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प्राचीन जैन इतिहास।
(घ) किसीके द्वारा उपसर्ग नहीं होता और न कोई वैर करता है।
(ड) कवलाहार नहीं करते ( केवली होनेपर भोजन-पानकी आवश्यकता नहीं रहती)।
(च) सम्पूर्ण विद्याभोंके स्वामी हो जाते हैं। (छ) ईश्वरत्व प्रगट हो जाता है। (ज) नख और केश नहीं बढते । (झ),पलक नहीं लगते। (अ) शरीरकी छाया नहीं पड़ती।
(ख) उक्त दश अतिशयोंके सिवाय देवों कत चौदह अतिशय नीचे लिखे मुताविक होते हैं।
(क) केवलीका उच्चारण अर्धमागधी भाषारूप हो जाना ।
नोट-केवल ज्ञानियोंका उचारण अनक्षर होता है अर्थात कठ, तालु नादि अगों की सहायताके विना ही मेघोंकी वनिके समान होता है उसे देवगण अर्धमागधी भाषारूप कर देते हैं। तथा आपकी अनिमें एक अतिशय यह भी होता है कि सब प्राणी (पशु तक) उसे अपनी अपनी भाषामें समझ लेने है। यइदिव्य पनि विना इच्छाके होती है।
(ख) जीवों में परस्पर मैत्री। (ग) दिशाभोंका निर्मल हो जाना। (घ) आकाशका निर्मल हो जाना। (ड) छहों ऋतुओंके फल-फूलॊका एक साथ फलना । (च) पृथ्वीका काचके समान निर्मल हो जाना।
(छ) विहार करते समय देवों द्वारा चरणों के नीचे कमलोंका रचा जाना।