________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकोणलों की विषयवस्तु : 15 क्षमापना के साथ सभी जीवों के प्रति क्षमापना है / फिर सूत्र 11 और गाथा 12 में शरीरादि के ममत्व-त्याग की प्रतिज्ञा है / गाथायें 13 और 14 सागार और निरागार प्रत्याख्यान और सब जीवों के प्रति क्षमापना का निरूपण करती हैं / इसके पश्चात् संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते हुए विविधजातीय, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वानस्पतिक जीवों, विकलेन्द्रिय जीवों, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति वाले जीवों तथा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों को मन, वचन और काय से यदि कष्ट पहुँचाया हो तो क्षमापना करता हूँ-५ऐसा कहा गया है / अन्तिम तीन गाथायें आत्मशिक्षा के रूप में हैं। इनमें आत्मा के एकत्व भाव की विचारणा करते हुए आत्मा को अनुशासित करने का निर्देश है / आत्मा के अतिरिक्त सभी बहिर्भाव हैं और संयोग लक्षण से उनसे आत्मसम्बन्ध है / यही जीव के दुःख का मूल है इसलिए सभी बहिर्भावों के त्याग का उपदेश है।६ (8) आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णक' (2) - इस प्रकीर्णक में कुल 34 गाथायें हैं। इसमें तथ्यों का निरूपण इन शीर्षकों के अन्तर्गत है- उपोद्घात, अविरतिप्रत्याख्यान, मिथ्यादुष्कृत, ममत्व-त्याग, शरीर के लिए उपालम्भ, शुभभावना, अरहंतादि स्मरण, पापस्थानक त्याग आदि / प्रथम गाथा में कुश-शय्या पर बैठे हुए, भावपूर्वक स्थापित झुके हाथों सहित दुःखों या रोगों का प्रत्याख्यान है / अविरति प्रत्याख्यान के सन्दर्भ में समस्त प्राणहिंसा, असत्यवचन, अदत्तादान, रात्रिभोजन अविरति, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरति तथा सदन, परिजन, पुत्र-स्त्री, आत्मीय जनों के प्रति सब प्रकार की ममता के त्याग का निर्देश है / 2 मिथ्या दुष्कृत के प्रसङ्ग में नैरयिक, तिर्यंच, देव और मनुष्य जो भी दुःख प्राप्त हुए हों, सबके प्रति मिथ्या दुष्कृत करने का निर्देश है / ममत्व त्याग के प्रसङ्ग में देवलोक की शब्दायमान मेखला वाली, विशाल नितम्बों वाली स्वैरिणी अप्सराओं को छोड़ अब अशुचि नारियों के प्रति आसक्त न होने तथा स्वर्ग में इन्द्रनील, मरकत मणि के समान कान्तिवाले, शाश्वत श्रेष्ठ भवनों को छोड़ जीर्ण चटाई से बने घरों में आसक्त न होने का निर्देश है / देवदूष्य को छोड़कर अब गुदड़ी का स्मरण न करने, श्रेष्ठ रत्नों से निर्मित, स्वर्णमय, पुष्पपराग के समान सुकुमाल शरीर का त्यागकर जीर्ण शरीर में आसक्त न होने का निर्देश है तथा पित्त, शुक्र और रुधिर से अपवित्र, दुर्गन्ध युक्त शरीर पर आसक्त न होने, ऋद्धिओं के लिए कभी निदान न करने का निर्देश है / गाथा 14 से 18 में सुकृत न करने के लिए शरीर को उपालम्भ दिया गया है / तदनन्तर शुभभावना का निर्देश करते हुए कहा गया है कि इस संसार में दुःख जितना सुलभ है, सद्धर्म की प्राप्ति उतनी ही दुर्लभ है। मनुष्य का अहोभाग्य कि संसार रूपी महासमुद्र पार करने हेतु जिनधर्मरूपी पोत प्राप्त है / शुभ भावना के प्रसंग में मरण समीप आने पर अरहंत को स्मरण करने की प्रतिज्ञा है।५ अन्त में गाथा 26 से 34 में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार, अठारह पापस्थानों का त्याग और समस्त मिथ्या दुष्कृत का निरूपण है / 6