________________ 28 : डॉ० अशोक कुमार सिंह वाला देव हुआ तथा दो सर्पो में एक देव विमान में तथा दूसरा नन्दनकुल में महान ऋद्धि वाला यक्ष उत्पन्न हुआ / 19 पादपोपगमन मरण का स्वरूप निरूपण करते हुए कहा गया है कि त्रस प्राणों से रहित एकान्त गमनरहित और निर्दोष एवं विशुद्ध स्थंडिल भूमि पर अभ्युद्यत मरण करना चाहिए। पूर्वभव के वैर से कोई देव संहार करे तथा दिव्य, मानव, तिर्यंच सभी के द्वारा उत्पन्न उपसर्गों को पराजित कर पादपोपमनमरण का व्रत लेने वाला निश्चल रहे / जिसप्रकार एक म्यान से दूसरे म्यान में तलवार जाती रहती है उसीप्रकार जीव भी एक शरीर से दूसरे शरीर में जाते रहते हैं / अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को समान भाव से सहतें हुए जीव कर्मक्षय को प्राप्त करता है / कमलश्री महिला ने यदि विषम पर्वत की कन्दरा में धैर्य पूर्वक समाधिमरण किया तो अनगार के लिए निर्यामक गुरु और गण के सहायक रहने पर समाधिमरण व्रत ग्रहण करने में क्या कठिनाई है ?2deg अर्थात् कोई कठिनाई नहीं है / उपसर्ग-महाभय के प्रसंग में अनुचिन्तन करने के उपरान्त समाधिमरण प्राप्त करने की प्रतिज्ञा का उपदेश है / जीव अविनाशी है वह विषमसे विषम परिस्थितियों मे भी भयभीत नहीं होता है / तिर्यक् योनि में जीव अनेक उपसर्गों के मध्य भी उद्विग्न नहीं हुआ अतः उपसर्गों की चिन्ता न करते हुए समाधिमरण का आश्रय लेना चाहिए / 21 द्वादश भावनाओं का अतिविस्तृत निरूपण इस प्रकीर्णक में प्राप्त होता है / संवेग को दृढ़ करने वाली इन भावनाओं को श्रमण और श्रावक दोनों द्वारा भावित करने का उपदेश है / 22 पण्डितमरण ग्रहण करने का उपदेश देते हुए कहा गया है कि मूढ़ लोग अनेक दोषों से युक्त मनुष्य जन्म के अल्प सुख को देखकर भी उपदेश को हृदय में धारण कर तदनुरूप कार्य नहीं करते हैं। सारे सांसारिक दुःखों को भी मनुष्य वैसे ही सुख मानता है जैसे नीम के वृक्ष पर उत्पत्र कीड़ा मधुरता से अनभिज्ञ नीम की कटुता कोही मधुर मानता है। इसलिए लोक संज्ञा का त्यागकर पण्डितमरण मरना चाहिए / 23 लोक परम्परा के अनुसार मलविरेचन कर धर्म और शुक्ल ध्यान करने का निर्देश है / 24 (20) प्राचीन आचार्य विरचित आराधनापताका इसमें 932 गाथायें हैं मङ्गल और अभिधेय के पश्चात् ग्रन्थ में वर्णित 32 द्वारों का नाम निर्देश किया गया है / प्रथम 'संलेखना द्वार' में कषाय संलेखना रूप अभ्यन्तर और शरीर संलेखना रूप बाह्य-ये दो भेद बताकर पुनः इसके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन भेद बताये गये हैं / संलेखना की अवधि में तप के निरूपण में कषाय-संलेखना की व्याख्या, कषाय-जय के उपाय, कषाय से हानि, कषाय का शमन निरूपण, संलेखनाधारण करने वाले के स्वरूप का वर्णन और गुरु के चरणों में गमन का निरूपण किया गया है। द्वितीय परीक्षा' द्वार में संलेखनाधारक क्षपक का गुरु कृत परीक्षण, तृतीय निर्यामक द्वार में निर्यामक स्वरूप, निर्यामक साधुओं के कर्तव्यों का निरूपण, जघन्य दृष्टि से दो निर्यामक साधुओं का निरूपण, एक निर्यामक निषेध, एक निर्यामक के विविध दोषों का निरूपण, चतुर्थ योग्यता' द्वार में भक्त प्रत्याख्यान करने वाले की योग्यता का वक्तव्य, पाचवें गीतार्थ