बालमरण प्राप्त करते हैं / ___ पीठिका के पश्चात् श्रुतदेवता की वन्दना कर मुख्य विषय के प्रतिपादन के आरम्भ में सविचार भक्त परिज्ञामरण के चार द्वारों का निर्देश है / 5 प्रथम परिकर्म विधि द्वार के अन्तर्गत अर्ह' प्रतिद्वार अर्थात् भक्तपरिज्ञा कारक की योग्यता, 'लिङ्ग' अर्थात मुखवत्रिका, रजोहरण, शरीर-अपरिकर्मत्व, अचेलकत्व, केशलोच रूपक्षपक लिङ्गों, शिक्षा जिनवचन कथन सहित सात शिक्षापदों-आत्महित परिज्ञा, भावसंवर, नवनवसंवेग, निष्कंपता, तप, भावना, परदेशित्व का निरूपण है / चतुर्थ विनय' प्रतिद्वार में ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि पांच विनयों, पंचम समाधि' प्रतिद्वार में मनोविग्रह का, अनियत' प्रतिद्वार में दर्शन शुद्धि आदि पंचअनियत वास के गुणों का, सातवें 'परिणाम' प्रतिद्वार में अनशन करने का परिणाम, आठवें 'त्याग' प्रतिद्वार में संयम साधन मात्र उपधि के अतिरिक्त अन्य उपधियों के त्याग, शय्या शुद्धि आदि पांच प्रकार की शुद्धियां और इन्द्रिय विवेक आदि पांच प्रकार के विवेक का निरूपण है / नवें 'निःश्रेणि' भावश्रेणि पर आरोहण का, 'भावना' प्रतिद्वार में क्रमशः पांच संक्लिष्ट भावनाओं से हानि और असंक्लिष्ट भावनाओं से लाभ का तथा अन्तिम ग्यारहवें 'संलेखना' 'प्रतिद्वार' में संलेखना के दो भेद-बाह्य और अभ्यन्तर, का विस्तार से निरूपण है / 6 द्वितीयगण संक्रमणद्वार' के दस प्रतिद्वार इसप्रकार हैं-(१) दिशा, (2) क्षमणा, (3) अनुशिष्टि, (4) परगणचर्या, (5) सुस्थित गवेषणा, (6) उपसम्पदा, (7) परिज्ञा, (8) प्रतिलेखा, (9) आपृच्छना और (10) प्रतीच्छा प्रतिद्वार / प्रथम 'दिशा' प्रतिद्वार में गणाधिप द्वारा क्षपक के गण से निष्क्रमण हेतु शुभ तिथि, नक्षत्र, लग्न और दिशा का निर्देश है, द्वितीय प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा समस्त गण से क्षमापणा करने, तृतीय में गणाधिपति द्वारा क्षपक सहित अन्य शिष्यों को विस्तार पूर्वक विविध उपदेश देने, चतुर्थ परगणचर्या' प्रतिद्वार में स्वगण में आराधना लेने से आराधना में कुछ स्वाभाविक विघ्नों का निर्देश करते हुए अन्य गण में गमन हेतु विधान का औचित्य बताया है / पंचम 'सुस्थित गवेषणा' प्रतिद्वार में विभिन्न दोषों की सम्यक् आलोचना का निरूपण, निर्यामक की गवेषणा के सम्बन्ध में क्षेत्र और काल की मर्यादा का और आराधक और निर्यामक के स्वरूप का प्रतिपादन, षष्ठम 'उपसंपदा' प्रतिद्वार में वाचक आचार्य द्वारा क्षपक को आराधनापताका व्रत प्रदान करने की स्वीकृति का, सप्तम परिज्ञाद्वार' में निर्यामक आचार्य द्वारा आहार आदि के सम्बन्ध में क्षपक की आराधना के निरीक्षण का, नवें आपृच्छनाद्वार' में प्रतिचारक की अनुमति हेतु निर्यामक आचार्य से कथन एवं प्रतिच्छक की नियुक्ति का निश्चय है। तृतीय ममत्व व्युच्छेद द्वार में दस प्रतिद्वार हैं-(१) आलोचना, (2) गुण-दोष,