Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
कम्हि णं भंते! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कज्जइ? गोयमा! सव्वदव्वेसु। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या जीवों के परिग्रह के अध्यवसाय से परिग्रह क्रिया लगती है ? उत्तर - हाँ गौतम! जीवों के परिग्रह के अध्यवसाय से परिग्रह क्रिया लगती है। प्रश्न - हे भगवन् ! किस विषय में जीवों के परिग्रह के अध्यवसाय से परिग्रह क्रिया लगती है ? उत्तर - हे गौतम! समस्त द्रव्यों के विषय में यह क्रिया लगती है। एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।
भावार्थ - इसी तरह समुच्चय जीवों के परिग्रह क्रिया विषयक आलापकों के समान नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक परिग्रह क्रिया विषयक आलापक कहने चाहिए।
विवेचन - स्वत्व या स्वामित्व भाव से मूर्छा होने को परिग्रह कहते हैं और परिग्रह प्राणियों को अतिशय लोभ के कारण सभी वस्तुओं के विषय में होता है। अत: उपरोक्त सूत्र में 'सव्वदव्वेसु' - परिग्रह क्रिया सभी द्रव्यों के विषय में होती है, ऐसा कहा गया है। ___ एवं कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं पेजेणं दोसेणं कलहेणं अब्भक्खाणेणं पेसुण्णेणं परपरिवाएणं अरइरईए मायामोसेणं मिच्छादसणसल्लेणं। सव्वेसु जीवणेरड्यभेएणं भाणियव्वा णिरंतरं जाव वेमाणियाणं ति, एवं अट्ठारस एए दंडगा १८॥५८४॥
भावार्थ - इसी प्रकार क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, परपरिवाद से, अरति-रति से, मायामृषा से एवं मिथ्यादर्शनशल्य के अध्यवसाय से लगने वाली क्रोधादि क्रियाओं के विषय में पूर्ववत् समस्त समुच्चय जीवों तथा नैरयिकों के भेदों से लेकर लगातार वैमानिकों तक के क्रोधादि क्रिया विषयक आलापक कहने चाहिए। इस प्रकार ये अठारह पापस्थानों के अध्यवसाय से लगने वाली क्रियाओं के अठारह दण्डक (आलापक) हुए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अठारह पापस्थानों से लगने वाली क्रियाओं और उसके विषयों की प्ररूपणा की गयी है।
जीवे णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्पपगडीओ बंधइ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा।
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