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प्रथम भाग। ' ११८
(९) नारायण द्विष्टष्ट मरकर नरक गया । भाई अचलने बहुत शोक किया फिर दीक्षा धारण की और मोक्ष गये ।
समाप्त।
परिशिष्ट “घ”। .
समवशरणकी रचना। समवशरण केवलज्ञानियोंकी सभाका नाम है। अर्थात सर्वज्ञत्व प्राप्त होनेपर निस समामें दिव्यध्वनि हो उसे समवशरण कहते हैं। प्रत्येक तीर्थकरोंका समवशरण समान होता है। समवशरण देवोद्वारा बनाया जाता है। और यह आकाशमैं बनता है । पृथ्वीसे सभामें जानेतक सीढ़िया बना दी जाती हैं। यद्यपि समवशरण प्रत्येक तीर्थंकरोंके लिये समान ही बनाया जाता हैलंबाई चौड़ाई व रचना आदि समान ही होती है, पर पृथ्वीसे ऊँचाईका अंतर कम होता जाता है। भगवान् ऋषभदेवका समवशरण पृथ्वीसे जितने अंतरपर था दूसरे तीर्थंकरका उससे कम हुमा, तीसरेका और भी कम हुआ, इसी तरह चौवीसों वीर्थकरके समवशरणाका अतर पृथ्वीसे कम होता गया था। समवशरणकी रचना इस माति होती है(क) पहिले ही रत्नोंकी धूलिका बना हुआ धूलिसाल होता
है। उसके बाद मानस्तंभ होता है जिसे देखते ही अमिमानियों का मान गलित हो जाता है। १ मानस्तमका चित्र परिशिष्ट "व" में दिया गया है ।