________________ 16 : डॉ० अशोक कुमार सिंह (9) नन्दन मुनि आराधित आराधना यह प्रकीर्णक संस्कृत में है / इसमें 40 श्लोकों में नन्दनमुनिकृत दुष्कृत गर्दा,. समस्त जीव क्षमापणा, शुभभावना, चतुःशरण ग्रहण, पंचपरमेष्ठि नमस्कार और अनशन प्राप्त करने रूप छ:प्रकार की आराधना की चर्चा है / प्रकीर्णक का आरम्भनिष्कलंक श्रमण चारित्र का पालन कर आयु के अन्त में अनशन व्रत ग्रहण करने की सूचना से हुआ है। इसके बाद आठ प्रकार के ज्ञानाचार, आठ प्रकार के दर्शनाचार, सूक्ष्म एवं बादर जीवों के प्रति हिंसा, सर्वप्रकार के मृषावाद, अदत्तादान, तिर्यंच, मनुष्य, और देवविषयक मैथुन, लोभ और दोष, धन-धान्य, पशु आदि विषयक परिग्रह, सचित्त पुत्रादि, अचित्त धन-धान्य और गृह में ममत्व की तीन करण और तीन योग से निन्दा की गई है / इन्द्रियों के वश होकर चार प्रकार के आहार ग्रहण में तथा रात्रि-भोजन में दोष का, चारित्राचार के विषय में दूषित आचरण, अभ्यन्तर और बाह्य तप के विषय में अतिचार तथा धर्मानुष्ठान के सम्बन्ध में वीर्याचार के अतिचार की निन्दा तीन प्रकार से की गई है। दूसरों के प्रति कधित कुवचन तथा दूसरों की हरण की हुई वस्तु के लिए, अपकार के लिए उनसे क्षमायाचना, मित्र-अमित्र, स्वजन, शत्रुजन तथा तिर्यंच, नारक, देव और मनुष्य जिनके भी दुःख का आराधक कारण : बना हो, वे उसे क्षमा करें। इसके अनन्तर शुभ भावना के प्रसङ्ग में जीवन, यौवन, लक्ष्मी, रूप और प्रिय समागम को तंरग की तरह चंचल बताते हुए व्याधि, जन्म, जरा, मृत्यु से ग्रस्त प्राणियों के लिए जिनकथित धर्म ही एकमात्र शरण प्ररूपित किया गया है। शरीरादि बाह्य वस्तुओं की नश्वरता तथा अशुचित्व का निरूपण करते हुए अरहन्त को शरण, जिनधर्म को माता, गुरु को पिता, साधुओं को सहोदर और साधर्मिकों को बान्धव बताया गया है / ऋषभादि तीर्थंकरों को नमस्कार करते हुए भरत, ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है / पुनः सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओं की वन्दना की गई है।५ अन्त में भवभीरुओं के लिए उपरोक्त षड्विध आराधना करने का निर्देश है / 6 (10) कुशलानुबन्धि अध्ययन इस कुशलानुबन्धि अध्ययन का दूसरा नाम चतुःशरण प्रकीर्णक है / इस दूसरे नाम से यह वर्तमान में अधिक प्रसिद्ध है / इसके कर्ता श्री वीरभद्राचार्य का काल विक्रम की ११वीं शताब्दी माना जाता है / इसकी कुल गाथायें 63 हैं / प्रथम गाथा में इस प्रकीर्णक की विषयवस्तु का नाम-निर्देश इस प्रकार है२-१. सावद्ययोग की विरति, 2. उत्कीर्तन, 3. गुणियों के प्रति विनय, 4. क्षति की निन्दा, 5. दोषों की चिकित्सा और 6. गुणधारणा। पुनः उक्त 6 अधिकारों का पृथक्-पृथक् निरूपण है / आठवीं से दसवीं गाथा में क्रमशः जिनेश्वर के जन्म के पूर्व उनकी माता द्वारा देखे गये चौदह स्वप्नों के नाम और चतुःशरण गमन, दुष्कृत निन्दा और सुकृत के अनुमोदनरूप तीन अर्थाधिकारों का निर्देश है। इसके पश्चात् अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलिप्रज्ञप्त धर्म इन चार आश्रयों की शरण लेने का 5 और जन्म-जन्मान्तर में आत्मा ने यदि कोई दुष्कृत आचरण किया हो तो उसकी निन्दा का निरूपण है / प्रकीर्णक के अन्त में चतुःशरण ग्रहण, दुष्कृत की निन्दा और सुकृत के अनुमोदन का फल बताया गया है /