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प्रथम भाग।
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पाठ ३ रा। भरतक्षेत्रमें समय परिवर्तनके नियम !
सृष्टि अनादि है । इसका करी हरी कोई नहीं है । परंतु इसमें जो परिवर्तन हुआ करते हैं उनकी आदि और उनका अंत दोनों होते हैं। भरतक्षेत्र भी मृष्टिका एक अंग है । इसमें भी टक्क नियम लागू होता है । यहॉपर यही बतलाया जाता है कि भरतक्षेत्रमें समयका परिवर्तन कैसे हुआ करता है । भरतक्षेत्रमें परिवर्तन दो प्रकारसे होता है । एक विज्ञाशरूपसे-उन्नतिरूपसे, दुसरा अवनतिरूपसे । पहिलेको जैनधर्म उत्सर्पिणी कहता है, दुमरेको अवमर्पिणी । अर्थात पहिला परिवर्तन जब प्रारंभ होता है तब तो क्रमसे-धीरे धीरे उन्नति होती जाती है। इस उन्नतिकी भी सीमा है, उस सीमा तक-हद तक पहुंचनानेपर फिर अवनतिका प्रारंभ होता है और वह भी जब अपनी सीमाको पहुँच नाती है तब फिर उन्ननि शुरू होती है। इस प्रकार उन्नलिसे अवनति और अवनतिसे उन्नतिका परिवर्तन हुआ करता है। उन्नति और अवनति जो मानी गई है वह समूह रूपसे मानी गई है। यक्ति रूपसे नहीं । उन्नतिके समयमें व्यक्तिगत अवनति भी हुमा काती है और अवनतिके समयमे व्यक्तिगत उन्नति भी होती है और विशेषकर उन्नति अवनति जैनधर्म जड़ पदा की उन्नतिअवनतिसे नहीं मानता किंतु आत्माकी उन्नति और अवनतिसे मानता है । परिवर्तन इस मांति हुआ करते हैं: