________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 27 बतायी गई है। जो जीव जिनधर्म, श्रामण्य चारित्र का सुविधि पालन नहीं करते और तुच्छ सांसारिक सुखों में लीन रहते हैं वे जन्म और दीक्षा को मलिन करते हुए महामोह रूपी सागर में पड़कर बालमरण मरते हैं / तदनन्तर आलोचना, आत्मशल्य-त्याग आदि का विस्तार से निरूपण है / समाधिमरण के कारणभूत चौदह द्वार बताये हैं-(१) आलोचना (2) संलेखना (3) क्षमापना (4) काल (5) उत्सर्ग (6) उद्ग्रास. (7) संथारा (8) निसर्ग (9) वैराग्य (10) मोक्ष (11) ध्यानविशेष (12) लेश्या (13) सम्यक्त्व (14) पादोपगमन / निःशल्य होकर आलोचना करने का निर्देश है / आलोचना के दस दोष-आकंपन, अनुमानन, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छत्र, शब्दाकुल, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी बताये गये हैं / 10 तप के भेदों, ज्ञान, चारित्र के गुण और उसका माहात्म्य तथा आत्मशुद्धिविषयक उपायों का विस्तार से वर्णन है / 11 इसके पश्चात् संलेखना के अभ्यन्तर और बाह्य भेदों का निरूपण, आतुरप्रत्याख्यान एवं पंचमहाव्रतों की रक्षा आदि के उपायों का विस्तार से निर्देश है / आराधना में सिद्ध, अर्हत् और केवलि पद का प्राधान्य, वेदनाओं को सहने का निर्देश करते हुए अभ्युद्यत विहारमरण का प्ररूपण, आराधनापताका हरण आदि उपदेश, आराधना के भेद-प्रभेद और फल बताये गये हैं / आराधना उत्कृष्टा, मध्यमा और जघन्या तीन प्रकार की है / दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आराधना के चार स्कन्ध हैं / निर्यामक आचार्य का स्वरूप बताते हुए उन्हें श्रुतरत्न रहस्य में निष्णात, पांच समिति, त्रिगुप्ति, राग-द्वेष मद रहित, कृतयोगी, कालज्ञानी, ज्ञान, चारित्र, दर्शन में समृद्ध, मरणसमाधि में कुंशल, व्यवहार, विधि-विधान का ज्ञाता आदि बहुत से गुणों से समन्वित बताया गया है / 12 आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल, गण सभी से क्षमापना और उनको क्षमा करने का तथा आत्मशल्योद्धार आदि का निरूपण है / 13 इसके आगे वेदना सहन करने का उपदेश है / 14 इसी क्रम में गर्भावास आदि दुःखों तथा विविध जातिगत जन्मों के दुःखों का निरूपण करते हुए निर्वेदजनक उपदेश दिया गया है / कहा गया है कि विभित्र भवों में दुःखों के कारण जीव ने जो आँसू बहाये हैं, वे समुद्र के जल से भी अधिक हैं / मृत्यु के समान भय नहीं है, जन्म के समान दुःख नहीं हैं इसलिए जरा-मरणकारी शरीर से ममत्व दूर करें / 15 शरीर से ममत्व-त्याग, उपसर्ग और परिषह सहन करने का तथा * अशुभ ध्यान के त्याग का और सोलह प्रकार के रोगातंकों को सहन करने में सनत्कुमार चक्रवर्ती का दृष्टान्त है / 16 विविध उपसर्ग सहन करने के लिए उदाहरणों के उल्लेखपूर्वक उपदेश हैं / इस प्रसंग में दिये गये दृष्टान्त इसप्रकार हैं 17- . बाईस परिषहों को सहन करने वालों का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण है / तृष्णा परिषह के लिए प्राण त्याग करने वाले मुनिचन्द्र, शीत परिषह में रात में राजगृह के बाहर सिद्धि को प्राप्त चार साधुओं का दृष्टान्त, उष्ण परिषह के लिए सुमनभद्र ऋषि दृष्टान्त, क्षमा में आर्यरक्षित आदि के दृष्टान्त वर्णित हैं / 18 तिर्यग्जीवों ने भी धर्म पालन किया / उदाहरण के रूप में मत्स्य देवलोक में वानरयूथपति, वैमानिकदेव में गजेन्द्र, सप्तम कल्प में श्रीतिलक विमान में उत्कृष्ट स्थिति