________________ 26 : डॉ० अशोक कुमार सिंह में उपदेश, बाईसवें द्वार में निदान करने का निषेध, तेईसवें द्वार में अतिचारों का निर्देश है, जबकि चौबीसवें द्वार में आराधना के फल के विषय में वक्तव्य है / 10 (18) आराधनापंचक प्रस्तुत प्रकीर्णक के सन्दर्भ में जैसा कि हम पूर्व में ही यह सूचित कर चुके हैं कि यह स्वतन्त्र रचना नहीं है अपितु 'कुवलयमाला' (उद्योतनसूरि) से उद्धृत अंश है / अतः हम इसे प्रकीर्णक में सम्मिलित नहीं मानकर यहाँ इसकी विषय-वस्तु का विवेचन भी नहीं कर रहे हैं। (19) मरणविभक्ति या मरणसमाधि नन्दीसूत्र की चूर्णि और वृत्ति में 'मरणविभक्ति' का परिचय लगभग एक जैसा है, मरण-प्राण-परित्याग, मरण के प्रशस्त-अप्रशस्त ये दो भेद हैं / ये दो प्रकार के मरण जिसमें विस्तार से वर्णित हैं वे अध्ययन मरणविभक्ति कहे जाते हैं। पाक्षिकसूत्र में उपरोक्त परिचय देते हुए मरण के सत्रह भेद बताये गये हैं / 3 परम्परागत मान्य दस प्रकीर्णकों में यह सबसे बड़ा है / इसमें ६६१गाथायें हैं / ग्रन्थकार के अनुसार (1) मरणविभक्ति (2) मरणविशोधि (3) मरणसमाधि (4) संलेखनाश्रुत (5) भक्तपरिज्ञा (6) आतुरप्रत्याख्यान (7) महाप्रत्याख्यान और (8) आराधना इन आठ प्राचीन श्रुतग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना हुई प्रकीर्णक का अध्ययन करने से भी यह ज्ञात होता है कि अन्य लघु प्रकीर्णकों में प्रतिपादित विषयवस्तु का इसमें विस्तार से वर्णन है। यही नहीं महाप्रत्याख्यान की लगभग 90 गाथायें इसमें उपलब्ध हैं / 5 अन्य लघु प्रकीर्णकों में निर्देशित तथ्यों का इसमें विस्तार कर दिया गया है / उदाहरण स्वरूप आचार्य के 36 गुणों, आलोचना के दोषों आदि का इसमें नाम सहित वर्णन है जबकि अन्य प्रकीर्णकों में संख्या मात्र बता दी गई है। आरम्भ में मंगल के पश्चात् शिष्य द्वारा आचार्य से यह जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर कि समाधिमरण किस प्रकार होता है ? आचार्य संक्षेपतः मरणसमाधि का वर्णन करते हैं।६ आराधना के दर्शन आराधना, ज्ञान आराधना और चारित्र आराधना ये तीन भेद हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीवास्तिकाय में तथा जिनाज्ञा में श्रद्धावान होना सम्यक्त्व है / सम्पूर्ण चारित्र और शील से युक्त हो जो समाधिमरण प्राप्त करते हैं वे आराधक होते हैं / तदनन्तर समाधिमरण व्रत ग्रहण करने की विधि बताई गई है। इन्द्रिय-विषयों, कषायों, गौरव, राग-द्वेष का त्यागकर आराधना की शुद्धि करनी चाहिए / दर्शन, ज्ञान, चारित्र और प्रव्रज्या के अतिचारों की निरवशेष आलोचना करनी चाहिए / सुविशुद्ध चारित्र वाला साधु ही कर्मक्षय करता है / त्रियोग की साधना न करनेवाला मरणकाल आने पर परिषहों को सहने में समर्थ नहीं होता है / भावना-दुःखकर अशुभ भावना या संक्लिष्ट भावना पाँच प्रकार की होती है-कान्दपी, देवकिल्विषी, आभियोगी, आसुरी और सांमोही / शुभभावना असंक्लिष्ट कही जाती है / संक्लिष्ट भावना का त्यागकर असंक्लिष्ट भावना की आदेयता