________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 21 सामायिक ग्रहण, बाह्य तथा अभ्यन्तर उपधियों के त्याग का कथन है। तदनन्तर क्षमापना के पश्चात् निन्दा, गर्दा और आलोचना का कथन है / आत्मा ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संयम और योग है / 5 मूलगुणों और उत्तरगुणों में प्रमाद के लिए निन्दा की गई है तथा प्रतिक्रमण किया गया है / आत्मा के अतिरिक्त सबको बाह्य तथा संयोग सम्बन्धों को दुःख परम्परा का मूल बताया गया है / 6 माया सर्वथा त्याज्य है / निन्दा और गर्दा से उसकी पुनरुत्पत्ति नहीं होती / आलोचक को बालक की भांति सहज स्वभाव वाला होना चाहिए, सरल चित्त ही मोक्षगामी होता है / शल्योद्धरण अत्यावश्यक है, कर्मरज से मुक्त भी सशल्य होने पर मुक्त नहीं होता। सर्वथा शल्यरहित जीव ही मुक्त होता है। गुरु के समक्ष आलोचना करने वाला अत्यधिक भावशल्य से युक्त भी आराधक है / आलोचना न करने वाला अल्पतम भावशल्य से युक्त भी आराधक नहीं होता है / भावशल्य भयंकर शस्त्रों से भी अधिक अनिष्टकारी होता है / कृत पाप की आलोचना करने वाले की स्थिति भारवाहक द्वारा बोझ उतारने के समान बतायी गई है / प्रायश्चित्त अनुसरण प्ररूपणा में गुरुप्रदत्त प्रायश्चित्त को शिष्य द्वारा उसीप्रकार ग्रहण करने, शिष्य द्वारा समस्त दोषों व कार्य-अकार्य को बिना छिपाये गुरु से कहने का निर्देश है / तत्पश्चात् पाँचों व्रतों की विराधना, चतुर्विध आहार, बाह्य एवं अभ्यन्तर उपधियों का त्याग तथा दुष्कर से दुष्कर परिस्थिति में भी आचार-नियमों के पालन का निर्देश है। राग-द्वेष रहित एवं भाव से अदूषित प्रत्याख्यान भाव विशुद्ध है / चारों गतियों में विद्यमान वेदनाओं और देवलोक से भी च्युति को स्मरण कर जीव द्वारा पण्डितमरणपूर्वक शरीरत्याग का उपदेश है / एक पण्डितमरण सैकड़ों भव-परम्पराओं का अन्त कर देता है / 10 निर्वेद के प्रसङ्ग में निर्दिष्ट है कि जीव किसी प्रकार तृप्त नहीं हो सकता है / कल्पवृक्षों से युक्त देवकुरु और उत्तरकुरु में उत्पत्र होकर, देवेन्द्रों, चक्रवर्तियों के उत्तम भोगों को अनेक बार भोगकर तथा रति सम्बन्धी विषयसुखों के अतुल आनन्द भोगकर भी वह तृप्त नहीं हो सकता है / 11 महाव्रतों की रक्षा के लिए विधेयात्मक एवं निषेधात्मक दोनों उपायों का प्रतिपादन है / कषायों, कलह, लाञ्छन, चुगली और परनिन्दा का त्याग कर, पाँच प्रकार के कामगुणों का निरोधकर, पांच इन्द्रियों का संवरण कर, नील और कपोत लेश्याओं तथा आत और रौद्रध्यान के त्याग से महाव्रतों की रक्षा का संकल्प है / व्रतरक्षा के विधेयात्मक पक्ष में सात भयों, आठ मदस्थानों का त्यागकर, गुप्ति, समिति, भावना, ज्ञान एवं दर्शन से सम्पत्र, तेजो, पदम एवं शक्ल लेश्याओं तथा धर्म एवं शुक्ल ध्यान प्राप्त कर, तीन योग से सत्य को जानकर, बोलकर तथा आचरण कर महाव्रतों की रक्षा का कथन है / 12 अनाकांक्ष और आत्मज्ञ ही आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ है / ऐसा व्यक्ति पर्वत की गुफा, शिलातल या दुर्गम स्थानों पर भी अपनी आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध कर लेता है। विषयसुखों में अनासक्त, भावीफल का अनाकांक्ष एवं नष्टकषाय मृत्यु से विचलित न होकर तत्परता पूर्वक उसका आलिंगन कर लेता है / इसके विपरीत श्रुतसम्पत्र होते हुए भी इन्द्रिय विषयों में लिप्त, छित्रचारित्री, असंस्कारी तथा पूर्व में साधना नहीं किया हुआ जीव मृत्यु के अवसर पर परिषह सहन करने में असमर्थ होता है / 13 अनशन, प्रायोपगमन, ध्यान और