Book Title: Prachin Jain Itihas 01
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PradGA प्राचीन जैन-इतिहास (प्रथम भाग) लेखकश्री सूरजमल जेन । प्रकाशक:भूलचन्द किसनदास कापड़िया-सूरत । विनीयावृत्ति ] बीर संवत् २४४८ [प्रति १२०० मूल्य बारह माने । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रक' मूलचन्द किसनदाल कापड़िया। "जैन विनय" मिल प्रेस-सूरत । प्रायकमूलचन्द किसनदास कापड़िया, दि जैन पृन्तकालय-गुस्न Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृत्तिकी भूमिका । जैन समानमें अबसे शिक्षा प्रचारका प्रश्न उठा है. तभीसे जैन धर्म संबंधी पाठ्य पुस्तकोंका भी प्रश्न चालू है। जैन धर्म संबंधी पाठ्य पुस्तकों के लिये कई सभाओंने कई बार प्रस्ताव किये, कमेटिया बनाई पर अंतमें कुछ भी फल नहीं हुमा । इन्हीं पाय पुस्तकोंमें जैन इतिहास संबंधी पुस्तक भी गर्भित थी। बंबई परीक्षालयके पठनक्रममें जैन इतिहास रखा गया था और मब भी है । परीक्षालय द्वारा प्रकाशित पठनक्रम पत्रमें लिखा है कि इन पुस्तकोंके बनवानेका प्रयत्न किया जा रहा है । इस क्रमको प्रकाशित हुए कई वर्ष हो गये पर वह प्रयत्न अबतक सफल नहीं हुआ। जैन समाजमे ऐसी इतिहास संबंधो पुस्तककी, जिसमें हमारा प्राचीन इतिहास संग्रह हो, और वह संग्रह प्रथमानुयोगके ग्रंथों द्वारा किया गया हो, बड़ी आवश्यकता थी। उस आवश्यकताको ध्यानमें रख मैंने प्रयत्न किया और हर्ष है कि आज मैं अपने उस प्रयत्नको पाठकोंक सन्मुख रखनेमें समर्थ हुमा हूँ। मैं न इतिहासज्ञ हू और न लेखक, पर जैनधर्म और जेनसमाजका एक तुच्छ सेवक अवश्य हूं उसी सेवड़के नातेके मोशमें भाकर मैंने यह कार्य किया है। माशा है कि समाज इसे अपनायगी। जहां तक हो सका है इसमें मैंने उन सब बातोंके संग्रह करनेका प्रयत्न किया है जिन्हें इतिहासज्ञ चाहते हैं । साथमें विद्यार्थियों के भी उपयोगी बनानेका ध्यान रखा है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि अभी यह प्रयत्न, संभव है कि बहुत त्रुटियोंसे भरा हो, पर आगामी इसके द्वारा कोई विद्वान् संपूर्ण त्रुटियोंसे रहित प्रयत्न कर सकेंगे यही समझकर मैं इसे पाठकोंक भेट करता हूं। मेरी इच्छा थी कि मैं इस पुस्तककी भूमिका समालोचनात्मक और तुलनात्मक पद्धतिसे लिखू, पर इतिहास संबंधमें अपनी अल्पज्ञताको ध्यानमें लाकर यह कार्य किसी मन्य विद्वान्पर छोड़ता हुआ भूमिका समाप्त करता हूं। लेखक । द्वितीयावृत्तिका निवेदन ! हर्ष है कि इस प्रथकी द्वितियावृत्तिका सुयोग प्राप्त हुमा है । जैन समाजने इस अथको अच्छी तरह अपनाया है इसके लिये मैं समाजका आभारी हूं। यह ग्रंथ प्रायः सम्पूर्ण जैन संस्थाओंमें पढ़ाया जाता है। जिन संस्थाओंमें नहीं पाया जाता हो उन्हें भी यह ग्रन्थ अपने पठनक्रममें रखना उचित है, जिससे कि विद्यार्थी संक्षिप्तमें अपने धर्मके और समाजके प्राचीन गौरवको नान सके। अन्तमें हम श्रीयुत मूळचंदनी किसनदाप्त कापडियाको धन्यवाद देते है जिनके कि उत्साहसे यह द्वितीयावृत्ति प्रकाशित हो रही है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिवेदन | हमारे जैन इतिहासके नायक, प्रसिद्ध प्रसिद्ध पुरुषों (तीर्थकर, चक्रवर्ति, नारायण आदि) के जीवन में प्राय: कई घटनाएँ ऐसी हुई है जो एक दूसरेके समान थीं। जैसे कि तीर्थंकरोंके पंचकल्याणक | ये पांचों कल्याणक सब तीर्थकरों के समान हुए थे । इसी तरह चक्रवर्तियोंकी दिग्विजय यह भी सेव चक्रवर्तियोंने समान की है। इन समान घटनाओं को हरएकके वर्णनमें दिखा - नेसे पुस्तक बह जाने और पाठकों व विद्यार्थियोंकी रुचि हों जानेका भय था अतएव एक एक पुरुषके चरित्रमें इन समान घटनाओंका वर्णन कर दिया है और अंतमें एक परिशिष्ट लगा दिया है जिसमें प्रत्येक समान घटनावाले पुरुषों की समान घटनाओंका खुलासा वर्णन दे दिया है। पाठकगण उस परिशिष्टको ध्यानमें रख कर पुस्तकका पाठ करें, और अध्यापकोंको चाहिये कि पहिले उस परिशिष्ट (ड) को पढ़ाकर फिर पुस्तकका पढ़ाना प्रारम्भ करें । सूचना । मालका वर्णन आया है वहा दो चाहिये । जैनधर्मानुसार एक कोश इसलिये एक माइल दो हजार बारका (१) इस पुस्तकमें नहा हजार चारका माल समझना चार हजार वारका होता है हुआ | वर्तमान एक माइल १७६० वास्का होता है । [२] एक पूर्वाग चोरासी लाख वर्षका समझना चाहिये । (३) पूर्वागका वर्ग एक पूर्व होता है । लेखक | Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसुची। . पृष्ठ संख्या १ ममिका .. . .... .. ... २ निवेदन ... ... ... .... ३ सूचना .... .... .... ४ विषय सूची ... ... .. पाठ पहिला-६ मैन भूगोळमें भारतवर्षका स्थान.... - २ पाठ दूसरा-६ जैनधर्मानुसार पृथ्वी के इतिहासके . प्रारंभका समय .... .... १ पाठ तीसरा-७ भरतक्षेत्रमें समय परिवर्तन के नियम : ११ पाठ चौथा-८ इतिहासके प्रारंभका समय और चौदह कुलकर ....... ... १७ पाठ पाँचवॉ-९ चौदहवे कुलकर महाराजा नाभिराय और कर्मभूमिका प्रारंभ .... २१ पाठ छठवाँ-१० युगादि पुरुष भगवान् ऋषभ .... २६ पाठ सातवॉ-११ भरत चक्रवर्ती .... .... .४६ पाठ आठवॉ-१२ युवरान बाहुबली (प्रथम कामदेव) ६८ पाठ नौवॉ-१३ महाराज जयकुमार और महारानी मुलोचना... ... ... ७० पाठ दशा -१४ ऋषभ युगके अन्य महापुरुष और · स्त्रिया... ... ... ७४ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ संख्या पाठ ग्यारहवॉ-१५ ऋषम युगकी स्फुट वाते.... ७९ पाठ बारहवॉ-११ भगवान् अजितनाथ .... पाठ तेरहवा-१७ द्वितीय चक्रवर्ती सगर और ' ___महाराज भागीरथ... ... ८३ पाठ चौदहवॉ--१८ तृतीय तीर्थंकर श्रीसंभवनाथ.. पाठ पंद्रहवाँ-१९ अभिनंदन स्वामी... ' ' .... पाठ सोलहवाँ-२० पांचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ ९२ पाठ सत्रहवा-२१ पद्मप्रभु .... .... पाठ अठारहवॉ--१२ सुपार्श्वनाथ ..... .... ९७ पाठ उगनीसवॉ--२३ चन्द्रप्रभु .... ..... १७० पाठवीसवॉ-२४ भगवान पुष्पदंत.... पाठ कवीसवॉ-२९ भगवान शीतलनाथ .... १०६ पाठ बावीसवाँ-२६ भगवान् श्रेयांसनाथ .... १०८ पाठ तेवीसवॉ-२७ प्रथम प्रतिनारायण अश्वग्रीव ११० पाठ चौवीसवाँ-२८ नारायण तृपृष्ठ और बलदेव विभय . .... .... ११९ पाठ पचवीसवॉ---२९ तीर्थकर वासुपूज्य ... ११४ पाठ छव्वीसवॉ-३० द्वितीय प्रतिनारायण-तारक ११६ पाठ सत्तावीसवॉ-३१ नारायण-द्विष्टष्ट और बलदेव-अचल .... ११७ १२ तीन लोकका चित्र ... .. परिशिष्ट "क" ३३ वृद्वीपका चित्र .. .. " "ख" Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ३४ वर्तमान भारतवर्षका चित्र .... 0491 (परिशिष्ट "घ) ३५ समवशरणकी रचना (परिशिष्ट " ङ). ३६ तीर्थंकरोंकी समान जीवन घटनायें 945. 1930 8049 (परिशिष्ट "ङ' २) ३७ चक्रवर्ती नारायण, प्रति एक संख्या कईल 1007 17 ---- नारायण आदिके जीवनकी समान घटनायें १२२ "" (परिशिष्ट 'च" ) ३८ तीर्थंकरोंके चिन्ह १३२ ३९ मानस्तंभ का चित्र परिशिष्ट "छ" (परिशिष्ठ "ज" ) ४० पुराणकारोंमें परस्पर मतं भेद १३३ (परिशिष्ठ 'झ" ) ४१ विद्याधर १३६ 0046 ११८ dece १२१ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अपरामित पोष कससा. - रेरायत क्षेत्रमा - सम COM खतरामायमा EHIMPLO EmomenoneemuTE SSPORTER नारिकादानदा % 3D Sali SESPEES DAMADre जंबूडीपकानकसा पानात S4 कलसा Recent निषधपर्वत निमी रह खए ETURES महापर M पहनानी % 3A - - ramdam भताशवसतासध AD रतापपपर. LUKALAM भलत्र - - भाताल २.विजयत पो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | মণীন সন লিম। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। भागों से पांच भाग म्लेनखड और एक आर्यक्षेत्र अथवा मार्यखंड कहलाता है। करके नको में यह आर्यखड '" के चिन्हसे दिखाया गया है अर्थात् यदि हम मातक्षेत्रके नकशे से आर्यखंड निकालें तो इस आर्यखंडका आकार इस भांति होगा।' वर्तमानमें केवल हिदुस्थान ही आर्यखंड माना जाता है। पान्तु जैन मूगोल हिंदुस्थान, एशिया, यूरोप आदि वर्तमानके छहों महाद्वोपोंको आर्यखंडहीमें शामिल करती है। और इस छहों द्वीपोंके सिवाय और भी एबी बतलाती है जिसका पता हम लोगों को अभीतक नहीं लगा है | इस पुस्तकमें इसी आर्यखंडके इतिहामका जैन-हटसे विवेचन किया जायगा । वर्तमान में आर्यखंड जिस प्रकारका माना गया है उसका भी नकशा इस पुस्तकके परिशिष्ट नं. "में दिया गया है।' Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 प्राचीन जैन इतिहास | पाठ दूसरा । - जैनधर्मानुसार पृथ्वी के इतिहासके प्रारंभका समय । वर्तमान के इतिहासकारों का कहना है कि पहिले हिंदुस्थानमें अनार्य जातिया बसती थीं। पीछे फारस आदि अन्य देशोंसे आर्य जातिया हिंदुस्थान में आई । पहिले पहिल कौनसी जाति, कहांसे और किस समय हिदुस्थानमें आई इस बातका पता ये लोग अभी तक नहीं लगा सके हैं। पर इनका कहना है कि सबसे पिछली आर्य जाति क्राइष्टके पंद्रहसो वर्ष पहिले आई थी । और कई तो इस समयसे भी पहिले आना मानते हैं । इन लोगोंके कहने के अनुसार 'हिन्दुस्थानमें जो अनाये जातियां थीं वे कोल और द्राविड इन दो बड़े कुलोंमेंसे थीं। इनमेंसे कोल जाति चौपाये नहीं पालती थी। मांस खाती थी। अपने पितरों और भूतोंकी पूजा करती आनेवाली जातियोंमें बहुतसे कोल इस तरहसे मिल गये हैं कि अव उनका पहिचानना कटिनसा है । वर्तमानमें कोनोंकी बारह जातिया और उनकी तीस लाख मनुष्य संख्या है। द्राविड़ जाति भी करीब करीब इसी प्रकारकी थी । परन्तु उसमें सभ्यता अधिक थी। अभी तक इतिहासकार द्राविड़ोंकी सभ्यताको जितनी प्राचीन समझते थे, अब थोड़े दिनोंसे उससे भी अधिक प्राचीन समझने लगे हैं। इन लोगोंका कहना है कि पहिले तो ये लोग मार्च जातियोंसे लड़े, पर पीछे दोनों जातियां हिल मिल थी । भारतवर्ष में I Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। गई और उनसे संतान उत्पन्न हुई । आई हुई आर्य जातियोंक सम्बन्धमें वर्तमान इतिहासकारोंके सिद्धांत इस भांति हैं: (१) प्राचीन कालमें इस जाति और कुलके मनुष्य मध्य एशियाके पश्चिम भागमें अर्थात् तुर्किस्तानमें और यूरोपके पूर्वसमतल भूमिमें रहते थे। ये लये, गैरे और सुन्दर थे। (२) ये लोग गावों और बस्तियामे रहते तथा पशुओंको'जैसे भेड़, गाय, बैल आदिको पालते थे और खेती करते, सुत कातते. कपड़े बनाते, रांगा व तम्बा गलाकर अस्त्र शस्त्र बनाया करते थे। । (३) इन लोगोंकी मनुष्य संख्या बढ़ते बढ़ते इतनी अधिक हो गई कि उक्त स्थानों में ये लोग समा न सके तथा वहांकी भूमिकी उपजाऊ शक्ति भी घट गई अतः ये लोग अपने देशसे निकल पड़े। इन निकले हुए लोगोंमसे कितनी ही जातिया पश्चिमकी ओर और कितनी ही जातिया वहाँके पूर्व निवासियोंमें हिलमिल गई । इन पश्चिमकी मिलीजुली जातियोंकी ही संतान अग्रेज, प्रंस, जर्मन, व युरोपके अन्य लोग हैं । दक्षिणको आई हुई नातियांमसे कुछ जातियां हिन्दुस्थानमें आगई । और ये ही मारतवर्षकी आर्यनातिया कहलाई। (४) जो लोग यहॉपर आये थे वे पढ़े लिखे न थे परन्तु अपने अपने देवताकि मजन गाया करते थे। पढ़ लिखे न होने से ये अपना कुछ हाल नहीं लिख गये है । परन्तु जो वे भजन गाया करते थे उनसे आर्यजातियोंकी बहुत कुछ स्थिति मालूम होती है। इन भजनों के संग्रह ही वेद है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | (५) इतिहासकारोंने लिखा है कि इन आर्य लोगोंका स्वभाव सरल और शान्त था 1 (६) ये रोंग बहुत दिनों तक पंजाबकी मटियोंकि किनारे किनारे बसे रहे । ये लोग विशेष गेंहू और जौकी खेती करते थे । हिन्दुस्थान में आनेके पहिले अग्निकी पूजा किया करते थे फिर यहाँपर आकर वर्षासे खेती की उपज होना देखा तो इन्द्रकी मी पूजा करने लगे । फिर यम, सूर्य, वरुण, रुद्र, प्रातः काल ज्यादिकी भी पूजा करने लगे । (७) जब माय पजाब में आये तब पहिले तो द्राविड़, कोल मादि जातिये से लड़े, पर प.छेसे उनमें मिल गये और दोनों के द्वारा संतान - वृद्धि होने लगी । इन लोगों में छुआछूत नही थी । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण आर्य लोगोंने माने है । इन वर्णोकी स्थापना के विषय में वर्तमान के इतिहासकार इस प्रकार अपना मत देते हैं:--- (१) उक्त आर्वजातियोंकी व्यक्तियां अपने अपने घरेलू कार्यो में व्यस्त रहनेके कारण देवताओकी स्तुति क्ठ नहीं कर सकती थीं अतएव प्रत्येक जातिमेसे कुछ कुछ घरोंको यह काम करनेके लिये नियत कर दिया । पीछेसे ये ही घर ब्राह्मण वर्णके कहलाये । (२) इसी तरह हर जतिनेसे हटे बट्टे लडाकू घरो लड़ाई के लिये नियत कर दिया ये लोग क्षत्रिय वर्णके लाये। } (३) जो लोग व्यापर करते, सेती करते. पशु पालन करते थे वे लोग वश्य कहलाते थे । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथम भाग। (१) इन तीनोंसे नीचे के मनुष्य शूद्र वर्णके कहलाये । इन लोगोंकी संख्या पहिलेके तीनों वर्गों से बहुत जर दह थी । इन लोगोंने भी अपना दल बांधा था | और इमलिये प्राचीन भारतमें बहुतसे गद राना हो गये हैं। • इस प्रकार भारतमें वर्गों की स्थापना हुई इसके कोई तीन हनार वर्ष बाद हिन्दुओंकी समानका गठन हुआ । इसी समय बड़े बड़े नगर और मंदिर बनाये गये। नये नये देवताओंकी पूजा होने लगी। फिर नगर, देश और धन्धेके ऊपरसे नातिया बनाई गई जिससे कि भारतमें हजारों जातिया हो गईं। ___वर्तमान इतिहासकारोंका प्राचीन भारतके बारेमें यही अनुमान है और यह अनुमान वेदोपरसे किया गया है। पूर्व समयका इतिहास जाननेके लिये इन लोगों के पास और कोई साधन नहीं हैं और जो कुछ अनुमान किया गया है वह भी निश्चित नहीं हुआ है। इसमें इन्हीं इतिहासकारोंको बहुतसी शंकायें हैं जो कि हल नहीं हो सकी हैं । वहुतसे इतिहासकार पृथ्वी के इतिहासका प्रारम्भ चार या पांच हजार वर्षमे मानते हैं । लोकमान्य बालगगाधर तिलकके मतसे दश हजार वर्षसे इतिहासका प्रारम्भ होता है। और मि० नारायण भवनराव पावगी पूनानिवासीने अभी जो " आर्यनक्रेटल इन दी सहसिधुन " नामक पुस्तक लिखी है डामे लिखा है कि आर्य जातिया विदेशोरो न आकर यही सरस्वती नदी आदिके पास उत्पन्न हुई और इसे लाख पचास हजार वर्षसे कम नहीं हुए। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ प्राचीन जैन इतिहास | वर्तमान इतिहासकारोंके विचार से भारत के इतिहासका प्रारम्भ समय ऊपर बतला चुके हैं । परन्तु जैन इतिहास इसके विरुद्ध है । वह इस थोडेसे समय से ही भारतके इतिहासका प्रारम्भ नहीं मानना । उपके अनुसार इतिहासके प्रारम्भका समय । इतना प्राचीन है कि जिसकी गणना हम हमारे गिनती के अक्षरोंसे नहीं कर सकते। यह बात आगे पाठोंमें साफ तौर से बताई जायगी। यहांपर, वर्तमानके इतिहासकारोंने भारत के इतिहासके प्रारम्भका समय जो करीब चारसे पांच हर वर्ष पूर्वका माना है जैन धर्मानुसार उससे भी प्राचीन सिद्ध करने लिये नीचे लिखे हुए श्रमाण दिये जाते हैं (१) जैन धर्मानुसार मध्य एशिया Vgg पश्चिम भाग व यूरो पकी पूर्व समतल भूमि जहां पर पहिले आर्य लोग रहते थे पर्यड होने हैं । अत उनका दूधरे देशों में अर्थान आये देश निवाय अन्य देशसे आना नहीं कहलाया जा मकता | (२) जनधर्मने जो यह माना है कि वर्तमान हिन्दुस्थान ही नहीं किंतु यूरोपादि कहीं द्वीप आर्य खंडमें है मोज घर्नका मानना इस लिये और ठीक मातृम होता है कि वर्तमानके इतिहामकार जम मध्य एशिया के पश्चिम मान व युरोपके पूर्व मागसे यो आना यहां तलने हैं तो बक देश भी आयेनानियोक रहने के स्थान होनेके कारण आर्यवड नानने पड़ेंगे क्योकि रहनेका स्थान ही कार्यखंड कहलाता है । (३) कई विद्वानोंने वेदों गौरव - दृष्टि मन्य किया है। कीटसके परंभ कलने ही कोई भी ऊंच बेड़ोंके समान सग ठेव Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । ९ । नहीं हो सकते और ऐसी अवस्थामें जब कि लोग अनपढ़ बताये जाते हैं । इससे मालूम होता है कि न तो उस समयके मनुष्य ही अनपढ़ थे और न वह समय ही आर्य जातिके इतिहासके प्रारंभका था किंतु इस समय से भी क्रोढों वर्षो पहिलेसे मार्य जातिका इतिहास चला आता होगा । (8) किसी जातिको रंगमें काले होने हीके कारण अनार्य नहीं कह सकते । अतएव द्राविड़ जाति भो केवल इसी लिये अनार्य नहीं कहला सकती । और न इसके ही लिये कोई काफी प्रमाण है, कि द्राविड, कोल, मंगोल आदि जंगली जातियोंके सियाय भारतवर्ष में और कोई सभ्य जाति थी ही नहीं । (५) जैन धर्मानुसार वर्तमान इतिहासकारोंके अनुमान पर यदि हम विचार करे तो एक प्रकार से इतिहासकारोंका यह अनुमान सत्य सिद्ध करने में जैनधर्म बहुत कुछ सहायता देगा क्योंकि जैन धर्म Train तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथके मोक्ष जानेके पीनेचौरामी हजार वर्षोंके वाढ भगवान् पार्श्वनाथके जन्म होने तक धर्मका मार्ग बिलकुल बंड हो गया था अर्थात उस समयकी प्रजा धर्ममार्गसे रहित थी और धर्म मार्गसे रहित होना ही चारित्र हीन्ता - अनार्यना- जंगलीपनका कारण है । एक जिस समयका अनुमान हमारे इतिहासकार करते है वह समय यही होगा | और धर्ममार्गसे रहित होनेके कारण आप समय के | मनुष्यको इतिहासकारोंने अनार्य समझा होगा परन्तु यह तो किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सका है कि जिन लोगोको ये Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्राचीन जैन इतिहास । भारतके आदिम निवासी और अनार्य मानते है उनसे पहिले भारतमें आयन्द था ही नहीं इसी लिये जैन धर्म इस बातके माननेके लिये तैयार नहीं है कि भारतवर्षकी आर्यनातिक इतिहासका प्रारंभ इसी समयसे हुआ है। किंतु यह समय परिवर्तनका था निसमें धर्म मार्गका लोप हो गया था और मनुष्य प्राय अधर्ममार्गकी ओर रजू हो गये थे। (६) यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि इस दुनियाको बनानेवाला कोई नहीं है। जब दुनियांको किसी ने नहीं बनाया तो दुनिया अनादि है और उसके अनादि होनेसे इतिहास भी अनादि है । परन्तु परिवर्तन-मना हुला करता है, यह प्राकृतिक नियम है, औं परिवर्तनले अनुसार दुनियाका इतिहास भी बदलता रहता है। यहॉपर देखना यह है कि भरतक्षेत्रके जिस इतिहामके पाग्नका हम पज्ञा लगा रहे है उसका प्रारंभ इस क्षेत्रके किस परिवऊनसे प्रारंभ हुआ है उपर हम यह वतला चुके हैं कि इतिहामके प्रारंमका समय इतना प्राचीन है कि कि हम गिनती के अक्षरोंसे नहीं गिन बने। परंतु सने प्राचीन मन्त्री सत्यनाने हन अवश्य ला सजने है। अतएव उम प्राचीन समपो प्रम्बनेके लिये यहांर यह बतला देना उचित है कि अन दि मष्टि शिम तरहसे परिवान हुम करता है और किस प्रकार इतिहासका पारन होता है। -FOR Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। ११ पाठ ३ रा। भरतक्षेत्रमें समय परिवर्तनके नियम ! सृष्टि अनादि है । इसका करी हरी कोई नहीं है । परंतु इसमें जो परिवर्तन हुआ करते हैं उनकी आदि और उनका अंत दोनों होते हैं। भरतक्षेत्र भी मृष्टिका एक अंग है । इसमें भी टक्क नियम लागू होता है । यहॉपर यही बतलाया जाता है कि भरतक्षेत्रमें समयका परिवर्तन कैसे हुआ करता है । भरतक्षेत्रमें परिवर्तन दो प्रकारसे होता है । एक विज्ञाशरूपसे-उन्नतिरूपसे, दुसरा अवनतिरूपसे । पहिलेको जैनधर्म उत्सर्पिणी कहता है, दुमरेको अवमर्पिणी । अर्थात पहिला परिवर्तन जब प्रारंभ होता है तब तो क्रमसे-धीरे धीरे उन्नति होती जाती है। इस उन्नतिकी भी सीमा है, उस सीमा तक-हद तक पहुंचनानेपर फिर अवनतिका प्रारंभ होता है और वह भी जब अपनी सीमाको पहुँच नाती है तब फिर उन्ननि शुरू होती है। इस प्रकार उन्नलिसे अवनति और अवनतिसे उन्नतिका परिवर्तन हुआ करता है। उन्नति और अवनति जो मानी गई है वह समूह रूपसे मानी गई है। यक्ति रूपसे नहीं । उन्नतिके समयमें व्यक्तिगत अवनति भी हुमा काती है और अवनतिके समयमे व्यक्तिगत उन्नति भी होती है और विशेषकर उन्नति अवनति जैनधर्म जड़ पदा की उन्नतिअवनतिसे नहीं मानता किंतु आत्माकी उन्नति और अवनतिसे मानता है । परिवर्तन इस मांति हुआ करते हैं: Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्राचीन जैन इतिहास (१) प्रत्येक परिवर्तन दशकोड़ा कोड़ी सागरका होता है (हम सागरोंकी गिनती असे नहीं कर सकने अतएव यह संख्या असंख्यात है।) (१) प्रत्येक परिवर्तन के छह हिस्से होते हैं। . (२) अवनतिक परिवर्तनके पहिले हिस्से का नाम सुःपमानुपमा होता है । यह समय चार छोड़ाकोड़ी सागरका होता, है। इस समयके मनुष्योंगी आयु तीन पल्यैकी होती है। गरीरकी उंचाई चौबीस हजार हाथोंकी होती है । ये मनुष्य बडे ही सुंदर और सरल-चित्तके होने है । इन्हें भोजनकी इच्छा तीन दिन वाद होती है । और इच्छा होते. ही कल्पवृक्षोंसे प्राप्त दिव्य मोगन जो कि बेर (फल) के बराबर होता है, करने हैं। इनको मल, नुक्की बाधा व बीमारी आदि नहीं होती । स्त्री और पुरुष दोनों एक साथ एक ही उट से उत्पन्न होते हैं और बड़े होनेपर पति, पत्नीके समान व्यवहार भी करते हैं। परंतु उस समय माई बहिनके भावकी कल्पना न होनेसे दोष नहीं समझा जाता । वस्त्र, आभूषण आदि भोगोपमोगकी सामग्री इन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है । कल्पवृक्ष पृथ्वीके परमाणुओंके होते हैं । वनस्पतिकी जातिके नहीं होते। इनके दश भेद होते हैं । और दों तरहके वृक्षोंसे मनुष्योंको भोगोपभोगकी सामग्री जैसे-वस्त्र, । एक पन्च ४१३४५२६१०३०८२०३१७७७४९५१२१ ९२०००००००००००००००००००० वर्षका होता है। पन्यकी सत्याको ए म १००००००००००००००० में गुणा करनेसे एक सागरकी सम्वा होती है। और एक कोनका धर्म चोदाचोडी कहलाता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग | १३ आभूषण, भोजन आदि प्राप्त होते रहते हैं। इनके यहां संतान ( सिर्फ एक पुत्र और एक पुत्री एक साथ ) उत्पन्न होते ही मातापिता दोनो मर जाते हैं । बालक स्वय अपने अंगूठोंको चूस चूसकर उनपचास दिनोंमें जवान हो जाते हैं । स्त्रो, पुरुष दोनों साथ मरते हैं और मरते समय स्त्रीको छींक और पुरुषको जॅभाई आती है। शरीर की ऊँचाई व मनुष्यकी आयु क्रमश. घटती जाती है। (४) अवनति परिवर्तन के दूसरे हिस्सेका नाम सुषमा है। यह तीन कोड़कोड़ी सागरका होता है। इसमें पहिले ' हिस्सेसे शरीरकी ऊँचाई आदि घट जाती है। इस कालके मनुष्योंकी ऊँचाई सोलह हजार हाथ और आयु दो पल्पकी होती है । यह । भी क्रमशः घटती जाती है । इतनी ऊँचाई व आयु इस हिस्से के प्रारंभ में होती है । इस कालके भी मनुष्य बहुत सुंदर होते हैं । और भोजन आदि भोगोपभोगके पदार्थ कल्पवृक्षोंसे पाते है । इन I दोनों (पहिले व दूसरे ) हिस्सांमें कोई राजा महाराजा नहीं होता । सूर्य और चंद्रमाका पकाश भी कल्पवृक्षोके कारण प्रगट नहीं रहता । सिहादि क्रूर जंतुओं का भी स्वभाव शांत रहता है । (५) तीसरे हिस्सेका नाम सुः षमादुःषमा है । यह दो कोड़ाकोड़ी सागरका होता है । इस समयके मनुष्योंकी आयु एक पल्यकी और ऊँचाई एक कोशकी (४००० वारकी ) होती हैं । इस समय के मनुष्य एक दिन बाद भोजन करते हैं । और वह भोजन भी ऑवलेके बराबरा अवनतिका परिवर्तन होनेके कारण सब बातोंकी घटती होती जाती है । यद्यपि इतिहासका प्रारंभ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्राचीन जैन इतिहास | उन्नति और अवनति पहिले हिस्से के प्रारंभ से ही होता है परन्तु प्रकृत इतिहासका प्रारंभ तीसरे हिस्सेके आखिरी भागसे ही होता | क्योंकि इतने समय तक मनुष्य विना परिश्रमके कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त पदार्थोंका ही भोग करते रहते हैं । और कोई धर्म, कर्म भी नहीं रहते जिससे कि मनुष्योंकी जीवन- घटनाओं में परिवर्तन हो । अतः प्रकृत इतिहास तीसरे भागके पीछले हिस्से से ही प्रारंभ होता है । इसी अंतिम समय में कुलकरों की - मनुओंकी उत्पत्ति होती है । कुकरों की उत्पत्ति होनेके पहिले मनुष्योंका कोई नाम नहीं होता । स्त्रियाँ पुरुषोंको आर्य और पुरुष स्त्रियों को आयें कहा करते हैं । और इस समय में कोई वर्णभेद भी नहीं होता, सब एकसे होते हैं । ५ (६) चौथा हिस्सा व्यालीस हजार वर्षे कम एक हजार कोडाकोड़ी सागर समयका होता है । इसके प्रारंभ में मनुष्योंकी आयु ८४ लाख पूर्वकी होती है । और शरीरकी ऊंचाई २२०० हाथत्री होती है । अंतमें जाकर मनुष्य शरीर की ऊँचाई अधिकसे र , अधिक ७ हाथकी रह जाती है। यह समय कर्मभूमिका कहलाता है । क्योंकि इस समय के मनुष्योंको जीवन चलाने के लिये व्यव हारिक कार्य करने होते हैं। राज्य, व्यापार, धर्म, विवाह आदि कार्य इसी रिसेके प्रारंभ होने लगते हैं । इसी हिस्से में जीवन चलाने अन्याय साधनोकी उन्नतिका प्रारम्भ होता है । यह उन्नति - जीवन निर्वाहके जड़ सावनोंकी उन्नति - तो बराबर होती जाती है परंतु आत्मज्ञान, अध्यात्मविद्या, सरला आदि उच्च भाव कमी होती जाती है। इसी हिस्से में चौबीस महापुरुप उत्पन्न होते है जो अरने ज्ञानले सत् धर्मका प्रकाश करते हैं । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s प्राचीन जैन इतिहास | (९) अवनति काल पूरा हो जानेपर ( अवसरी काल पूरा हो नानेपर ) उन्नति रूप परिवर्तनका प्रारंभ होता है । इनके भी छह माग होने है । इसके पहिले भागका नाम दु.षमादु घमा, दूसरा दुषमा, तीसरा सुषमादुपमा, चौथा दुपमासुपमा, पाचवां सुषमा और छठवा सुषमासुपमा होता है। इनसे क्रमश आयु काय सुःख दुःख उसी तरह बढते जाते है जिस तरह अवनति कालमें घटते थे । अवनति कालके छठवें भागमें जैसा कुछ समय रहता है वही उन्नतिके पहिले भागमें होता है और पहिले भागमै जो होता है वह उन्नतिके छटवें भागमें होता है । इस प्रकार आर्यखण्ड में समयका परिवर्तन होता है । वर्तमान समय अवनति रूप परिवर्तनका पाचवा हिस्सा है-पंचम काल है । इनके पहिले चार काल और पूरे हो चुके है । यह बताया जा चुका है कि यो तो इतिहास की शुरू प्रत्येक परिवर्तनक प्रारंभसे ही होती है परन्तु तीसरे कालके अंतमें जब एक पल्य शेष रहता है तब उस पल्पके आठ भागों में से सात भागोंके पूरे होने तक तो मनुष्यों के जीवन निर्वाहके लिये कोई व्यापारादि कृत्य, समाज-संगठन व राज्य - संगठनकी आवश्यकता न होनेके कारण उस समयका इतिहास नहीं कहला सकता । प्रकृत इतिहा सका प्रारंभ तीसरे भागके अंतिम परपके अंतिम हिस्से - भाठवे हिस्सेसे होता है यही आर्यखंडके इतिहासका प्रारंभिक काल है । आगे पाठोंमें यहींसे इतिहासका प्रारंभ किया जायगा । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट "क" तीन लोकका चित्र, Page #27 --------------------------------------------------------------------------  Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७ प्राचीन जैन इतिहास पाठ चौथा। इतिहासके प्रारंभका समय और चौदह कुलकर (मनु). (१) जब तीसरे कालमेंसे-अवनतिके तीसरे हिस्सेमें से एक पत्यका आठवा हिस्सा बाँकी रहा तब आपाढ सुदी पूनमके दिन सायंकालको सूर्य अस्त होता और प्रकाशमान चंद्रका उदय होता दिखाई दिया । यद्यपि चद्र सूर्य अनादि कालसे वराबर उदय अस्त होते रहते थे परन्तु इस दिन प्रकाश देनेवाले ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्षोंका प्रकाश इतना क्षीण होगया था कि जिस प्रकाशकी तीव्रतासे सूर्य और चर दिखाई नहीं देने थे, वे दिखाई देने लगे । इनको देखकर उस समयके मनुष्य बहुत करे और उन सबमें जो अधिक प्रतापशाली तथा सृष्टि परिवर्तन के नियमों जाननेवाले प्रतिश्रुति नामक पुरुष थे उनके पास जाकर अपने भयका हाल कहा। उन्होंने आगत मनुष्योंको समआया कि वह सूर्यसे डरनेका कोई कारण नहीं है । और भविन्य जीवनका निर्वाह किस प्रकारसे होगा और कैसा व्यवहार होगा, यह भी बताया। प्रतिश्रुतिके इस प्रकारसे बोध देनेसे डरे हुए मनुष्यों को शांति हुई । यही प्रतिश्रुति पहिले कुलकर मनु-थे। इन्हीं समयसे इतिहासका प्रारंभ हुआ। (२) इनके असंख्यात करोडों वर्ष बाद सन्मति नामके दू रे कुलकर उत्पन्न हुए। इनके समयमें ज्योतिरंग नागके करमोका प्रकाश इतना कम हो गया था कि उसके प्रकाशले तारागणों और नक्षत्रों का प्रकाश भी नहीं दव सका और वे प्रगट हुए । इन्हें Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग १८ देखकर उस समयके मनुष्योंने फिर भय खाया और कुलकरके पास आये । इन्होंने उन्हें समझ या । तथा ज्योतिश्चक्र ( सूर्य, चंद्र, ग्रह नक्षत्र आदिका समूह ज्योतिश्चक्र कहलाता है ) का मन हाल और रात्रि, दिन, सूर्यग्रहण, चद्रप्रहण, सूर्यका उत्तरायण दक्षिणायन होना आदिका भेद बतलाकर ज्योतिष विद्याकी प्रवृत्ति की। (३) इनके भी असंव्यात करोंडो वर्ष बाद क्षेमंकर नामके तीसरे कुलकर उत्पन्न हुए । अव तक सिंहादि क्रूर जन्तु शांत थे । पर इनके समयमें उनमें कुछ करता आई और वे मनुप्योको तकलीफ देने लगे । पहिले मनुष्य इन पशुओंको साथ रखते थे । परंतु क्षेनकरके आदेशसे अब उनसे न्यारे रहने लगे और उनका विश्वास करना छोड़ दिया । (१) तीसरे कुलकरके असंख्यांत करोड़ वर्षों बाद क्षेमवर नाम्के थे मनु हुए। इनके समयमें सिहादि जतुओंको क्रूरता और भी अधिक बंद गई और उसके लिये इन्होंने मनुष्यों को लाठी आदि रखनेका उपदेश दिया। (६) चौथेके असंख्यात करोड़ वर्षों बाद पांचवे सीमकर नामके मनु हुए। इनके समयमें कल्पवृक्ष बहुत कम हो गये थे और फल भी थोडा देने लगे थे अतएव मनुप्यों में विवाद होने लगा · इन्होंने अपनी बुद्धिसे मनोकी हद्द बांध दी और अपनी इरके अनुमार मनुप्य उनका उपयोग करने लगे। (E) फिर मसंख्यात करोड़ वर्षोके पश्चात सीधर मनु हुए। इनके समयमें कल्पवृक्षोंके लिये विवाद और भी अधिक वह गया स्था के कल्पवृक्ष बहुत कुछ घट गये थे और फल भी बहुत Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ प्राचीन जैन इतिहास | कप देने लगे 'थे, अतएव इन्होंने उस विवादको दूर किया और t फिर नये प्रकारसे वृक्षोंकी हद्द बाधी । " T (:) असंख्यात करोड़ वर्षोंके बाद फिर सातवें कुलकर विम.. लवाहन हुए । इन्होंने हाथी, घोडा, ऊँट, बैल आदि सवारी . करने लायक पशुओं पर सवारी किस ढंगसे करना, यह बताया । ● (८) इनके असंख्यात करोड वर्षों के . 1 बाद आठवें कुलकर चक्षुष्मान नामक हुए। इनके समय के पूर्व माता पिता अपनी संतानकी उत्पत्ति होनेके साथ ही मरण कर जाते थे पर इनके समय से संतान उत्पन्न होनेके क्षण भर बाद मरने लगे । इन्होंने लोगों को समझाया कि संतान क्यों होती है । + (९) फिर इनके असंख्यात करोड वर्षोंके बाद नौवें कुलकर यशस्वान हुए । इनके समय में माता पिता कुछ समय सतानके साथ ठहर कर फिर मरते थे । इन्होने संतानको आशीर्वादादि देनेकी विधि बताई । इ के सामने सतानका नाम रखा जाने 7 लगा । ( १० ) असंख्यात करोड वर्षो बाद दशवें मनु अभिचन्द्र नामके हुए । इनके समयमें प्रजा अपनी संतान के साथ क्रीडा करने लगी थी । इन्होंने क्रीडा करने व संतान पालनकी विधि ' चताई थी । (११) इनके सेकड़ों वर्षों बाद चंद्राभ नामके ग्यारहवें कुलकर उत्पन्न हुए इनके समय में प्रजा संतानके साथ पहिलेसे और अधिक दिनों तक रहकर फिर मरण करती थी । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । (१२) फिर कुछ समय बाद बारहवें कुलकर मरदेव नामके हुए। उस समयकी व्यवस्था सब इनके आधीन थी। इन्होंने जल मार्ग में गमन करने के लिये छोटी बड़ी नाव चलानेका उपाय बताया । पहाडोंपर चहनेके लिये सोढ़िया बनाना बताया। इन्हीक समयमें छोटी, चडी कई नदियों और उपसमुद्र उत्पन्न हुए । व मेघ भी न्यूनाधिक रीतिसे वासने लगे। इस समय तक स्त्री और पुरुष दोनों युगल उत्पन्न होते थे। (१३) फिर कुछ समय बाद तेरहवें कुलकर प्रसेनजित हुए। इन्होंके समयमें संतान जरायुसे ढकी उत्पन्न होने लगी। इन्होंने उसके फाइनेका उपाय बताया । प्रसेनजित कुलकर अकेले ही उत्पन्न हुए थे इन्हके पिताने विवाहकी पद्धति प्रारभ की। (११) इनके बाद चौदहवें कुलकर नाभिराय उत्पन्न हुए। इनका हाल आगे एक स्वतंत्र पाठमें दिया जायगा। (१५) इन कुलकमसे किसीको अवधिज्ञान होता था और किसीको जातिम्मरण होता था प्रजाके जीवनका उपाय जानने के कारण ये मनु कहलाते हैं । इन्होंने कई वंशोंकी स्थापना की रात कुलकर वहलाते हैं । इन कुलकरोंने दोषी मनुप्योंको दंड देनेका विधान भी किया था और वह इस प्रकार था - - - १ परिमित देश, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी तीनों कालका जिसने भान हो उसे अनधिज्ञान कहते है। २ जातिस्मग्ण एक प्रकारका बान होता है जिनसे भूतकालका स्मरण होता है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ प्राचीन जैन इतिहास! (१) पहिलेके प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमकर, क्षेमधर, सीमंकर इन पांच कुलकरोंने दोष होनेपर केवल " हा " इस प्रकार पश्चाताप रूप बोलदेना ही दड रक्खा था । (२) सीमंधर, विमच्वाहन, चक्षुष्मान, यशस्वान्, अमिचन्द्रःइन पांचोंने “हा, मा " इस प्रकार दो शब्दों का बोलना ही दंड नियत किया। (३) अतके चार कुलकरोंने " हा, मा, धिक " इस तरह दंडका विधान किया था। पाठ पांचवा । चौदहवें कुलकर महाराजा नाभिराय और कर्मभूमिका प्रारंभ। (१) तेरहवें कुलकरके कुछ समय बाद महाराजा नाभिराय हुए। ये चौदहवें कुलकर थे। इनके सामने कल्पवृक्ष प्रायः वष्ट हो चुके थे । क्योंकि तेरह कुलकरोंका समय भोगभूमिका था। 'जिस समयमें और जहा विना किसी व्यापार के भोगोपभोगकी सामग्री प्राप्त होती रहनी है उस समयको भोगभूमि कहने हैं। यह भोगभूमि महाराज नाभिरायके सन्मुख नष्ट हो गई और कर्मभूमिका प्रारम हुआ । अर्थात् जीविकाके लिये व्यापारादि आर्य करनेकी आवश्यकता हुई। (२) इस समक्के लोग व्यवहारिक कृत्योंसे बिलकुल अपुरिचिा के खेती आदि करना कुछ नहीं जानते थे । और कल्पवृक्ष नष्ट हो ही चुके थे जिनसे कि भोजन सामग्री आदि प्राप्त हुआ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथम भाग। करती थी | अतएव इन्हें अपनी मूख शांत करनेके लिये बड़ी चिंता हुई और व्याकुलचित्त होकर महाराज नाभिरायके पास माये। -, (३) यह समय युगके परिवर्तनका था। कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेके साथ ही जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी आदिके संयोगसे धान्यों के वृक्षों के अंकुर स्वयं उत्पन्न हुए और बढ़कर -फलयुक्त हो गये व फलवाले और अनेक वृक्ष भी उत्पन्न हुए। जल, पृथ्वी, आकाश आदिके परमाणु इस परिमाणमें मिले थे कि उनसे स्वयं ही वृक्षोंकी उत्पत्ति हो गई परन्तु उस समयके मनुष्य इन वृक्षोंका उपयोग करना नहीं जानते थे। (४) महाराजा नाभिरायके पास जाकर उन लोगोंने क्षुधादि दुःखोंको कहा और स्वयं उत्पन्न होनेवाले वृक्षों के उपयोग करनेका उपाय पूछा। (५) महाराजा नाभिरायने उनका डर दूर कर उपयोगमें आसकनेवाले धान्य वृक्ष और फलवृक्षोंको बताया व इनको उपयोगमें लानेका ढंग भी बताया तथा जो वृक्ष हानि करनेवाले थे, जिनसे जीवन में बाधा आती और रोग आदि उत्पन्न हो सस्ते थे उनसे दूर रहने के लिये उपदेश दिया। (६) वह समय कर्मभूमिके उत्पन्न होने का समय था । उस समय लोगोंक पास वर्तन आदि कुछ भी नहीं थे अतएव महा. राना नाभिने उन्हें हाथीके मस्तकपर मिट्टीके थाली आदि वर्तन स्वयं बनाकर दिये च बनानेकी विधि बताई। (७) नाभिरायके समय वालकी नाभिम नाल दिखाई Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ भाचीन जैन इतिहास। दी और उन्होंने इस नालको काटनेकी विधि बताई। (८) हाथी के माथेपर वर्तन बनाने तथा भोजन बनाना न मानने आदिसे इस समयके लोगोंका आजकलके मनुष्य चाहें असभ्य कहें और शायद जंगली भी कह दें। और इसीपरसे ' इतिहासकार परिवर्तनके इस कालको दुनियाँका बाल्यकाल समझते हैं । पर जैन इतिहासकी दृष्टिसे उस समयके लोग आसम्य या जंगली नहीं थे। क्योंकि वह समय परिवर्तनका था। जिस तरह एक समानके मनुष्यों को दूसरी समाजके चालचलन अटपटे माल्लम होते हैं और वह उनका अच्छी तरह सपादन नहीं कर सकता उसी प्रकार भोगभूमिके समयके-ऐसे समय के जिसमें कि भोगउपभोगके पदार्थ स्वय प्राप्त होते थे-रहनेवालोंको यदि ऐसा समय प्राप्त हो जिसमें कि स्वयं मिलना बंद हो जाय तो उन्हें अपना जीवन निर्वाह करना कठिनसा हो जायगा और वे जो कुछ उपाय करेंगे वह अपूर्ण और अटपटासा होगा । ऐसा ही समय महारान नाभिरायके सन्मुख था । अतएव यह समयका प्रभाव था। इस लिये जैन इतिहास उस समयके मनुष्योंको असभ्य नहीं कह सकता 1 न वह जगतका बाल्यकाल था किंतु कर्मभूमिका बाल्यकाल था । उस समय जीवननिर्वाहके साधन बहुत ही अपूर्ण थे। (९) महाराना नामिरायकी महारानीका-स्त्रीका नाम मरुदेवी था। (१०) मरुदेवी बड़ी ही विद्वान, रुपवान् और पुण्यवान् थी। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। २४ (११) महाराजा न.भिराय, कर्मभूमिकी प्रवृत्ति करनेवाले और धर्ममार्गको सबसे पहिले प्रकाशित करनेवाले भगवान् ऋषभके पिता थे। (१२) भगवान ऋषमके उत्पन्न होनेके पंढरह महिने पहिले महाराजा नाभि और महारानी मरुदेवीके रहनेके लिये इद्रकी आजासे देवोंने एक बड़ा सुदर नगर बनाया था। यह नगर १२ ४९ (४८४३६ कोश लंबा चौड़ा) योजना बनाया गया था। इस नगरका नाम अयोध्या रखा । वर्तमानमें यह नगरी अषप्रान्तमें बहुत छोटो और उनाड़ रह गई है । रिस देशमें यह नगर था उसना नाम आगे जाते सुकोशल पड़ा इस लिये अयोध्या सुकोगला भी कहलाई थी। इस नगरी में जो लोग इधर उधरके भिन्न भिन्न प्रदेशों में रहा करते थे उन्हें लानर देवाने वसाया । महाराना नाभिरायके लिये इसमें एक राजपवन बनाया गया था। इस नगरमें शुभ मुहर्तसे राज्यप्रवेश किया गया था। भगवान् ऋषभ इनके यहां उत्पन्न होनेवाले थे अतएव महाराजा नाभिरावका अमिक इन्द्रों ने किया था। (१३) भगवान् ऋपमके उत्पन्न होनेके पंढरह माम पूर्व नहाराना नाभिरायके आगनमें रत्नोंकी वर्षा इन्द्रोंने की। प्रतिदिन माई दश करोड़ रत्न प्रात माल, मध्यान्ह और शामको वर्षाये जाते थे। (१४) भगवान् ऋषभदेवके गर्भ में आने पहिले मन्देवीने इस मांति लालदत्वप्न देखें (1) सफेद ऐगवत हाशमी (२) तीर्थकरके बन्न नगरकी रचा इन्द्र करमावाद। - - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्राचीन जैन इतिहास 'गंभीर आवाज करता हुआ एक बहा भारी बैल (३) सिंह (४) लक्ष्मी (५) फूलोकी दो मालाए ६) तारों सहित चंद्रमंडल (७) उदय होता हुआ सूर्य (6) कमलोंमे ढके हुए दो सुवर्णकलश (९). सरोवरों में क्रीड़ा करती हुई मछलियां (१०) एक बड़ा भारी तालाव (११) समुद्र (१२) सिहासन (१३) रत्नोंका बना हुआ विमान (१४) पृथ्वीको फाड़कर आता हुआ नागेन्द्रका भवन (१५) रत्नोंकी राशि (१६) विना थुएकी जलती हुई अग्नि । इन सोलहों स्वप्नोंके देखने के बाद एक महान् वैलको मुखमै प्रवेश करते हुए देखा । ये स्वप्न रात्रिके पिछले पहत्में देखे । सुबह उठने ही स्नान कर मरुदेवी महाराजा नामिरायके पास गई । महाराजने महारानीको अपने निकट सिंहासनपर बैठ या ! इससे ज्ञात होता है कि उस समय पर्दा नहीं या और स्त्रियों का 'पुरुष बडा सन्मान किया करते थे। (१५) महाराना नाभिरायसे महारानीने अपने स्वप्नोंका वृत्तांत कहा, तब महाराजाने अनधिज्ञानसे जानकर कहा कि तुमारे गर्भमें ऋषभदेव भाये है। आषाढ सुदी दून उत्तरापाढ नक्षत्रको ऋषभदेव महारानी मरुदेवीके गर्भमें आये १ आजकलये इतिहासकारों का कहना है कि प्राचीन काल में रवि, मोम भादि वारोंकी कामना नहीं थी। जैन पुगणोरे जा तिथि आदिका वर्णन है यहा नक्षत्र, योग आदि अन्य कई ज्योतिष सवधी वाते रालाई है स पार नहीं बतलाये । इन वीमान इतिहासकारों के मतको नाराण पुष्टि करते है। जैन ज्योतिषः किसी विद्वानको इसपर विचार करना नाहिये। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयम भाग। जब भगवान् ऋषभ गर्ममें आये । तब तीसरे कालके चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साड़े आठ माह बाकी रह गये थे अर्थात ५९२७०४००००००००००००००३ वर्ष साड़े आठ मास तीसरे कालके शेष बचे थे उससमय भगवान् . ऋषभदेव गर्भमें आये। (१६) भगवान्के गर्भ में आते ही इन्होंने व देवोंने आकर अयोध्यानगरीकी प्रदक्षिणा दी। और मातापिताको नमस्कार किया व उत्सव किये । और देवियाने माताकी सेवा करना प्रारंभ कर दी। पाठ छठवाँ । युगादि पुरुप भगवान ऋषभ । (१) महाराजा नाभिरायके पुत्र भगवान् नपभन्ना जन्म निती चत्र कृष्ण नौमीको उत्तराषाढ़ नक्षत्रके पिछले माग अभिजित् नक्षत्रमें हुआ ! भगवान् जन्मसे ही मतिज्ञान-मानसिकज्ञान, श्रुतज्ञान-शात्वज्ञान और अवधिज्ञान-पूर्वजन्म भादिकी बातें जानना ये तीनों जान मंयुक थे। भगवानका जन्म होते ही प्राकृतिक रीतिसे स्वर्गमें कई ऐसे कौतुहल पूर्ण कार्य हुए निनसे देवोंने भगवान्के जन्म होनेका निश्चय किया और वे सब बडी घामधुमके साथ अगेच्या आये । अयोध्या आरर उन्होंने उमकी प्रदक्षिणा दो और इन्द्राणी भेगकर इन्हें भगवान्को लगाया। इन्द्राणी भगवान को लेकर याई जिन्हें देखनेके लिये दन्द्रने एक हमार नेत्र बनाये के भी उस रूपको देखकर वह नृत Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ प्राचीन जैन इतिहास ।' न हुआ और वह हाथीपर विराजमान कर भगवान्को मेरु पर्वतपर ले गये । भगवान् सौधर्म इन्द्रकी गोदी में मेरु पर्वतपर गये थे । सनत्कुमार माहेन्द्र नामक दोनों इन्द्र भगवानूपर चँवर ढालते थे और ईशान इन्द्र भगवान्पर छत्र लगाये हुए गये थे । मेरु पर्वतपर इन्होंने उसके पांडुक वनमें - उत्तर दिशाकी ओर जो आधे चंद्रमा के आकार एक पांडुक शिला हैं उस शिलापर भगवान्को बिराजमान किया और भगवान्का क्षीरसागर के जलसे अभिषेक किया । भगवान्को आभूषण व वस्त्र पहिनाये गये । फिर मेरु पर्वतपर से भगवान्‌को अयोध्या में लाकर इन्द्र व देवोंने घरपर बड़ा भारी उत्सव किया । अयोध्यामें मातपिठाने भी बहुत उत्सव रिया । इन्द्रोने उस समय संगीत और नाटक भी किया था । ऋषभदेव धर्म के सबसे पहिले प्रकाशक थे अतएव इन्द्रने इन्हें "वृषभस्वामी" कहकर पुकारा था । तथा इनके गर्भ में आनेके पहिले सबसे अंतिम स्वम माताने वृषभका देखा था इससे भी इनके मातापिता इन्हें 'वृषभ' वहकर पुकारा करते थे । (२) चालक वृषभकी सेवा के लिये इन्द्रने देव - देवियां सेवामें रख छोड़ी थीं । भगवान् ऋषभ बाल्यावस्था में बड़े ही सुदर और मनोभावन थे इनके साथमें देवगण बालरूप धारण करके खेला करते थे । इनके लिये वस्त्राभूषण स्वर्गसे आया करते थे । (३) भगवान् ऋषभ स्वयभू थे स्वयंज्ञानी थे । उन्होंने विना पढे ही सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था । ये बड़े यत्नसे संसा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। २८ रका निरीक्षण करते थे और योग्यतापूर्वक कार्योका संपादन करते थे। (१) मगवान्की युवावस्थाकी सब चेष्टायें परोपकारके लिये होती थीं। और उनसे प्रनाका पालन होता था | भगवानका कुमारकाल वीसलाख पूर्वका था । (६) भगवान् ऋषभदेव अनुपम बलशाली और दृढतासे कार्योको करनेवाले थे । ( समयको निरर्थक नहीं जाने देते थे) (६) भगवान् ऋषभ गणितशास्त्र, छंदःशास्त्र, अलकारशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, चित्रकला, व लेखन प्रणलीका अन्याप्त स्वयं करते थे और इसरोंजो कराते थे। मनोरजनके लिये गाना, बनाना और नाटक व नृत्य आदिकी कलामाका भी उपयोग करते थे। देवबालकों के साथ किल्ली-दंडा आदिके खेल भी खेला करते थे। ये जल्क्रोडा-तैरना आदि भी करते थे। भगवान्के उपयोगमें आनेवाली वस्तुए इन्द्र स्वर्गसे भेंटमें लाया करता था। (७) युवावस्थामें भगवान्के पिता महाराज नानिने अपने पुत्र भगवान् ऋषभसे विवाह करनेका परामर्श किया | सब पृथ्वी को अपने आदर्श चरित्रसे चलाने और भविष्यमें रिवाहादिकामार्ग जारी करनेके लिये आपने अपनी सम्मति दी। वह सम्मति केवल ॐ शब्द बोलकर ही दी थी। भगवान्का विवाह कच्छ और महाकच्छ नामक दोनों राजाओंकी दो अन्या यशस्वती और सुनंदासे किया गया। (९) एक दिन महारानी यशस्थतीने रात्रीको इस भाति चार स्वप्न देखे -पहिले स्वप्नमें मेरुपर्वत द्वारा सारी ध्वी निगली Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ प्राचीन जैन इतिहास। जाती हुई देखी, दूसरा स्वप्न चंद्र और सूर्य सहित मेरु पर्वत देखा, तीसरा स्वप्न कमलों सहित तालाबका था और चौथे स्वप्नमें समुद्र देखा । सुवह उठकर मह रानी यशस्वती भगवान् ऋषभके पास जाकर अपने योग्य सिहासनपर बैठी और सप्नका हाल सुनाया। भगवान् ऋषभने इन स्वप्नोंका फल चक्रवर्ती पुत्रका उत्पन्न होना बताया। (१०) चैत्र कृष्ण नवमीके दिन जब ब्रह्मयोग उत्तराषाढ नक्षत्र, मीन स्म और चंद्रमा धन राशिपर था उस समय भगवान् ऋषभदेवके पहिले पुत्रका जन्म हुआ। इस पुत्रका नाम 'भरत' रखा गया। (११) भगवान ऋषभदेवने अपने पुत्र भरतके भन्न खिलाना, मुंडन, कर्णछेदन-कानोंका छेदना और यज्ञोपवीत संस्कार किये थे। (१२) भरतके बाद भगवान के ९९ पुत्र और उत्पन्न हुए उनमें से कुछके नाम ये है.-वृषमसेन, अनंतविजय, महासेन, अनतवीर्य, अच्युत, वीर, वरवीर, श्रीपेण, गुणसेन, जयसेन, इत्यादि । तथा इसी स्त्रीसे-यशस्वतीदेवीसे एक कन्या और उत्पन्न हुई जिसका नाम 'ब्राह्मोसुदरी' था। (१३) भगवानकी दूसरी स्त्री सुनंदादेवीसे एक 'बाहुबली' नामक पुत्र हुआ और एक 'सुंदरीदेवी' नामक कन्या उत्पन्न हुई । भगवान् एक्सौ तीन संतानके पिता थे। (१४) एक दिन भगवानका चित्त जगत्में अनेक भिन्न भिन्न प्रकारकी कलाओं और विद्याओं के प्रचारके लिये उद्विग्न होने लगा उसी समय उनके पास उनकी दोनों कन्यायें-ब्राह्मी और Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। . ३० सुदरीदेवी आई । इनकी इस समय प्रारंभ युवावस्था थी। दोनों को भगवान्ने गोदीमें बिठाया और उन्हें पढ़ने के लिये मौखिक उपदेश टेकर विद्य का महत्व बताते हुए अ, आ, इ, ई आदि स्वरोंसे अक्षरोंका ज्ञान प्रारंभ कराया और इकाई दहाई आदि गिन्ती भी पढाना प्रारंभ किया। भगवान् ऋषभदेवक चरित्रमें अपने पुत्रोंको पढ़ानेका वर्णन कन्याओंके पहानेके बाद आया है। इससे मालूम होता है कि भगवानने स्त्री-शिक्षाका महत्व जगतमें प्रगट करनेको ही ऐसा किया होगा अपने इस आदर्श कार्यमें भगवान्ने यह गूढ़ रहस्य रखा और प्रगट किया है कि पुरुप-शिक्षाका मूल कारण स्त्रीशिक्षा हो है। इन कन्याओंको भगवान्ने व्याकरण, छंद, न्याय, काव्य, गणित, अहंकार आदि अनेक विषयों की शिक्षा दी थी। (१५) दोनो कन्याओं के लिये भगवान्ने एक " स्वायभुव" नामक व्याकरण बनाया था और छंदःशास्त्र, अलंकारशास्त्र आदिशास्त्र भी बनाये थे। (१६) पुत्रियोंको पढ़ाने बाद मरत आदि एकसो एक पुत्रोंतो भी भगवान्ने पढ़ाया। भगवान्ने यद्यपि अपने सब पुत्रोंही अनेक विद्याओंकी शिक्षा दी थी तो भी नीचे लिखे पुत्र निम्न लिखिन खास खास विषयोंके विद्वान् बनाये थे । (क) भरतको नीतिशास्त्रका (इन्हें नृत्यशास्त्र भी पढ़ाया था.) (ख) वृण्मसेन (द्वितीय पुत्रको ) संगीत और वादन शारदका (ग) अन्तविजयको चित्रकारी, नाटयकला और मकानोंके बनानेकी विद्या ( engineering) सिखाई थी। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ प्राचीन जैन इतिहास (घ) बाहुबलीको कामशास्त्र, वैद्यकशास्त्र. धनुर्वेदविद्या, 'पशुओंके लक्षणों को जाननेका ज्ञान और दन्नपरीक्षाका ज्ञान कराया था। (१७. भगवान्ने जगत्में प्रचार होने योग्य सम्पूर्ण बिद्यायें अपने पुत्रोंको सिाई थीं। (८) नाभिरायके समयमें जो धान्य व फल स्वयं-प्रारुतिक-उत्पन्न हुए थे, उनमें भी रस आदि कम होने लगा और वे क्षीण ह ने लगे, तब सब प्रमा महाराना नाभिके पास आई *और अपने दु खोंको ( धान्य वृझेके न रहनेसे क्षुबा आदिके दुःख ) कहने लगी तब महारानने भगवान् ऋषभके पास उस प्रजाको भेना । परोपकारी भगवान् ऋषभने आर्यखंडकी प्रजाके कप्टोको दूर करने और उनके व्यवहारके उपायोंके साधन बनानेकी इ द्रको आज्ञा दी और उसको सब रीति बताई। तब इन्द्रने इस भांति किया। (1) जिनमंदिरोंकी रचना की। (२) देश, उपप्रदेश, नगर आदिकी रचना की। (३) सुकोशल, अवती, पुंडू उड् अस्नक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अग, वंग, सुहम, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनत, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, मुराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आंध्य, कर्णाट, कौशल, चोल, केरल, दाप्त, अभिसार, सौवीर, सूरसेन, नपरांत, विदेह, सिंधु, गांधार, पवन, चेदि, पल्लव, . झांबोन, आरट्ट, वाहीक, तुरुक, शक और केकय इन बावन Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग R देशोंकी रचना की । इनके सिवाय और भी अनेक देशका विभाग किया | ( ४ ) इन देशों में से कई देश ऐसे थे जिनमें अन्नकी उत्पत्ति नदियांसे जल सींचकर की जाती थी और कई ऐसे थे जिनमें वर्षा के जलसे खेती होती थी और कई देश दोनों प्रकारके थे। कई देशों में जलकी बहुतायत थी और कइयोंमें जलकी कमी थी । (५) प्रत्येक देश के राजा लोग भी नियत कर दिये थे । (६) कई देश ऐसे थे जो लूटनेवाले गोके अधीन थे । (७) राजधानी प्रत्येक देशोंके मध्य में बनाई गई थी । (८) छोटे बड़े गावकी रचना इस भाति की गई थी । (₹) जिनमें कांटों की बाढ़ से घिर हुये मकान बनाये गये थे और किसान व शूद्र रहते थे ऐसे सौ घरोंका छोटा गांव और पाचसौ घरोंका बड़ा गांव कहलाया । (ख) छोटे गावकी सोमा एक कोश की और बड़े गावकी सीमा दो कोशकी रखी गई । ( ग गांवोंकी सीमा स्मशानसे, नदियोंसे, बड़के झुंड़ोंसे, बंबुल आदिके काटेदार वृक्षोंसे व पर्वत और गुफाओंसे की गई ( वृक्षादिसे आजकलभी सीमा-हद बांधी जाती हैं ) (घ) गांवोंको वसाना, उनका उपयोग करना, गांव निवासियोंके लिये नियम बनाना, गावोंकी आवश्यकताओंोंको पूरी करना आदि कार्य राज्य आघोन रखे गये । - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ग - - - - - NGOK मध्यप्रात - - बम्बईमध्यमदेश MAA भारत वर्ष. Page #45 --------------------------------------------------------------------------  Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास है (ड' जिन स्थानोंपर मकानात-हवे लयाँ, कई बड़े २ दरवाजे बनाये गये और प्रसिद्ध पुरुष वसाये गये उन स्थानोंका नाम नगर पड़ा। (च) नदियों और पर्वतोंसे घिरे स्थानोंको खेड नाम दिया और चारों ओर पर्वतोंसे घिरे स्थानोंको खर्वट नाम दिया। जिन गांवोंके आस-पास पांचसौ घर थे उन्हें मडव नाम दिया गया । समुद्रके आस-पासवाले स्थानोंको पत्तन और नदीके पासवाले गावोंको द्रोणमुख संज्ञा दी। (ख) राजधानियोके आधीन आठ आठमौ गाँव, द्रोणमुख गावोंके आधोन चार चारसौ और खर्वटोंके आधीन दो दोसौ रखे गये। (९) भगवान्ने प्रजाको शस्त्रधारण काना व उनका उपयोग खेती, लेखन, व्यापार, विद्या और शिल्पकर्म-हस्तकौशल्य-हाथकी कारीगरी वताई। (१०) उस समय जिन्होंने शस्त्र धारण किये वे क्षत्रिय | कहलाये और जिन्होने खेती, व्यापार और पशु-पालनका कार्य किया वे वैश्य कहलाये और इन दोनोंकी सेवा करनेवाले शूद्र कहलाते थे। इस प्रकार भगवान ऋषभदेवने तीन वर्णोकी-क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र वर्णों की स्थापना की इसके पहिले, वर्ण-व्यवहार नहीं था। यहींसे वर्ण-व्यवहार चला है और उसकी कल्पना मनुष्योंकी आजिविकाके कार्यों परसे की गई थी। (११) उस समय भगवान्ने शोके दो भेद किये । एक Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयम भाग। कार और दूसरा अकारु | घोची, नाई वगैरह का कहलाते थे। इनसे भिन्न मचा। (१२) कार शूद्रोंके भी दो भेद किये गये, एक स्पृश्य-छूने योग्य । दुसरा न छूने योग्य । स्टथ्योंमें नाई वगैरह थे । और जो प्रनासे अलग रहते थे वे अस्टस्य कहलाते थे। (१३) विवाह आदि संबंध भगवान्की आज्ञानुसार ही किये जाते थे। (११) इस प्रकार कर्मयुगका प्रारंभ भगवान् ऋषभने भाषाह कृष्णा प्रतिपदाको किया था । इस लिये भगवान् कृतयुग-युगके करनेवाले बहलाने हैं। और इसी लिये उस समय प्रना आपको विधाता, मृष्टा, विश्वकर्मा आदि कहा करती थी। (१५, इस युगके प्रारंभ करनेके कितने ही वर्षों बाढ भगवान ऋषम. सम्राट पदवीसे विभूषित किये गये और उनका राज्याभिषेक किया गया । सब क्षत्रिय रामामोंने मगवानको अपना स्वामी माना था व महाराजा नाभिरायने मी आगेसे भगवान्को ही अपने राज्यका स्वामी बनाकर अपना मुकुट भगवान्के सिरपर रखा था। (१६) सगष्ट " क अनंतर भगवान्ने व्यापारादिके द शामनके नियम बनाये। (१७) भगवान्ने क्षत्रियोंको शस्त्र चलानेकी शिक्षा स्वयं टी और पैथ्योक लिये परदेशगमनका मार्ग सुला करने के लिये म्य विदेशोंको गये । भोर स्थलयात्रा व जलयात्रा-समुदयात्रा भारभ की। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास L (१८) भगवान्ने विवाहका नियम इस प्रकार बनाया था । (१) शूद्र - शूद्रकी कन्यासे साथ विवाह करे । (२) वैश्य - वैश्यकी और शुद्रकी कन्या के साथ विवाह करे । (३) क्षत्रिय - क्षत्रिय, वैश्य और शद्रकी कन्याके साथ विवाह करे । ३५ उस समय वर्ण भेद था, जाति भेद नहीं था । (१९) उस समय अपने अपने वर्णोंकी भाजीविका छोड़ कर दूसरे वर्णोंकी आजीविका कोई नहीं कर सकता था । I (२०) भगवान् ने भी अपने पिता के ही अनुसार हा, मा, और धिक्कार ऐसे शब्दोंके बोलनेका दंड विधान किया था । क्योंकि उस समयकी प्रजा बड़ी सरल, शांत और भोली थी । इसलिये वह इतने ही दंडको बहुत कुछ समझती थी । (२१) फिर भगवान् ने एक एक हजार राजाओंके ऊपर चार महामंडलेश्वर राजाओं की स्थापना की । इनके नाम इस भौति है. - हरि, अकंपन, काश्यप और सोमप्रभ । इन चारों ही राजाओंने चार वशोंकी स्थापना की । हरिने हरिवंश, अकंपनने नाथवंश, काश्यपने उग्रवंश और सोमप्रभने कुरुवंश चलाया । ये चारों महामंडलेश्वर, उक्त चारों वंशक नायक हुए | तथा भगवानूने अपने पुत्रोंको भी पृथ्वी व अन्य संपत्ति बाँटी । I (२२) भगवान्ने प्रजापर उसको न अखरनेवाला बहुत कम कर लगाया । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ (२३) सबसे पहिले भगवान् ने ईख - साटोंके रसको संग्रह करनेका उपदेश दिया था इससे भगवान् इक्ष्वाकु कहलाये और इसीके कारण आपके वंशका नाम इक्ष्वाकुवंश प्रसिद्ध हुआ । प्रथम भाग - (२४) भगवान्ने ४४१६२८००००००००००००००० वर्ष राज्य किया था । 000 (२५) भगवान्ने कच्छ महाकच्छ आदि नरेशोंको अधिराज पद दिया और अपने पुत्रोंके लिये भी राज्य - विभाग कर दिया था। (२६) भगवान् ने अपना समय सदा परोपकार में लगाया और लोगोंकी इच्छानुसार दान दिया । (२७) एक दिन भगवान् राजसभामें बैठे थे कि भगवान्की सेवा व पूजा करने व उनका मनोविनोद करनेके लिये इन्द्र आया । उसके साथमें नृत्य करनेवाली अप्परा व गंधर्व जातिके-गाने --- बजानेवाले देव भी थे । नीलांजना नामक अप्सराका नृत्य इन्द्रने कराया । इस अप्सराकी आयु बहुत ही थोड़ी रह गई थी अर्थात् नृत्य करते करते ही उसकी आयु पूरी हो गई । यद्यपि इन्द्रने ऐसा प्रबंध कर दिया कि उसके नष्ट होनेके साथ ही दूसरी अप्सरा उसीके रूपकी होकर नृत्य करने लगी, और दूसरे सभासद इसको समझ भी न सके, परंतु बहुज्ञानी भगवान्‌ने समझ लिया और संसारको असार समझ आपका चित्त वैराग्यकी ओर लग गया । यह देखते ही लौकांतिक देवोंने स्तुति की और भगवान के वैराग्य चितवनकी (२८) भगवान् ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरतको अपने सम्राट् पद आकर भगवान्की प्रशंसा की । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ भाचीन जनै इतिहास। पर स्थापन कर उनका राज्याभिषेक किया। और बाहुबलीको युवराज पद दिया। (२९) वैराग्य होते ही इन्द्रोंने भगवानका अभिषेक किया और बड़ा भारी उत्सव मनाया । इस समय भगवानकी आयु ८६ लाख पूर्वकी थी। (३०) भगवान् जब तप धारण करनेको वनमें जाने लगे लब प्रजाको बहुत दुःख हुआ। कुछ दूर तक राना लोग भगवा के साथ गये फिर इन्द्र और देवोंके साथ भगवान् बनको चले गये। (३१) चैत्र वदी नोमीके दिन भगवान ऋषभने सिद्धार्थ नामक बनमें जो अयोध्यासे न तो दूर था और न बहुत पास ही था, जाकर सब कुटुम्बियोंकी आज्ञापूर्वक दीक्षा धारण की । दीक्षा लेते समय सब परिग्रहोंका त्याग किया, नग्नमुद्रा धारण की और केशोंका पंचमुष्टि लोंच किया। भगवान के साथ चार हजार राजाओंने भी दीक्षा धारण की । इन लोगोने मगवानका अभिप्राय तो समझा नहीं था केवल भगवानकी मक्तिसे ही दीक्षा धारण की थी । दीक्षा लेनेके बाद इन्द्रोंने भगवानकी पूजा की। भगवानने पहिले छह मासका उपचाप्त धारण करनेकी प्रतिज्ञा कर तप करना प्रारंभ किया, तप धारण करते समय भगवानको मनापर्ययज्ञानकी उत्पत्ति हुई । इस ज्ञालसे मनकी गति जानी जाती है। (३२) जिन राजाओंने भगवानके साथ दीक्षा ली थी वे दुःखोंको सहन न कर सके अतएव वे लोग फल फूल खाने लगे। उनसे भूख न सही गई। महाराना भरतके डरसे ये शहरों Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। . ३८ नहीं भाते थे । इन लोगोंने भिन्न भिन्न भेष धारण कर लिये थे। किसी ने लंगोटी लगा ली थी, कोई दंड लेकर दंडी बन गया था, किसीने तीन दंडोंको धारण किया था, इस लिये उसे लोग त्रिदंडी कहते थे। (३३) इन लोगोंक देव भगवान् ऋषभ ही थे । ये उन्हींक चरणोंकी पूजा करते थे। फिर भगवान्के पोते-पुत्रके पुत्र मरीचीने योग शास्त्र और सांख्य शासकी रचना की और वहतसे लोगोंको अपनी ओर झुकाया। (३४) भगवान्ने छह महीनोंतक बड़ा ही कठिन तप किया। भगवाननी जटायें बह गई थीं। भगवानकी शांतिका वनके पशुओं पर यहातक असर पड़ा था कि हिरण और सिंह एक स्थानपर रहते थे और हिरणको सिह कोई कष्ट नहीं पहुंचाता था। (३५) छह माह पूरे हो जानेपर भगवान आहारके लिये नगरमें गये परन्तु माहार देनेकी विधि उस समय कोई नहीं जानता था । मगवानका अभिप्राय न समझ कोई कुछ और कोई कुछ कर भगवान के सन्मुख रखता था परंतु भगवान उनकी ओर देखने तक नहीं थे मंतमें जाकर जब करीब सात माहसे कुछ दिन उपर हो गये तब वैशाख शुदी तीनने अरुनागल देशके राजा मोम्प्रभुने छोटे भई युवगन श्रेयांसने जातिन्मरण-पूर्व माका ज्ञान हो जो विपशु-रसका माहार दिया इससे उस गनारे यहा इन्त्रीने देवाने पंचायत्रं किये थे। (१६) दिन भगवान विहार करने काने पुरिमताल नाना न पाबा नानक बनने जाने और वहा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ प्राचीन जैन इतिहास । पर ध्यान धारण किया । भगवानके बडे मारी तपश्चरण से चार घातिया कर्मोंका नाश हुआ और भगवानको केवलज्ञान सर्वज्ञत्व प्राप्त हुआ। जिस दिन भगवान सर्वज्ञ हुए वह दिन फागुन बदी एकादशीका दिन था । भगवानने एक हजार वर्ष तक तक किया था । (३७) भगवान्के केवलज्ञानका समाचार प्राकृतिक रीतिसे स्वयं ही स्वर्ग में पहुंच गया । इतने बडे महात्मा के सर्वज्ञ होने पर जगतमें प्राकृतिक रीतिसे विलक्षण परिवर्तन हो जाना आश्चर्यजनक नहीं कहला सकता । अतएव भगवान के सर्वज्ञ होते ही स्वगौमें बाजे स्वयमेव बनने लगे, । घटोंकी ध्वनि हुई, पृथ्वी पर चारों ओर चार चार कोशतक सुकाल हो गया, छहों ऋतुओंके फल फूल एक ही समय में उत्पन्न हो गये आदि कई आश्चर्यजनक घटनायें हुई । केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर जो जो घटनायें होती है उनका वर्णन परिशिष्ट स० "ड" में किया गया है। (३८) स्वर्ग में भगवान के सर्वज्ञ होने के चिन्ह प्रगट होते ही उसी समय इन्द्रोंने अपने आसन से उठकर भगवान्को नमस्कार किया और देवोंकी सेनाके साथ बडी सज-धनसे भगवान् की पूजा करनेको आये । (३९) केवलज्ञान होते ही भगवानका एक सभामंडप बनाया गया इसका नाम समवोरण है । यह अस्तालीस कोश लंबा और इतना ही चौड़ा था । यह समवशरण मडप बहुत ही शोभा युक्त और विलक्षणता, सहित था, क्योंकि देवोंने इसकी रचना की १. समवशरणकी पूर्ण रचना परिशिष्ट १० (घ) में देखो. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । । थी । भगवान् मंडपकी वेदिकामें सिंहासन के ऊपर अधर विराजमान रहते थे । भगवानके ऊपर तीन रत्नमय छत्र लगे थे और 1 चौंसठ चमर दुलते थे । यह पृथ्वीसे बहुत ऊँचा था । इसमें नारह समायें थीं जिनमें बारह प्रकारके जीव भगवान्का उपदेश सुनते थे । वे वारह प्रकारके जीव इस प्रकार थे - १ ले कोठेमें गणधर - भगवानके उपदेश ग्रहणकी योग्यता रखनेवाले माधु, २रे कोटे में कल्पवासी देवोंकी देवांगनायें, इरेमें आर्यिका - साध्वी और गृहस्थ मनुष्यों की स्त्रिया, ४थेमें ज्योतिष्क देवोंकी देवांगनाएँ, पांचवे में व्यंतर देवोंकी देवागनाएँ, छठवे में भवनवासिनी देवागजाएं, सातवें में भवनवासी देव, आठवेमें व्यंतर देव, नौवेमें ज्योतिष्क देव, दशवेमें कल्पवासी देव, ग्यारहवेंमें चक्रवर्ती, राजा महाराजा और सर्व साधारण मनुष्य, चारहवे में सिंह, गाय, बैल, हिरण, सर्प आदि तियंच - पशु | इस प्रकार वादों कोठोंके बारह I प्रकारके प्राणी बैठकर उपदेश सुना करते थे। भगवान्की सभाम किसी भी प्राणीको आनेकी मनाही नहीं होती थी, सब आ सकते और भगवानका उपदेश सुन सकने थे, यहांतक कि भगचानका उपदेश पशुओं को भी सुननेका अवसर दिया जाता था । मनुष्य मात्र भगवानकी समामें एक ही कोठे में बैठते थे। भगवानकी दृष्टिमें माघारणसे साधारण और बडा बडा आदमी समान था । भगवान की शातिके प्रभाव से पशुत देर छोड देते थे और सिह. गाय आदि परस्पर के विरोधी पशु भी एक स्थानपर बैठकर भगचानका उपदेश सुनते थे । भगवानका उपदेश (विना इच्छा के ) * ४० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ प्राचीन जनै इतिहास। 'प्रतिदिन तीन बार हुआ करता था और वह ऐसे उच्चारणसे होता था कि जिसे प्राणीमात्र अग्नी अपनी भाषामें समझ लेते थे । और उसका उच्चारण अक्षर रहित; विना दंत, ओठ, तालु आदिमें क्रिया हुए ही होता था । भगवानके उपदेशको-ज्ञानको रसुनकर धारण करनेवाले गणघर होते हैं । भगवान् ऋषमके चौरासी गणघर थे । और उनमें से मुख्य गणधर वृषभसेन थे। -मभामें हर कोई प्रश्न कर सकता था, · विसीको रोक टोक नहीं थी । इसी समामें भगवानने आत्माके स्वाभाविक धर्म-जैन धर्मका प्रकाश किया था। और भिन्न भिन्न साधुओं, राजाओं, देवों और सर्व साधारणोंके पन्नोंका उत्तर दिया था। इस समामें सबसे अधिक प्रश्न चक्रवर्ती भरतने किये थे। (१०) भगवानके उपदेशके बाद भगवानके पुत्र वृषभसेनने दीक्षा ली और ये ही सबसे पहिले गणधर. हुए। यह वृषभसेन पुरिमताल नगर, जिमके कि समीपी वनमें भगवान्को केवल ज्ञान हुआ था, का स्वामी और भरतका छोटा भाई था । कहा जाता है कि विना गणधरके सर्वज्ञकी दिव्यध्वनि नहीं खिरती परतु भगवान् ऋषभदेवके संबंधमे ऐसा नहीं हुआ । भगवान्के उपदेभको सुनकर वृषभसेनने पीछेसे दीक्षा धारण की थी और गणघर हुआ था। (११) वृषभमेनके समान कुरु देशके राजा सोमभ और श्रेयांसने भी दीक्षा ली और वे भी गणधर हुए। ____ (४२) वाह्मीदेवी और सुदरीदेवी ( भगवानकी दोनों पुत्रिया ) भी दीक्षा लेकर सबसे पहिली मार्थिकाएँ बनीं थीं । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । (४३) इस शकट वनसे उठकर भगवान फिर विहार करने को चले और कुरुनांगल, कौशल, सुदन, पुंडू, चेदि, अंग, बंग, मगध, अंध्र, कलिंग, भद्र, पंचाल, मालव, दशार्ण, विदर्भ आदि अनेक देशों में भगवानने विहार किया । और अपने उपदेशामृतले जगत्का कल्याण किया | भगवान जहाँ जहाँ जाते थे वहाँ वहाँ ऊपर कहे अनुसार समवशरण मंडप बन जाता था । विहार करते करते अंतमें भगवान कैलाश पर्वतपर पहुँचे । ४२ ( 88 ) जिस समय भगवान विहार करते थे उस समय सबसे आगे धर्म चक्र चलता था । देवोंकी सेना चलती थी । आकाशमें जयध्वनि की जाती थी। भगवान के चरणोंके नोचे देवगण एक सौ आठ पाखुडीके कमल रचते जाते थे । भगवान पृथ्वीसे बहुत ऊँचे घर चलते थे । (१५) जब छोटे भाइयोंने भरत चक्रवर्तीकी आज्ञा न मान भगवान ऋषभसे प्रार्थना की कि आप हमारे स्वामी है, आप हीने हमें राज्य दिया है, अब हम भरतको नमस्कार नहीं कर सकते तब भगवान ने उन्हें धर्मोपदेश देकर कहा कि तुम्हारे अभिमानकी रक्षा केवल मुनित अगीकार करनेसे हो सकती है अतएव तुम दीक्षा धारण करो । भगवान्के इम उपदेशके अनुसार भरतके छोटे मइयॉन- भगवान के छोटे पुत्राने भगवन्से ही दीक्षा ली थी । और कठोर तरद्वारा द्वादशांगका ज्ञान प्राप्त किया था । इस समय केवल श्रावळीने दीक्षा नहीं ली थी । (१६) भरतने जिस केथे ब्रह्मण वर्णकी स्थापना की थी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ प्राचीन जैन इतिहास । उसके संबंधमें भगवानसे भरतने प्रश्न किया था कि प्रभो ! इसका परिणाम क्या होगा तब भगवानने उत्तर दिया था कि चतुर्थ मालमें तो इस वर्णसे लाभ होगा पर पंचम कालमें यह वर्णन धर्मका द्रोही वन नायगा। (१७) महाराज मरतने सोलई स्वप्न देखे थे उनका फल भी ऋषभदेवने यही बताया था कि पंचम कालमें (पार्श्वनाथ स्वामीके बाद ) धर्ममें क्रमशः न्यूनता हो जायगी। (४८) भगवान् ऋषभ देवका शिष्य यों तो विश्व ही था, पर आपकी सभाका चतुर्विध संघ इस प्रकार था ८४ गणधर ४७५० चौदह पूर्वक पाठी (पढनेवाले) ४१९० शिक्षक ९००० अवधिज्ञानी मुनि २०००० केवलज्ञानी २०६०० विक्रिया ऋद्धिके धारक साधु १२७५० मन.पर्ययज्ञानके घारक साधु १२७५० वादी साधु ८४०८४ ३५०००० बाह्मी आदि आर्यिकाएँ ३०००० आवकके व्रतोंको धारण करनेवाले श्रावक ६००००० सुवृता आदि श्राविकाय (श्रावक व्रतकी धारक स्त्रियों) . . इन सोलह स्वप्नों का वर्णन भरतके पाठमे रिया गया है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग (४९) केवलज्ञान होनेपर भगवान्, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन अनंत मुख और अनंतवीर्य (वल) कर युक्त हो गये थे । ४४ (१०) भगवान् देवने एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एकलाख पूर्व तक समबरण सभामें उपदेश दिया था । जब स्वायुके चौदह दिन शेष रह गये तब उपदेश देना बंड हुआ और परकासन लगाकर शेष क्रमका नाश करने लगे । यह दिन पोष सुदी १५ का था । इसी रात्रिको भरत चक्रवर्ति अकीर्ति, युवराज, चक्रवर्तीका गृहपति रत्न, चक्रवर्ती मुख्य मंत्री, चक्रवती के सेनापति, जयकुमार के पुत्र अनंतवीर्य, चक्रवर्तीकी पटरानी सुभद्रा, काशीनरेश चित्रागद आदि बड़े २ पुत्रपोंने कई प्रकारके स्वप्न देखे जिनका फल भगवान्का मोक्ष जाना था। (५१) आनंद नामक पुरुष द्वारा भगवान्‌का कैलाशपर आगमन सुन- भरत चक्रवर्ती वहाँ गया और चौदह दिनों तक भगबान्की सेवा की । (५२) अतमें माघ वदी १४ के दिन सूर्योदय के समय अनेक साधुओ सहित भगवान ऋषभदेव मोक्षको पवारे । भगवान्के नोक्ष चले जानेपर देवाने आकर निर्वाणकल्याणक नामक पाचवा कल्याणकोत्सव मनाया | और गवानके शरीरका चदनादि सुगंधित द्रव्योंद्वारा अग्निकुमार जातिके देवोंके मुकुटकी अग्निसे दाह किया । भगवान् के शरीरका जहाँ दाह किया था उसके दाहनी ओर गणवरादि साधुओंके शरीरका नह किया और बाईं ओर केवलज्ञानियोंके शरीरका दाह किया और Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ प्राचीन जन इतिहास । बड़ा उत्सव मनाया । दाहकी भस्मको मन्तकादिपर धारण किया। इन तीन प्रकारके महापुरुषोंक दाइसे तीन प्रकारकी अग्निकी स्थापना करनेका देवोंने श्रावकों को उपदेश दिया । और प्रतिदिन पांचवीं प्रतिनातकके धारक श्रावकोंको इन अग्नियोंमें होमादि करनेकी आना दी। (१३) भगवान अपमदेवका शरीर हट जानेपर भरत चक्र वतीने बहुत शोक किया था, पर अंतने वृषमसेन गणधरके उपदेशसे वह शांत हुआ। पाठ सातवा । भरत चक्रवर्ती। (१) भगवान् ऋषभदेवके सबसे बड़े पुत्र महारान भरत थे। ये चक्रवर्ति थे । अवसर्पिणी चालके सबसे पहिले चक्रवर्ति ये ही हुए हैं। जिस समय ये गर्ममें आये उस समय इनकी माता यशस्वती महारानीने चार स्वन देखे ये-पहिला स्वप्न समस्त पृथ्वीका मेरु पर्वत द्वारा निगला जाना, दुसरा स्वप्न सूर्य और चंद्रमा सहित मेरु पर्वत, तीसरा स्वप्न हंसों सहित सरोवर और चौथा स्वप्न चंचल लहरों सहित समुद्र, इस प्रकार चार स्वप्न देखे थे । इन स्वप्नोंका फल महारानी यशस्वतीने अपने पति ऋषभदेवसे पूछा उन्होंने इनका फल चक्रवति और चरम शरीरी पुत्रका गर्भ में आना बताया। (२) महारान भरतका जन्म चत्र कृष्णा नवमी के दिन उत्तरापाढ नक्षत्र में हुना था। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। (३) मरत पहिले चक्रवर्ती और छहों खंडके स्वामी थे। अतएव इनके नामपर ही आर्य लोगोंके रहनेका स्थान भारतवर्ष कहलाया: । (8) मरतका शरीर बहुत ही सुंदर था और वह ५०० धनुष उंचा था। इनमें सब गुण प्रायः भगवान् ऋषभदेव हीके समान थे। (१) छहों खंडोंके मनुष्य, पशु और देवादिकोंमें जितना बल था उससे कई गुना ज्यादह वल चक्रवर्ती भरतकी मुनामें था। (६) भरतको भगवान् ऋषभदेवने स्वयं पटाया था । यो तो भरतको भगवानने सब विधाओं में प्रवीण कर दिया था, पर मुख्यतया इनको नीतिशास्त्रका विद्वान् बन या था। इन्हें नृत्यकला भी सिखलाई थी। (७) भगवान् ऋषभदेव जब तप करनेको उद्यत हुए तब उन्होंने भरतको सम्राट पद देकर राज्याभिषेकका बड़ा भारी उत्सव किया । ( नग्नने, जब भगवान् ऋषभदेव तपके लिये उयत हुए तब भगवानकी आज्ञासे सुवर्ण, रत्न, घोड़ा, हाथी आदिका महादान दिया था। (९) जब भगवान् वृषभने दीक्षा धारण की थी तब महाराज भरतने बड़ी भक्तिके साथ भगवान की पूजा की थी। आन, विमोरा आदि कई वन-फल भक्तिके वश भगवानको चढाये थे। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन इतिहास | जल, चंदन, मक्षत आदि अष्ट द्रव्योंसे भगवान की पूजा की थी। (१०) एक दिन भरत महाराजके धर्माधिकारी (कर्मचारी) ने आकर कामदेवको केवलज्ञान उत्पन्न होने के समाचार कहे और उसी समय राज्यको शस्त्र लाके अधिकारीने शस्त्रशाला में चक्रर की उत्पत्ति समाचार कहे और महारानी के सेवकने पुत्रोत्पत्तिके समाचार कहे । ये तीनों हर्षदायक समाचार एक साथ सुनकर महाराज भरत विचार करने लगे कि पहिले किमका उत्सव मनाना चाहिये । अत में धर्म कार्यको मुख्य समझकर अपने छोटे भाइयों, राज्य कर्मचारियों और मना तथा सेना सहित भगवान् ऋषभदेवके केवलज्ञानकी पूजा के लिये भरत गये और बडे उत्साहसे केवलज्ञानकी पूना की । तथा वहाने लौटकर चक्र'नकी पूजा का फिर पुत्रोत्सव मनाया। इन उत्पा महाराजने बहुत भारी दान दिया। सडकों और गलिय में रत्नोंके ढेर कराकर बाट दिये । 1 ४७ (११) चक्रवर्ती महाराज दिग्विजय करनेको जब उद्यत हुए तब शरद ऋतुका प्रारंभ था । महाराज भरत अपनी सेना सहित दिग्विजय करनेको चले ोंने अपनी सेना चलानेका क्रम इस प्रकार रखा था कि सबसे आगे पैदल सेना, उसके पीछे सवार, उनके पीछे रथ और रथोंके पीछे हाथी । (१९) महाराज भारतकी सेना मार्ग में आये हुए किसानोंक खेतों को जबर्दस्ती नुकसान पहुँचाती थी । १. पूजनके भ्रष्ट द्रव्योंके नाम - जल, वदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग | १८ (१३) सेनाके साथ महाराज भरतकी महारानियाँ भी थीं। (१४) जिन रास्तों से महाराज भरत अपनी सेना सहित जाते थे उन मार्गो में आये हुए गांवोंके अधिपति घी, दूध, मक्खन, दही, फल, और भील मादि जंगली जातियोंके राजा आदि गजमोती, हाथीदांत तथा चमरी गायके बाल और कस्तूरी हिरणकी नामि भेंट करते थे । (१५) अयोध्या से चलकर महाराज भरतकी सेनाने गंगा नदी के किनारे सबसे पहिले डेरा दिये थे । साथके मनुष्योंको ठहरनेके लिये कपड़े के तंबू लगाये गये थे । घोडोंकी घुडशाला | भी कपडे की ही बनाई गई थी। डे के आसगस काटोंकी बाढ़ बनाई गई थी । रास्ते में जिसने राजा महाराजा मिले सबने भरत की आधीनता स्वीकार की । गंगासे चलकर गंगाके किनारे किनारे हीके मार्गसे महाराज भरत पूर्व समुद्र के समीप पहुचे । वहां किनारेपर अपनी सेनाको छोड और सेनापनिको उसकी रक्षाकी माज्ञा दे स्वयं महाराज भरत अतिंजय नामक रथपर सवार हो अस्त्र शस्त्रों सहित समुद्रके भीतर समुद्र के स्वामी सगध नामक देवको वश करनेके लिये चले | भरतके रथके घोड़े जल और स्थल दोनों में जा' सकते थे । समुद्रके भीतर बारह योजन जाकर रथ ठहर गया । वहांसे भरतने वाण छोडा इस वाणका नाम अमोघ था। वाणके साथ महाराजने यह समाचार भी लिखकर भेजे थे कि "मैं . भरत चक्रवर्ती ऋषभदेवका पुत्र हूं । अतएव सत्र व्यंतर देव मेरे भाधीन हों, " यह वाण समुद्रके स्वामी मगध देवकी सेनामें } Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ प्राचीन जैन इतिहास। हलचल करता हुआ मगधके निवास स्थानपर जाकर पड़ा । इसे देख मगध बड़ा क्रोधित हुआ। पर अंतमें मंत्रियों के समझानेपर वह चक्रवर्ती भरतके सामने आया और उनकी नाधीनता स्वीकार कर रत्नोंका एक हार व रत्नों के दो कुंडल महाराजकी मेंट किये । इस प्रकार चक्रवर्तीने पूर्व दिशा विनय की। यहांले दक्षिण दिशा जीतनेको भरत अपनी सेना महिन चले । राम्तेके सत्र रामाओंको वश करते जाते थे। मे राजा अधिक कर लेता था उसे निकालकर दुसरा राजा बनाते और मो अनी. तिसे चलता था उस रानाको ढह देते हुए दक्षिण दिशाके मद्रपर पहने और वहाके स्वामी देवको पूर दिशाक देव समान वश किया । इम देवका नाम वरतन था । इस देवने कवच, हार, चूडारत्न, कडे और रत्नोंका यज्ञायवोत आ'द मेंटमें दिये थे। पुवदिशा और दक्षिण दिश की विनयको नाते हुए भार्गमें अंग, बंगाल, कलिंग, मगव, कुरु, अवन' ‘उजना पचाल. काशी, कोशल, विदर्भ, मद्र, कच्छ, वेदी, वन, लुत्प, पुडू और गौड, दशार्ण कामरूप. काश्मोर, उशीनर, मध्यदेश, चहा, कोरु, कालिद, कालकुट, मल्ल (भीलों का प्रदेश विनिग, औद्र, आंध्र, प्रातर, चेर, पुन्नार, कूट, ओलिक, महिप. ३,मेकुर, पांड्य, अंतर पांड्य, केरल कर्णाकट आदि प्रदेशोंको चक्रवतिको आज्ञासे सेनापतिने वश किया था। दक्षिणको विजयकर चक्रवनि पश्चिम दिशाकी विजय के लिये निकले । पहिले वे सिहलद्वीपको गये १ इन प्रान्तोकी विनय करते समय जो पर्वत और नदियाँ ' मिली थीं उनके नाम ग्याहदवे पाठमें दिये गये हैं। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. प्रथम भाग । ५० और यहाँ विजय प्राप्त की । वहाँसे चलकर रास्ते में विंध्याचल पर डेरा दिये । भरतकी सेना विंध्याचलकी नर्मदा नदीके दोनों ओर ठहरी थी । यहाँ के जंगली राजाओंने भी भग्तकी आधोनता स्वीकारकर मोतियों आदिकी पैंटें दी थीं। रास्ते के मत्र राजा भरतकी आधीनता स्वयं स्वीकार की और लाट देशके राजाओं को भरतने कालाटिक पत्र स्वामीका मनिप्राय समझ उनकी आज्ञानुसार काम कालाटिन कहलाते हैं। मोस्ट देशके राजाओंको वशंकर भरत गिरनार पर्वतपर पहुँचे और यह ममझकर कि इस पर्वतमे आगामी बावीसवें तीर्थकर नोमनाथ मोक्ष जावेगे उपने गिरनारकी प्रदक्षिणा की। इस प्र' पश्चिम दिशाके सत्र जाओंको नीतकर वह पश्चिम समु के किनारे पहुँचे और उप समुद्र स्वामी प्रभा नामक देवको पूर्व दिशामें निम पकार विजय की थी उस प्रकार जता । प्रभाक नामक देव सुवर्णका जाल और मोतियों का जल तथा कलरवृक्षोंके फूलों की माला भेंट में दी । पश्चिम दिशा विजयकर उत्तर दिशाक विजयको भरत चक्रवर्ती चला। रास्तेके सर्व गनाओंको वश करते इसकी सेना जाने लगी और पहुँची । हम पर्वतकी शिखर सफेद था क्योंकि यह पर्वत 1 1 दिया [ जो करते हैं वे हुए सिंधु नदीके किनारे किनारे अंत में विजयाई पर्वत पर जाकर अणियोंकी हैं। और इसका वर्ण चांदीता है । मेरतकी सेना विजयाई पर्वतके बीच में पांचवें वि रके पास जाकर ठहरी । भरतके ठहर जानेपर विजयार्द्ध पर्वतका · १ पती दिग्विजय दिश्यार्द्धपर पहुँच जानेसे आधी हो जाती है। इसलिये इस पवका नाम विजयाने पटा है। ▾ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ प्राचीन जैन इतिहास स्वामी अंतरदेव भरतके पास आया और भरतकी आधीनता स्वीकार की और भरतका अभिषेक किया । तथा रत्न, सफेद छत्र, भृगार, दो चंवर और एक सिंहासन भेंट किया । यहाँ तक भरतने दक्षिण भारतकी विजय की । (१६) अब वे उत्तर भारतकी विजयके लिये तैयार हुए । पहिले उन्होंने चकात्नकी पूजा की फिर कुछ हटकर विनयाद पर्वतकी पश्चिम गुफाके पासवाले वनमें ठहरे । यहाँ पर कई राजाओंने आकर भरतकी सेवा की और अनेक भेंट दीं। यहींपर कुरुदेशके राजा सोमप्रभके जयकुमार व और भी कई राना भरतकी सेना में आकर मिले थे । यहींपर विजयार्द्धकी एक शिखरपर रहनेवाला कृतमाल नामक देवने भरतकी पावनता स्वीकार की और विजयार्द्धकी पश्चिम गुफाका मार्ग चतलाया जिमका हार सोकनेके लिये भरतने अपने सेनापतिको भेजा । सेनापतिको गुफा का द्वार " चक्रवतीकी जय " इन शब्दोंको बोलकर दंडरत्न से खोला और पश्चिम म्लेच्छ खडकी विजयके लिये चला। इसे देखकर म्लेच्छ खंडके राजा डरे और कई सन्मुख आकर आधीन हुए । डरे हुए राजाओं को समझाकर तथा विद्रोहियोंको वशकर सबसे भेंट व चक्रवर्ती के लिये कन्याएं लीं । और म्लेच्छ राजामोंके साथ वापिस लोटा । ऊपर जिस गुफाके बारेमें कहा गया है गुफाके खोलनेसे इतनी गर्मी निकली कि वह छह माहमें शां हुई थी । वापिस जाकर म्लेच्छ रामामोंसे चक्रवर्तीका परिचय फराया | इस गुफाका नाम तमिस्रा है। इसकी ऊँचाई माठ योजन और चौड़ाई बारह योजनकी है। इसके किवाड़ वत्रमण Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • मयम भाग हैं जिन्हें सिवा चक्रवर्तक सेनापतिके दूसरा नहीं खोल सकता । इस गुफाके खुल जानेपर चक्रवती उसमें नानेको तैयार हुमा, पर उसमें अधकार बहुत था अतएव चक्रवर्तीकी आज्ञासे पुरोहितके साथ सेनापतिने कॉकिणी और चूडामणि नामक रत्नोसे गुफाकी दोनों दीवालोंपर सूर्य और चंद्रके चित्र बनाये जिनसे प्रकाश हुआ। सूर्यके चित्रसे दिनके समान और चंद्रके चित्रसे बांदनीके समान प्रकाश होने लगा। फिर दो भागोंमें विभाजित होकर चक्रवतीकी सेना चक्रवर्ती सहित उस गुफामें चलने लगी। गुफामे सिंधु नदी बहती है अतएव सेना सिंधु नदीके दोनों किनारोंपर चलती थी। जब माधी गुफा तय हो चुकी तब चक्रवर्णने अपनी सेना ठहरा दी ! यहीपर गुफाकी दोनों दिवालोंमे दो नदियां और निकली हैं जिनका नाम निमन जला और उन्मन नला है। दोनों नदियों का स्वभाव एक दूम से विरुद्ध है। अर्थात निमनमला नदी तो प्रत्येक वस्तुओंको अपने तहमें लेनानी है और उन्नन्ननला वन्तुओंको पर ला फेंकती है। ये दोनों नदियों सिंधु नदीमें माकर मिल गई है। यहीं पर भरतने अपने डेरा दिये । और इनको पार करने के लिये अपने सिलावट रत्नको पुलं बनानेकी 'आज्ञा दी। उसने देवों के द्वारा वनोंसे लडकीके लट्टे मंगाकर उनके सो नदियों में खड़े किये और पुल बनाया, जिस परसे चक्रवतीकी सेना पार हुई। और कई दिनोंमे उस गुफाको पारकर बाहिर निकली । सेनापतिने पहिले गुफाकी दक्षिण ओरका (इस पारका) पश्चिम म्लेंच्छ खड जीता था। मरतने तरकी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ प्राचीन जैन इतिहास । ओरका पश्चिम म्लेच्छ खंड जीता और मध्यम खंड जीतनेको चले । इस खंड के कई राजा को वश किया; परन्तु चिलात और आव नामके गज़ा युद्ध करनेको तैयार हुए। इन दोनों मंत्रियोंने चक्रवनिकी मामर्थ्यका वणन सुनाकर युद्ध करनेसे रोश सव.इन दोनोंने अपने कुल देव मेघमुख और नागमुखकी आगधना की इन दोनों देवोंने मेक्का रूप धारण किया और वायु चलाई तथा मेघमुखने पानीको वर्षा इतनी अधिक की कि भरत की सेना उममें डूबने लगी । परन्तु तो मी भरतके तंबूमें नाका कुछ भी असर न हुआ । भरतमें इस समय अपनी सेनाकी रक्षाके लिये नीचे चर्मरत्न विछाया और ऊपर छत्ररत्न लगाया। ये दोनों रत्न चारद योजनके थे। इन रत्नोका अंडाकार सबू बन गया था जिसमें चक्रानका प्रकाश होता था। इसीके भीतर सेना सात दिन तक रही थी। इसके भीतर सेन पति और बाहिर जयकुमार रक्षा करते थे। इम उपद्रवमे बचानेके लिये सिलावट रत्नने कपडे के अनेक तबू व घासकी झोपड़ियां तथा आकाशगामी स्थ बनाये थे। चक्रानिकी आज्ञासे गणपड जाति के व्यतर देवाने नागसुखको हटाया और जयकुमारने दिव्य शस्त्रोंसे उन नागमुख और मेघ पुखको मीता { अंतमें वे दोनों म्लेच्छ राजा चक्रवर्तित वश हुए : यहांसे चलकर भात, सिंधु नदीके किनारे किनारे जहांसे सिंधु नदी निकली है उस हिमवान् पर्वतके सिंधु दहके पास पहुंचा यहांपर सिंधु देवीने भरवका अभिषेक किया और भन्दापन नामक सिंहासन दिया। यहांसे चलकर हिमवान् पर्वतके किनारोंको जीतते हुए हिमवान् पर्वतके हिमवान् शिखरपर पहुंदे। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयम भाग वहां भरतने अपने दिव्यास्त्रों की पूजा की और उपवास किया और पवित्र डामकी शय्यापर सोये । फिर अपना अमोघ नामक चाण हिमवान् शिखरपर छोड़ा वह वाण इस शिखरके अधिष्ठाता देवके रहनेकी जगहपर गिरा इससे देवने चक्रवर्तिका माना समझ वह भक्ति के साथ भक्ति के साथ मरतके पास आया और आधीनता - स्वीकार कर भरतका अभिषेक किया । तथा हरिचंदन नामक चंदन भरतकी मेंटमें दिया । यहांसे मरत वृपभाचल नामक पतिको देखने के लिये लोटे। यह पर्वत सौ योजन ऊंचा है। और तलहटीमें सौ योजन नथा ऊपर पचास योनन चोड़ा है । इस पर्वतके किनारेकी शिलाकी दिवालपर चक्रवर्ति अपना नाम लिखनेको तैयार हुमा क्योंकि चक्रवर्तिकी दिग्विजय समाप्त हो चुकी थी। जब वह कांकिणी रलसे नाम लिखने लगा तब उसने देखा कि. वहांपर इतने चक्रवर्तियों के नाम लिखे हुए हैं कि उसे अपना नाम लिखनेकी जगह ही नहीं है । तब यह सोचकर कि मेरे समान' इस अनादि पृथ्वीपर असंख्य चक्रवर्ती हो गये हैं भरतका अमि. मान खंडित हुवा । फिर उसने किसी एक चक्रवर्तीका नाम मिटा कर उसके स्थानपर अपने नामकी प्रशस्ति इस मांति लिखी" स्वस्तिश्री इत्वाकु कुलरूपी माकाशमें चंद्रमाके समान उद्योत करनेवाला चारों दिशाओंकी पृथ्वीका स्वामी मैं भरत हूं। मैं अपनी माताके सौ पुत्रोंमें ज्येष्ट पुत्र हूं। राज्वल मीका स्वामी इं। मैंने समस्त देव, विद्याधर और राजामोंको वश किया है । मैं वृषभदेवका पुत्र, सोलहवां कुलकर, मान्य, शूरवीर और चक्रवतियोंमें मुख्य प्रथम चक्रवर्ती हूं। जिसकी सेनामें अठारह करोड Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ प्राचीन जनै शतहास। घोड़े और चौरासी लाख हाथी हैं। जिसने समस्त पृथ्वी वश की है। जो नाभिरामाका पौत्र ऋषभदेषका पुत्र और छहों खंडोंकी एथ्वीका पालक है ऐसे उक्त भरत द्वारा इस पर्वतपर जगतमें फैलनेवाली कीर्ति स्थापन की गई । इस प्रकारको प्रशस्ति भरतने उस शिलापर लिखी । इस प्रशस्तिपर देवोंने फूलों की वर्षा की थी। फिर भरत हिमवान के उस स्थानपर पहुंचे महासे गंगा नदी निकली है । वहापर गंगा नदीकी स्वामिनी गगादेवीने भरतका अभिषेक किया और एक सिंहासन मेंटमें दिया। यहांसे चलकर.. भरत फिर विजयाई पर्वतकी तलहटीमें भाकर ठहरा और पश्चिमकी गुफाके समान विजयाडकी पूर्व गुफाको खोलनेकी तथा पूर्व दिशाके म्लेच्छ खेडको नीतनेकी सेनापतिको माज्ञा दी तबतक चंक्रवर्ति, विनयाईकी तलहटीमें ही ठहरा था। यहींपर विजयाई, पर्वतपर दक्षिण और उत्तरमें रहनेवाले विद्याधरोंने भाकर भरतकी आधीनता स्वीकार की और अनेक प्रकारकी मेटें दी। तथा विद्या. धरों के अधिपति नमि, विनमि नामक विद्याधरोंने अपनी बहिन सुभद्रा के साथ महाराज मरतका विवाह किया। भरतने अपने. सेनापतिको निस गुफाके खोलेनेकी आज्ञा दी थी उसका नाम कांडकप्रपात था। उस गुफाको खोलकर तथा पूर्व खंडके म्लेच्छोंको जीत कर छह मासमें सेनापति भी लोट माया । अव चक्रवर्ती उत्तर भरत खडसे दक्षिण भारतकी ओर उक्त कांडाप्रपात गुफाके मागद्वारा सेना सहित चले । गुफाका मागं तय हो जानेपर गुफाके दक्षिण द्वारपर आये । यहां गुफाके रक्षक नाट्यपाल नामक देवने भरतकी माधीनता स्वीकार की व पूना की। यहींपर भरतकी उत्तर Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। भरतखंडकी विनय समाप्त हुई और इसीके साथ साथ भरतकी दिग्विजय भी समाप्त हुई। (१७) दिग्विजयमें भरतको साठ हजार वर्ष लगे थे। (१८) दिग्विजयमे लौटकर भरत कैलाश पर्वतपर गया और वहाँ भगवान् ऋषभदेवकी स्तुति व पूजा की तथा धर्मका उपदेश सुना। ' (१९ कैलाशमे चलकर मरन अपनी राजधानी अयोध्या भाकर जब नगर प्रवेश करने लगे तब चक्रवतीका चक्ररल नगर पारि ही रह गया। इस पर मातको आश्चर्य हुआ और अपने पुरोहितसे इसका कारण पूछा । पुरोहितने कहा-यद्यपि आप निग्विजय कर चुके हैं तो भी कुछ राजाओंको वश करना बाकी है। और वे राजा मापके छोटे भाई हैं। इसपर भरतने अपने भाइयोंपर क्रोध किया परंतु पुरोहितके समझानेसे कुछ शांत हुए । और दूनों को अपने भाइयों के पास भेजकर भायीन होने के समाचार कहलाये । परंतु छोटे भाइयोंने भाधीनता स्वीकार न को स्ति भगवान् ऋपमदेवके पाम आनर कहा कि हम आपकी दी हुई प्रवीका उपभोग करते हैं तो भी भरत हमें अपने आधीन करना चाइता है । हम भरतकी हम आज्ञाको स्वीकार नहीं कर सक्ने । भगवान नपमने उन्हें धर्मोपदेश देकर समझाया कि वह चक्र है, यदि तुम राना हो रहोगे तो तुम्हें उस वश होना ही पड़ेगा । यदि अभिमान रखना चाहते हो तो मुनि पनो इसपर मन्तरे मन छोटे माइयोंने दीमा धारण की । केवल बाहुपनीने न तो दीक्षा ली और न मरत की नाना ही स्वीकार Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ प्राचीन जैन इतिहास । की। उक्त दीक्षित छोटे माइयोंके राज्य भरतके आधीन हुए। और बाहुबली स्वतंत्र रहे। (२०) दूतको भेजकर भरतने बाहुबलीको समझाया । परंतु वाहुबली नहीं माने, अतमें दोनों का युद्ध निश्चय हुआ। और दोनों ओरकी सेना युद्ध के लिये तैयार हुई। (११) अब दोनों ओरसे युद्धका निश्चय हो गया और युद्ध होनेका प्रारभ ममय विलकुल पास आगया तब दोनों ओरके मत्रियोंने विचार किया कि भरत और बाहुबली दोनों चरमशरीरीइसी शरीरसे मोक्ष जानेवाले हैं अतएव इन दोनोंकी तो कुछ हानि नहीं होगी किंतु सेना निरर्थक कटेगी, यह विचारकर मत्रियोंने निश्चय किया कि सेनाका पस्पर युद्ध न कराकर इन दोनोंका-भरत और बाहुबलीका-ही युद्ध कराया जाय और अपना यह निश्चय दोनों राजाओंसे स्वीकार कराया। (२२) मंत्रियोंने दोनों राजाओंके तीन युद्ध निश्रय कियेदृष्टियुद्ध १, जलयुद्ध २ और मल्लयुद्ध ३ (२३) इन तीनों युद्धोंमें बाहुबलीने भरत चक्रवर्तिको हराया । और मल्लयुद्ध में बाहुबलीने भरतको नीचे न पटककर कंधेपर बिठला लिया। (२४, भरतके इस प्रकार हारनेसे उसे क्रोध हुआ और उस क्रोधके करंण उमने बाहुबली पर चक्र चलाया। परन्तु चक्ररत्न' चकवतिके कुलका नाश नहीं करता इसलिये चक्रने बाहुबलीकी प्रदक्षिणा दी और बाहुबली के समीप भाकर ठहर गया। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। .. १८ । (२५) अपने कुल-घात करनेका भरतका प्रयत्न देख सबने भरतकी निंदा की और बाहुबलिने भरतको कंधेपरसे उतारकर यह कहते हुए कि, आप बड़े बलवान् हैं, उच्चासनपर बिठाया । (२६) भरतका इस प्रकार लज्जाजनक निंध कत्य देखकर बाहुवली संसारकी अनित्यता विचारने लगे और अंतमें उन्होंने भरतको कहा कि अब मैं इस पृथ्वीको नहीं चाहता, इसे तुम ही रखो, मैं तप करूँगा। (२७) क्रोध शांत होनेपर भरतको अपने इस कुलनाशक' कार्यका बड़ा पश्चात्ताप हुआ । और वे अपनी निदा करने लगे। __(२८) वाहुबलीके दीक्षा ले लेनेपर भग्तने राजधानीमें प्रवेश किया । यहॉपर सव देवों और राजा महारानामों द्वारा भरतका राज्याभिषेक किया गया । इस समय भरतने बडा मारी दान किया था। (१९) भरत चकरीकी संपत्ति इस भौति थी (१) चौरासी लारू हाथी - (२) चौरासी लाख स्थ (१) अठान्ह करोड़ घोड़े (४) चौरासी करोड पैदल सेना (९) छहों खड पृथ्वीका राज्य (६) एक करोड़ चावल पकानेके हंडे (७) एक लाख करोड़ हल (८) तीन करोड़ गोगालाये। (९) काल १ महाकाल २ नैस्सम ३ पांडक ४ पद्म ५ माणव : पिगल ७ शंख ८ सर्वरत्न ९ ये नो निधिया थी (१०) चक्र १ छन : दड ६ खड्ग ४ मणि ५ चौ ६ काकिणी ७ ये सात निर्जीव रत्न चक्रवर्तिक यहां उत्पन्न हुए थे। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ - प्राचीन जैन इतिहास | - (३०) मरत चक्रवर्तिका शरीर समचतुरस्त्रसंस्थान था अर्थात् उनके सर्व आंगोपांग यथायोग्य थे । (३१) भरत वजवृषभनाराच संहननके धारण करनेवाले थे अर्थात् उनका शरीर वज्रमय, अमेध था । (३-२) भरतके शरीर में चौंसठ शुभ लक्षण थे । (३३) भरतकी आज्ञामें बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा और . बत्तीस हजार ही देश थे । तथा अठारह हजार भार्यखंडके म्लेच्छ राजा आज्ञामें थे । 1 (३४) भरतकी छयानवे हजार रानियां थीं जिनमें बत्तीस हजार उच्च कुल जातिके मनुष्योंकी कन्याएँ थीं, नत्चीस हजार म्लेच्छोंकी कन्याएँ थीं। और बत्तीस हजार विद्याधरोंकी I L कन्याए थीं । (११) भरतका शरीर वैक्रियिक था अर्थात् वे अपने ही समान अपनी कई मूर्तियां बना लेते थे । (३६) भरतकी मुख्य रानीका नाम सुभद्रा था । (१७) महारानी सुभद्रामें इतना बल था कि वह रत्नोंको चुटकीसे चूर्ण करडालती थी और उनसे चौक पूरती थी । (३८) भरतके राज्य में बत्तीस हजार नाटक, बहत्तर हजार नगर, छयानवे करोड़ गॉव, निन्यानवे हजार द्रोणमुख ( बंदर ), अड़तालीस हजार पत्तन, सोलह हजार खेट और छप्पन अंतद्वीप थे । जहाँ के निवासी कुभोगभूमिया थे और चौदह हमार संवाह ( पर्वतों पर बसनेवाले शहर ) थे । रत्नोंके व्यापारके स्थान सातसो थे । मट्टाईस हजार बन थे । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग | " (१९) सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, सिलावट और पुरोहित ये सात सजीव रत्न थे । ' (३०) भरतकी निधियों और रत्नोंको रक्षार्थ गणबद्ध जातिके सोलह हजार व्यंतर देव थे । ४१) चक्रवर्ती के महलके कोटका नाम क्षिविप्तार था और राजधार्न के बड़े दरवाजेका नाम पर्वतोभद्र था। महलका नाम वैजयं. त, डेरे खड़े करनेके स्थानका नाम नंद्यावर्त, दिकस्वामी नामकी समाभूमि और सुविधि नामक मणिर्याकी छड़ी थी । नृत्यशालाका नाम बर्द्धमान, भंडार का नाम कुबेरांत था और धर्मान्त ( जहां गर्मी में पानी वरमा करता था ) तथा वर्षा ऋतु रहने · योग्य ग्रहकृटक नामक राजभवन थे । चक्रवर्तिके स्नानघर का नाम जीसृन, कोठारचा नाम वसुधारक था । चक्रवर्तिकी मालाका नाम अवतसिका, देवरभ्य नामक कपडेका तंत्र सिंहवाहिनी नामक शय्या और सिहासनका अनुत्तर नाम था । चक्रवर्तीके चमरोंका अनुपमान छत्र का नाम सूर्यप्रभ था । भारतकी अन्य सामग्रीक नाम इस मकर थे । 1 (१) कुंडल - विद्युत्प्रभ (२) खडाऊं - विषमोचिका ] (१) कवच - अभेद्य ४ ) रथ - अजितजय ( ९ ) धनुष - चक्रका (३) वाण मोध - (9) शक्ति-कुंडा ८) माला - महाटक ( ९ ) छुरी - लोहवाहिनी (१०) मनोवेग नामक कणव ( शस्त्र विशेष ) - (११, तरवार - सौनंद (१२, खेट (हथियार) - भूतमुख ( ११ ) चक्ररत्न - सुदर्शन (१४) दंडरत्न- चंड़वेग (१९) चर्मरत्न - वत्रमय Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.१. प्राचीन जैन इतिहास (११) चितामणी रत्न- चूड़ामणि (१७) काकिणी रत्न-चिंता जननी । (४२) भरतके सेनापतिका नाम अयोध्य, पुरोहितका नाम बुद्धिसागर, गृहपतिरत्नका नाम कामवृष्टि, सिलावट रत्नका नाम मद्रमुख, हाथीका नाम विजयपवत, घोड़ेका नाम पवनंजय था । (४३) चक्रवर्ति के वादित्रों में प्रसिद्ध प्रसिद्ध वाजे इस भँति थे । (१) आनंदिनी नामकी बारह भेरिया (२) विजयघोष नामके वारह नगाडे ( ६ गंभीरावर्त नामके चौवीस शख (४४) चक्रवर्तीकी अड़तालीस करोड़ ध्वजायें थीं । (११) चक्रवर्ति महाकल्याण नामक दिव्य भोजन करते थे। कोई न पचा सके ऐसे अमृतगर्भ नामक पदार्थका वे भक्षण करते थे । उनके स्वाद करने योग्य अमृतकल्प नामक पदार्थ थे और पोनेकी चीमोंका नाम अमृत था । (४६) भरतने अपनी लक्ष्मीका दान करनेके लिये ब्राह्मण वर्णत्री स्थापना की । अर्थात् उस समय जो व्रती श्रावक थे जिनके चित्त कोमल, धर्मरूप, और दयायुक्त थे उनका एक न्यारा ही वर्ण बनाया और उस वर्णका नाम ब्राह्मण रखा । ऐसे पुरुयोंकी परीक्षा भरतने इस प्रकार की थी कि अपने राजमहलके घोकमें दूब वगैरह घास बोदी और अपने आधीन के राज्य महाराजाओको अपने सदाचारी इष्ट, मित्र, सेवक व कर्मचारियों सहित बुलाया । इनमें से जिन लोगोंने उस दूब वगेरह वनस्पतिके उपबसे, जाना, स्वीकार नहीं किया उन लोगोंको ब्राह्मण बनाया, उनका T 1 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग।। . ६४ (८) मूर्तीको नाचते हुए देखना सुचित करता है कि अगाड़ी व्यंतरोंको ही लोग देव-श्वर मानेंगे। (९) सरोवरको किनारे किनारे अच्छी तरह जलसे मरे हुए और बीचमें सूखे हुए देखनेका फल यह है कि धर्म नीच देशोंमें रहेगा। (१०) रत्नोंकी राशिओ धूलसे भरा हुआ देखनेका फल यह है कि पंचम कालमें कई शुक्लध्यानी न होगा। (११) श्वानकी पूजा तथा द्वारा पूनाका नैवेद्य भक्षण होते हुए देखनेश फल यह है कि गुणवान् पात्रके समान अवती आवकोश सत्कार होगा। (१२) शब्द झाते हुए तरुण वृषमा देखना बतलाता है कि पचमकालमें जवान मनुष्य ही मुनिव्रत स्वीकार करेंगे, वृद्ध पुरुष नहीं। (१३) चंद्रमाको सफेद परिषडलयुक्त देखनेका फल यह है कि साधुओंको मनापययज्ञान व अवधिज्ञान न होगा। (१४) दो बेलाको साथ साथ जाते देखनेका 'फल यह है कि साधु पंचम कालमें एकाकी नहीं रहगे । (१५) सूर्यका आच्छादित देखना बतलाता है कि पचम कालमें केवलज्ञान नहीं होगा। - (१६) सूखे वृक्ष देखनेका फल यह है कि पंचम काल में मनुप्य प्रायः दुराचारी होंगे। (१७) सुखे पत्ते के देखने का फल यह है कि पंचम कालमें औषधिया रस रहित हो जावेगी। . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन 'जन इतिहांस ! ६५ (४८) भरत बड़े धर्मात्मा भव्य और तपस्वी थे । भरतके इन गुणोंके संबंध में नीचे 'लिखी घटनाएँ प्रसिद्ध हैं । (१) भरतने अपने महल व नगर के द्वारोंपर सुवर्ण और रत्नोंकी छोटो २ घटियाँ लगवाई थीं और बडे २ घंटे लगवाये थे । इनपर भगवान्की मूर्ति खोदी गई थी। इनके लगाने का कारण यह था कि जब इन घटयोंका स्पर्श महाराज भरतके मुकुटसे होता, त्यों ही भरतको भगवान्के चरणोंका ध्यान आ जाता था । (२) भरते जब सामायिक करते थे तब ध्यान के कारण उनका शरीर इतना क्षीण हो जाता था कि उनके कड़े हाथों में से अपने आप निकल पड़ने थे । (३) एक किमने आकर भरतसे पूछा कि महाराज मैंने सुना हैं कि आप राज्य करते हुए भी बडे भागे धर्मात्मा और साधुओंके समान तपस्वी हैं मो ये दो विरोध गर्य राज्य करना और तप करना आप कैसे करते होंगे ? तर भरतने उसके हाथ तेलका कटोरा देकर अपने कटकको देखनेके लिये भेजा व आज्ञा दी की यदि एक भी बूंद तेल गिरेगा तो फॅ'सीकी सजा दी जावेगी । इधर अपने कटक चक्रवर्तीने अनेक प्रकार नाटक कराये। परंतु वह किसान कटककी ओर बिलकुल नहीं देखता था उसका ध्यान सिर्फ नेकके कटोरे की ओर था। जब वह किसान घूम कर भरतके समीप भाया तब भरवने पूछा कि तुमने मेरे कटकमें क्या देखा तब वह १, २, इन कथाओंका घर्णन आदिपुराण में नहीं है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग पाठ आठवाँ। युवगज बाहुबली (प्रथम कामदेव) (१) भगवान ऋषभदेवके दूसरे पुत्र बाहुबलीका जन्म महारानी सुनदाके गभसे हुआ था। (२) बाहबली सबसे पहिले कामदेव थे । इमलिए इनका स्वरूप इतना सुदर था कि इनके समान उस समय कोई भी मनुष्य सुदर न था। (३ बाहुबली चरम-शरीरी थे अर्थात् इसी भवसे मोक्ष जानेवाले थे (१) भगवान ऋषभदेव नव तप करनेको उद्यत हुए तक बाहुबल'को भरत चक्रवर्तीक युवराज पद दिया था और अभिषेक किया था। (1) वाहुबलीका रंग हरा था । (६) भरत जब दिग्विजय करके वापिस लौटे तब पोदनापुर दिक्षिण प्रांत के राजा बाहुबली ही पृथ्वीपर ऐसे राजा रह गये थे कि जिन्होंने मन्तवी माज्ञा स्वीकार नहीं की थी। . (७) भरतकी आधीनता म्बीकार न करने के कारण बाहुबलीको मरतसे युद्ध करनेको तैयार होना पड़ा और दोनोंने अपनी सेना तैयार की परतु दोनों ओरके मंत्रियोंके निश्चयसे सेना द्वारा युद्ध बंद कर दिया गया था। किंतु दोनोंका परस्पर युद्ध होना निश्चय हुआ। (८) बाहुबली और भरतके आपसमें तीन प्रकारके युद्ध हुए:- जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और वाहूयुद्ध। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ प्राचीन जैन इतिहाम। (९) तीनोंहीमें बाहुबलीकी जय हुई । परंतु मल युद्ध, बाहुबलीने भरतको बड़ा भाई समझ जमीन पर नहीं पटका किंतु कंधे पर बैठाया । इसपर क्रोधित होकर मरतने बाहुवीपर चक्र चलाया । परंतु चक्रने भी बाहुबलीकी प्रदक्षिणा दी और बाहुबलोके पास आकर ठहर गया। (१०) अपने बड़े भाई द्वारा भाश्ना घात करनेका प्रयत्न देख बाहुबलीको वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने भरतको यह कहकर कि 'भाप ही इस विनाशीक पृथ्वीके स्वामी वनें दीक्षा धारण की और अपना राज्य अपने पुत्र महाबलको दिण। (११) बाहुबलीने वड़ा भारी तप किया था। उनके तपके संबंधौ पूर्वके ग्रंथकार लिखते हैं कि "बाहुबलीने प्रतिमा योग (एक वर्षतक एक ही जगह खड़े रहना) धारण किया था। इनके मास-पास वृक्ष व लतायें उगी थी | सोने अपनी वामी चनाई थीं । अनेक सर्प इनके पास फिरा करते थे। बावीमों प्रकारकी परीपहोंगे इन्होंने अच्छी तरह सहा था । अनेक ऋडिया इनके शरीरमें उत्पन्न हो गई थीं । बाहुगली महाउस, दोप्त, तप्त घोर मादि कई प्रकारके तप किये थे। इनके तपके प्रभावसे मिल बनमें ये थे उस वनके सिंहादि विरोधी नीयों ने भी विरोध -मात्र छडार मापसमें मैत्रीभाव धारण किया था। (१२) निस दिन बाहुबलिका एक वर्षका अवाम पूर्ण हुआ उमी दिन भरतने पाकर पूना की थी मात की . पुना करने के पहिले बाहुबली के हृदयमें एक सून रागभावकी शंका थी कि मेरे द्वारा मरतको युद्ध कट पहुंचा है। यही रागमा काम Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयम भाग। उत्पन्न होने में बाधा डाल रहा था सो भरतकी पूजा करनेसे बाहुवलीका वह भाव नाशको प्राप्त हो गया और बाहुवेलीको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। (१३) केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भरतने फिर केवलज्ञानकी महा पूजा की और इंद्रोने व देवोंने भाकर भी पूजा की। (१४) केवलज्ञान युक्त होनेपर भगवान् वाहुदलीने पृथ्वीपर विहार किया और प्राणियोंको उपदेश दिया। (१५) विहार करके अंतमें भगवान बाहुबली कैलाश पर्वतपर विराजमान हुए और वहींसे मोक्ष गये । पाठ नौवा। महाराज जयकुमार और महारानी सुलोचना ! १) महाराज जयकुमार कुरुवंशके राजा सोमप्रभ (इम्तिनागपुरके नरेश के पुत्र, थे। जयकुमारकी माताका नाम लक्ष्मीवती था। (२) जर महारान सोमप्रमने अपने छोटे भाई श्रेयांसक साथ दीक्षा धारण की तब जयकुमारको राज्य देकर इनका राज्यां. भिषेक किया। (6) महाराज सोमप्रभ महामंडलम्वर थे। इसीलिये इनके पुत्र जयकुमार भी महामंडलेश्वर हुए। (४, जयकुमारके चौदह छोटे भाई और। (१) एक दिन जयकुमार पनमें शीलगुप्त नामक मुनिरानके पास धर्म श्रवण करने गये थे। इनके साथ उस वनमें रह Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ प्राचीन जैन इतिहास नेवाली नाग नागिनीने भी धर्म श्रवण किया। कुछ दिनों बाद वह नाग मरकर नागकुमार जातिका देव हुआ। और नागिनी काकोदर नामक विजातीय सर्प के साथ रहने लगी । महाराज जयकुमार जब दुवारा उस वनमें गये और नागिनीको उस विजातीय सके साथ देखा तब उसे व्यभिचारीणी समझ इनको क्रोध हुआ और अपने हाथके कमल पुप्प द्वारा उसका तिरस्कार किया। वे दोनों बहाँसे भागकर जब वस्ती में आये तो दुष्ट मनुष्योंने उन दोनोंको मार डाला । वे दोनों मरकर नागिनी तो अपने पूर्व स्वामी जो नागकुमार जातिका देव हुआ था उसकी स्त्री हुई और सर्प गंगा नदीमें कालो नामक जलदेवी हुआ | नागकुमारकी स्त्री (पूर्वभवकी सर्पिणी) ने अपने पतिसे जयकुमार द्वारा तिरस्कार किये जाने और फिर नगरवासियों द्वारा मारे जाने के समा-' चार कहे, इसपर वह क्रोधित होकर रात्रिके समय जयकुमारको मारने आया | इधर जयकुमार भी अपनी रानी श्रीमत' से उस व्यभिचारिणी नागिनकी बात कह रहा था। सो उस देवने सुनकर मारने का विचार बदल दिया और जयकुमारसे अपनें कपटकी बात कह जयकुमारी प्रशंसा करने लगा और कह गया कि उचित समय पर आप सुझे याद करना । (६) जयकुमारने जब खुना कि भारतकी विजयको जाते हैं तव ये भरतकी सेना में आकर शामिल हुए और चक्रवर्तीक साथ उत्तर भारतकी विजयको गये । (७) उत्तर भारतकी विजय करते हुए मध्यम खंडमें जब चिलात और आवर्त नामक दो म्लेच्छ राजा भरतसे लड़नेको Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। उद्यत हुए और उन्होंने अपने कुलदेव नागमुख व मेघमुख द्वारा भरतकी सेना में जल वर्षा कर उपद्रव किया तब सेनाके तंबकी आहिरसे जयकुमाग्ने रक्षा की थी और फिर दिव्यास्त्रोद्वारा इन दोनों देवोंको जीता था | इसपर प्रसन्न होकर चक्रवतीने इन्हें मेघेश्वरका उपनाम दिया तथा मुख्य शूरवीरके स्थानपर नियुक्त किया। (८) काशीनरेश महाराज अकंपनने जा अपनी पुत्री सुलोचनाका स्वयंवर किया तब जयकुमार मी गये थे व अन्य कई विद्याधर तथा राजकुमार माये थे। महारान भरतके ज्येष्ठ पुत्र भकीर्ति भी उस स्वयवरमें आये थे । परन्तु सुलोचनाने जयकुमारको ही वरमाला पहिनाई थी। इस युगमें यही पहिला स्वयंवर हुआ और यहींसे स्वयंवरकी रीति शुरू हुई। । (९) सुलोचना मुदरी, स्वरूपवती, शीलवती और विदुषी सी थी। (१०) सुलोचनाका भयकुमारको वरमाला पहिनाना महाराम अरतके ज्येष्ठ पुत्र अनीतिको वडा खटका और वह दुर्मर्षण नामक दुष्ट पुरुषो उमकानेसे जकुमारसे लड़नेको उद्यत हुआ। जयकुमारन भी यह कहकर समझाया कि माप हमारे स्वामी महाराज मरतके पुत्र हैं, आपको अन्याय मार्गसे लड़ना उचित नहीं है अब सुलाचनाने स्वयं ही मुझे वरमाला पहनाई है तब पारस क्रोधित होना अन्याय है। इसी प्रकार अनवद्यमति नाम अकि मंत्रीने भी बहुत समझाया पर यह नहीं माना। चावार होत नयकुमारने युद्ध किया । इस युग; भायखडका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ प्राचीन जैन इतिहास । सबसे पहिला युद्ध यही हुआ । इसमें जयकुमारकी जय हुई, और उसने अर्ककीर्ति व उसके साथ विद्याधरों और राजाओं को बांधकर सुलोचनाके पिता अकंपनके पास मेन दिया जिन्होंने उन्हें छोड़ा व अकीर्तिको शांत करनेके लिये अपनी छोटी बहिन अक्षमाला उसे दी। W (११) जबतक युद्ध पूर्ण नहीं हुआ सती सुलोचनाने आहारका त्यान किया और भगवान की मूर्ति के सम्मुख खड़ी रहकर ध्यान दिया । 4 (११) युद्ध पूर्ण हो जाने पर जय जयकुमार, सुलोचन के सहित भकंपन महाराजके घर से अपने घरको नाने लगे तच राम्ते में ठहर कर जयकुमार, महाराज भरतसे मिलने गये । जयकुमारके मनमें शंका थी कि शायद अककीर्तिसे युद्ध करनेके कारण चक्रवर्ती नाराज होंगे पर भग्तने जयकुमारका बहुत आदरसकार किया । (१४) चक्रवर्तीसे मिलकर जय जयकुमार आये तत्र गंगा नदीमें उस काली देवीने जो जयकुमारके कमरले तिर कर किये गये पपका जीव था जयकुमारके हाथी के पाँचोंको पकड़ लिया और बहाने लगी पर जयकुमार और सुलोचनाके भगवानका ध्यान करनेसे गंगा देवीने आकर उस ममय जयकुमारको बचाया | (१५) जयकुमार ने कई वर्षों तक राज्य किया और महारानी सुलोचनाके साथ सांसारिक सुख भोगे । एक दिन महलपर ठे हुए चारों ओर देख रहे थे हसी समय किसी विद्याधरका विमान आकाशमें देखकर दोनोंको जातिस्मरण नामक ज्ञान उत्पन ~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । ७६ वंशका स्थापक और दीक्षा लेनेके बाद भगवान् ऋषभका गणधर हुआ, अंतमें मोक्ष गया 1 (१) हरि - हरिवंशका स्थापक, महा मंडलेश्वर राजा हुआ । (i) अकपन - नाथ वंशका स्थापक, सुलोचनाका पिता, सबसे पहिले स्वयंवरकी पद्धतिको चलानेवाला, काश का नरेश था दीक्षा लेकर मोक्ष गया । इसे मरत पिताके समान मानते थे । (६) काश्यप - उग्र वशका स्थापक, महा मंडलेश्वर राजा था। इसका उपनाम मघवा था । (७) कच्छ- महाकच्छ-इन दोनोंको भगवान् ऋषमने अधिगन बनाया था । ये दोनो भगवान्के स्वसुर थे। दीक्षा लेने पर ये दोनो भगवान् गणधर हुए। पहिले ये तपसे भ्रष्ट हो गये थे। पर पीछे फिर तप धारण याथा । (८) मरीच - भगवान का पौत्र सांख्य मतका प्रवर्तक | 1 (९) नमि, विनमि ये दोनो भगवान ऋषभदेवके रिलेदार थे । भगवानूने अपने कुटुबियों मेगज्य वितरण कर जब तप धारण किया तब ये भगवान्ये राज्य मांगने आये । भगवान् मौन धारण कर तर कर रहे थे। इन्होने बहुत प्रार्थनायें कीं फिर धरणेदने आकर इन्हे विन्या पर्वतके विद्याधरोंको दक्षिण और उत्तर श्रेणीका राजा बनाय | पहले ये भूमिगौवरी थे परंतु घणेन्द्रने कई विद्या ने कर इन्हे विद्याधर वनाया था। फिर गणवर हुए और मोक्ष गये ! Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ . प्राचीन जैन इतिहास । (१०) श्रेयांस-हस्तिनागपुर के महा मडलेश्वर राजा सोमप्रमके भाई कुरूवशी थे । भगवानको सबसे पहिले आहार देकर इसयुगमें मुनियोंके आहाग्दानकी प्रवृत्ति चलाने वाले हुए। • (११) अनंतवीर्य-भगवान् ऋषभदेवके पुत्र-भरतके छटे भाई इस युगमें सबसे पहिले मोक्ष गये । (१२) श्रुतकिर्ति-इम युगमें सबसे पहिले श्रावकके व्रत • लेने वाले गृहस्थ । (१३) प्रियवता-इस युगमें सबसे पहिले श्रावकके व्रत लेने वाली स्त्री। (१४) श्रुतार्थ, १ सिद्धार्थ २ सर्वार्थ ३ सुमति ४ ये चारों महामंडलेश्वर काशीनरेश अकपनके मंत्री थे। (१५) हमांगदत्त-महामडलेश्वर काशी नरेश अकंपनका ज्येष्ठ पुत्र था। , (१६) अकीति-महाराज भरत चक्रनिके राज्यका स्वामी उनका ज्येष्ठ पुत्र था। राजा अपनका जमाई था। स्वयंवरमै सुखोचनाने जो जयकुमारको वरमाला पहिनाई थी उसीपरसे इसने अन्याय पूर्वक जयकुमारसे युद्ध किया जिसमें यह हारा था। (१७) अनवद्यमति-ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र अर्ककीर्तिका मंत्री था। इसने जयकुमारसे कड़ने के लिये अकीर्तिको बहुत रोका पर वह नहीं माना। (१८) महापल-बाहूबलीका ज्येष्ठ पुत्र था। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग) ७८ ___ (१९) भूतवलि-बाहुवलीका छोटा पुत्र । (२०) अनंतसेन-सबसे पहिले मोक्ष जानेवाले भगवान् ऋषभके पुत्र अनंतवीर्यका पुत्र था। (२१) अनंतवीर्य-जयकुमारका ज्येष्ठ पुत्र था.। यह सत्यवादीकी विदसे प्रसिद्ध है। (२२) नीचे लिखे भगवान् ऋषभके पुत्र हुए थे जिनका दीक्षा नाम दूमा ही था। (१) पमसेन-पहिले गणधर (दीक्षा नाम भी यही था)। (१) अनंतविजय (३) महासेन । (१३) यशस्वती-भगवान् ऋषभदेवकी महाराणी और भरत चक्रवर्ती आदि सो पुत्रोंकी माता । (२४) सुनंदा-भगवान् ऋषभदेवकी दुसरी महाराणी 'बाहुबलीकी माता। (११) सुभद्रा-चक्रवर्ती महाराज भरतकी पट्टरानी थी। यह रत्नोंका चूरा चुकुटियोंसे कर देवी थी और उसीसे चौक पूरा करती थी । इसे बड़ा अभिमान था । (१६) अयोध्य-महारान मरतका सेनापति । (२७) युद्धिसागर-चक्रवर्ती भरतका पुरोहित । (१८) कामराष्टि-चक्रवर्ती गृहपति (मंडारी) (१९) भद्रमुख-नक्रवर्तीका सिकावट । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन शंतहास। पाठ ग्यारवा। ऋषभ युगकी स्कुट वात। (१) एक जगह वर्णन करते हुए पूर्व इतिहासकारोंने लिखा है कि उस समयमें भी भील आदि जातियां स्यामवर्ण थीं। छाल आदिसे अपने अंगोंको ढोकती थीं। गोमची आदिके आभूषण पहिनतीं थीं। चमरी गायके वालोंसे इन जातियोंकी स्त्रिया अपने बाल गूंथा करती थीं। (२) भरत चक्रवर्तीकी दिग्विजयके समयमें रास्तेमें पड़नेवाली नदियोंके नामः सुमागधी, गंगा, गोमती, कपीवती, खेश्या, गंभीर, कालतोया, कौशिकी, कालमही, ताम्रा, अरुन, निघुग, उदुंबरी, पनसा, तमशा, प्रमशा, शुक्तिमती, यमुना, वेणुमती, नर्मदा, विशाला, नालिका सिंधु, पारा, निष्कुदरी, वहुवज्जा, रम्या, सिकतनी, कुहा, समतोया, कुंना, निर्विघ्या, जंबूमति, वसुमती, शर्करावी, सिमा, रुतमाला, परिना, पनसा, अवंतिकामा हस्तिपानी, कागंधुनी, गधी चर्मण्वती शतभागा, नदा, करमवेगिनी, चुद्धितापी, रेवा, सप्तपारा, कौशिकी, शोण नद), तैला, ईशुपती, नक्रखा, बगा धपना, वैतरणी, मापवती, महेंद्रका, शुष्क, गोदावरी, मुप्रयोगा, कृष्णवर्णी, सन्नीरा, प्रवेणी, कुब्जा, धैर्या, चुर्णा, वेणा, सूकरिका, अवर्गा, भीमरथी, दारुवेणा, नीरा मुला, वाणा, केतवा, करीरी, प्रहरा, मुररा, पारा, महन्य, वापी, लांगलखातिका पर्वताकि नाम: Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । ८० हिमवान, वैमार, गोग्य वेदि ऋष्यमूक, नागप्रिय, तैरश्चि बेडूर्य कूटाचल, परियात्र, पुष्पगिरि, स्मित, गदा. नामवंत, धूपन, मदेभ, अंगेरियक, महेन्द्र विंध्याचल, नाग, मलयाचल, गोशोप, ददुर पांड्य, कवाट, शीतगृह श्री कग्न, क्रिटिषा, स्ह्य, तुंगवरक, कृष्णगिरि, सुमंदर, मुकुद | (३) भरत स यमे कुलीन घरकी स्त्रियां और लड़कियां खेत रखाने नादि खेती संबध कार्य करतीं थीं । V पाठ बारहवाँ । भगवान् अजितनाथ (दूसरे तीर्थंकर) (२) नौवी तीर्थ में दूर तीर्थंकर भगवान अतिन थ थे । ये देवपम वरोड सागर के बाद उत्पन्न हुए थे । अतिनायके जन्म के पहिले तक भगवान् कपमनेत्रके शासनका समय था । (२. अजितनाथ के पिनास नाम नृति और माता का नाम विजयसेना था। इनका वश और गेत्र का था । निए दिन भगवान् गर्भ में आये दिन मानेकी माता के समान सोलह स्वप्न देते । गर्भमें मानेका दिन ज्येष्ट नही माथा | और समय गधिका था | अपभदेव के समान इनकी माता सेवा व गर्भ शोवनके कार्य देवियोंने किये । इन्द्रादि किया और रत्नोंकी वर्षा ह देने गर्भ कन्या मात तक की Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _S5DGर - पाराशेष्ठ-छ LaneshLeMA, . . Sunil MNNATAAIC . 11 IN .. 23.505: . . . 3 1-1- -Powheati FRANI Mata A " R "जनविनय' प्रेस-सूरत मानस्तंभका चित्र । 55 A 1AR Rited... m Hacksta CONS VEM . m FRF MA र: BETT3JI 7JP . ". । - . 4M.F - -. - " .. । A . ' . AHARASTHAN 2555======== Page #89 --------------------------------------------------------------------------  Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ प्राचीन जैन इतिहास। (३) महा शुद्धी दसमीको रोहिनी नक्षत्रमें भगवान् अजितनाथका जन्म अयोध्यामें छुआ | इनका भी जन्म कल्याणोत्सव इन्द्रों द्वारा ऋषभदेवके समान मनाया गया । ये भी जन्म समय तीन ज्ञान-मति, श्रुत, अवधिज्ञानके धारी थे । और स्वयं विना किसी के द्वारा पढ़े-ज्ञानवान थे। (४ इनकी आयु बहत्तर लाख पूर्वकी थी और शरीर साड़े चारसो धनुष ऊँचा था। (१) अठारह लाख पूर्वतक ये कुमार अवस्था में रहे और ओपन लाख पूर्वतक पृथ्वोपर राज्य किया। (६. भगवान् अजितनाथका विवाह हुआ था। (७) जब आयुमें एक लाख पूर्वका काल बाकी रह गया तम आप महलोंपर बैठे हुए आकाश देख रहे थे । इतनेहीमें आनागमे उल्कापात हुमा उसे देखकर विमलीके समान जगतको भनित्य समझ भगवान् अजितश्चने दीक्षा ली। और अपने पुत्रको राज्य दिया। (८) वैराग्यके चितवन करते ही मौकातिक देवोंने आकर भगवान् की स्तुति की। इन्द्रोने तपकल्याणक त्सव किया। जिस दिन भगवान् अजितने तर ग्रहण किया उस दिन माघ सुदी २ थी। तप धारण करते समय भगवानको चोथा मन पर्ययज्ञान उत्पन्न । (६) भगवान् अनितनाथने सहेतुक नामक बनमें सप्तपणके वृक्षक नीचे तप धारण किया था। इनके साथ एक हजार राजा. ए व चार हाथका होगा है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। ओंने भी दीक्षा ली थी। पहिले ही इन्होंने छह उपवास किये थे। (१०) उपवासके दिन पूर्ण हो जानेपर भगवान ने ब्रह्मभूत राजाके घर आहार लिया । इसके यहाँ देवोंने पंचाशय किये । (११) भगवान् अजितनाथने बारह वर्ष तक तप किया और चार घातिया कर्मोका नाश कर पौष सुदी ११ को केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) हुए। (१२) केवलज्ञान होनेपर इनका भी इन्द्रोंने केवलज्ञान कल्याणक उत्सव किया । समवशरण समा बनाई जिसमें भगवानकी त्रिकाल दिव्यध्वनि होती थी जिसके द्वारा भगवान् प्राणियाको हितकर उपदेश देते और सिद्धांत बतलाते थे। (१३) भगवान्की समामें इस माति चतुर्विध सघ था। ९. सिंहसेनादि गणधर ३७९० पूर्वज्ञानके धारी मुनि २१६०० शिक्षक मुनि ७४२० तीन ज्ञानके धारी २०००० केवलज्ञानी . २०४०० विक्रियाऋद्धिके धारक साधु १२१५० मनःपर्ययज्ञानके धारी २२४०० वादी मुनि १,२०,००० आर्थिका ५,००,००० श्राविका १,००,००० श्रावक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ प्राचीन जैन इतिहास + (१४) सर्वज्ञ अवस्था, मगवान्ने पृथ्वीपर विहार किया और उपदेश दिया । आपका विहारकाल बारह वर्ष एक माह कम एक लाख पूर्व है। - (११) जब आयुमें एक माह वाकी रह गया तब आपकी दिव्यध्वनि बंद हुई और उत्कृष्ट घ्यान द्वारा शेष चार कर्मोना नाश उस एक माहमें कर चैत्र शुदी पंचमोके दिन आप मोक्ष पधारे। (१६) मोक्ष जानेपर इन्द्रोंने ऋषम मगान्के समान ही निर्वाण कल्याणक किया । आपका निर्वाणस्थान सम्मेदशिखर था ! (नोट ) प्रत्येक तीर्थकरके समान इनके लिये भी स्वर्गसे पसाभूषण आते और बाल्यावस्थामें देव लोग वालप वारणकर साथमें खेरते थे। रनोंकी वर्षा, पचाय और गर्भ, जन्म, नप, ज्ञान, निर्वाण ये पंच कल्याणोके उत्सव भी इनसे पूर्वके तीर्थकरों के समान्त इन्द्रादि देवोंने बिना किसी न्यूनताके किये थे। पाठ तेरहवाँ। द्वितीय चक्रवर्ती सगर और महाराज भागीरथ । (१) भगवान् भनितनाथके समयमें भरत चक्रवर्ती के समान सगर नामक दूमरे चक्रवर्ती हुए थे। (२) यह इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुए । इनके पिताका नाम समुद्र विनय और माताका नाम सुवाका था। १ सम्मेदशिखा बंगालमें है। वर्तमानमें यह पाश्वेताय हिट पा) नानरे बने Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भथम भाग . (३) इनकी आयु सत्तर लाख पूर्वकी थी और शरीर साड़े चारसो धनुष ऊँचा था। (४ ये अठारह लाख पूर्व तक कुमार अवस्थामें रहे । इस समय ता ये महा भंड श्वर राजा थे। .: अठारह लाख पूर्वकी आयु हो जानेपर सगरके यहाँ चक्र'लकी उत्पत्ति हुई। (६) चक्ररत्न उत्पन्न होनेपर इन्होंने दिविजय करना प्रारंभ की और भरत चक्रवर्ती के समान दिविजय की । जितनी पृथ्वी भरतने विजय की थी और जिस प्रकार की थी उतनी ही उसी प्रकार इन्होंने भी विनय की व वृषभाचल पर्वतपर भरतके समान अपने नामकी प्रशस्ति भी लिखी। (७) इनके यहाँ भी छनवे हमार रानियों व सात सजीव और सात निर्जीव रत्न थे और नव निधिको लेकर जितनी संपत्ति और विभव मरत चक्रवर्तकि वर्णनमें कहाजाचुका है इन चक्रवतीको भी प्राप्त था। तिने चक्रवर्ती हुए है सबको संपत्ति आदि समान थी। (८ सगर चक्रवर्तीके पुत्र साठ हजार थे। (९) एक दिन श्री चतुर्मुख नामक केवलज्ञान धरीके जान कल्याण के लिये देव आये और सार भी गया । उन देवोम मगरके पूर्व भवन नित्र एक मणिकेतु नामक देव था। वह सगरसे आकर मिला और कहने लगा कि हमारी और झुम्हारी स्वर्गमें यह प्रतिज्ञा थी कि ननुप्य होनेपर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ प्राचीन जैन इतिहास । तप करेंगे। अब तुम मनुष्य हुए हो अतएव तप धारण करो। पर सगरने यह स्वीकार नहीं किया । उसने बहुत प्रयत्न किये के सब निष्फल हुए । एकवार मणिकेतु (देव) चारण मुनियोंका रूप धारणकर सगरके यहाँ आया और संसारको अनित्यताका उपदेश दिया पर विस पर भी सगरने गृहस्थावस्था नहीं छोड़ी। (१०) सगरके साठ हमार पुत्रोंने एकवार अपने पितासे प्रार्थना की कि अब हम जवान हो गये हैं। क्षत्रिय हैं । अतएक कोई असाध्य कार्य करनेको हमें भाज्ञा दीजिये जिसे हम सिद्ध करके लावें । उस समय तो चक्रवर्तीने कह दिया कि पृथ्वी जीत ली गई है कोई भी असाध्य कार्य नहीं है पर कुछ दिनों बाद उन पुत्रोंके दुवारा प्रार्थना करनेपर चक्रवर्तीने आज्ञा दी कि जलाशपर्वतके चारों ओर गगा नदीका प्रवाह वहा दो। क्योंकि कैलाश पर्वतपर भरत चक्रवर्तीक बनवाये हुए रत्नमय जिन-मंदिर हैं और अगाडीका काल समय अच्छा न होनेके कारण उन मंदिरोंकी हानिकी संभावना है । इस पर पुत्र, दंड रत्न लेकर गये और कैलाशके चारों ओर जलका प्रवाह कर दिया। ' (११) इसी समय ऊपर कहे हुए सगरके मित्र मणीकेतु देवने अपने मित्रको संसारसे उदास करनेके लिये सर्पका रूप धारण लिया और अपनी विषमय फुकारसे मगरके सब पुत्रोंको मचेत कर दिया व आप एक मुदेको कधे पर लादकर वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारणकर चक्रवर्ती के पास गया और कहने लगा कि मेरा पुत्र मर गया है आप सबके रक्षक हैं अतपद मेरे पुत्र की रक्षा करें Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग : ६ इस पर चक्रवत ने कहा कि संसारमै यमकी दादसे निकालनेवाला कोई नहीं है इसलिये है वृद्ध ! तुम तप धारण करो । तब बाहजने कहा कि आपका कहना उचित है पर सुना जाता है कि आपके सब पुत्र कैलाशकी साई खोदते हुए मरण प्राप्त हो गये है सो माप क्यों नहीं उप धारण करते । इसपर चक्रवर्तीको बहुत खेद हुआ और वे अचेत हो गये । फिर मुघ आनेपर जल क दुसरे मनुष्यने भाकर पुत्रोंके मरणके समाचारकी पुष्टि की तब फिर खेद कर विदर्भा रानीके पुत्र भागीरथको राज्य दे मापने तप धारण किया। (१२) इधर देवने उन साठ हजार पुत्रोको सचेतकर कहा कि तुम्हारे पिताने तुम्हारे मरणके समाचार सुनकर तप धारन किया है और भागीरथको राज्य दिया है। इसपर उन पुत्रनि मी तप धारण किया। ये सब पुत्र चरम-शरीरी-उसी भक्के मोक्ष जानेवाले थे। भागोस्थने श्रावस्के नत लिये। . (१३) सगर चक्रवर्ती और उनके पुत्रोंको केवलज्ञान हुमा और वे सब मोक्ष गये। (११) जब भागीरथने चक्रवर्ती सगरके मोक्ष जाने के समग. चार सुने तब उसने भी अपने पुत्र वरदत्तको राज्य दिया और उप धारण किया। (१९) भागीरथके दीक्षागुरु शिवगुप्त थे। भागीरयने कैलाश पर्वतपर गंगा के किनारे तप धारण किया था। देवाने आकर उसी गंगाके नल्से भागीरथका अमिक लिया। भागीरथके चरणों से गंगाके जलका सयोग हो जाने के कारण गंगा नदी भागीरथी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ प्राचीन जैनइतिहास नामसे प्रसिद्ध हुई और तमीसे लोग इसे (गंगाको.) तीर्थ मानने लगे। (१६) भागीरथको केवलज्ञान हुआ और कैलाश पर्वतसे वह मोक्ष गया। पाठ चौदहवाँ। तृतीय तीर्थकर श्री संभवनाथ । (१) भगवान् अजितनाथके मोक्ष जानेके तीस कोटि लास्त्र सागर बाद तीसरे तीर्थकर संभवनाथ उत्पन्न हुए थे। (२) फागुण सुदी के दिन भगवान् गर्भमें आये । और इन्द्रोने गर्भ कल्याणक उत्सव मनाया। (३) भगवान् संभवनाथके पिताका नाम दरथराय और माताका नाम सुषेणा था । इनका वंश इश्वाकु और गोत्र काश्यप था। ये मायोव्याके राजा थे। (४) भगवानका जन्म कार्तिक शुदी पूर्णिमाके दिन अयोघ्यामें हुआ था । भगवान् संभवनाथ जन्मसे ही तीनज्ञानके धारी स्वयंभू थे। आपका भी जन्म कल्याणक उत्सव इन्द्रोंने किया । (६) इनकी मायु साठ लाख पूर्व और शरीर चारसो धनुषका था। (६) ये पंद्रह लाख पूर्व तक कुमार अवस्थामें रहे और चुमालीस लाख पूर्व तक राज्य किया । भगवान् संभवनाथका भी विवाह हुआ था। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवय भाग । ८८ (७) आयुर्मे जब एक लाख पूर्व बाकी रह गया तब एक दिन आपने बादलोंको तितर बितर होते देख संसारको भी इसी मुताविक क्षणभंगुर समझा और वैराग्य रूप भाव कर तप धारण करनेको विचार किया । इन विचारोंके होते ही लौकांतिक देवोंने आर स्तुति की। (८) अपने ज्येष्ट पुत्रको राज्य देकर भगवान् संभवनाथने सहेतुक वनमें तप धारण किया। इस समय इन्द्रोंने तप कल्याणकका उत्सव किया था | भगवान्को मन पर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ | (९) पहिले ही भगवानने दो दिनका उपवास धारण किया । उपवास पूर्ण होने पर श्रावस्ती नगरीके राजा सुरेन्द्रदत्तके यहाँ बाहार किया। भगवानके आहार लेनेके कारण देवोंने रत्न वर्षा आदि पंचाधर्य किये । (१०) चौदह वर्ष तक तपकर एक दिन भगवान् संभवनाथने शालि वृक्ष के नीचे दो दिनका उपवास धारण किया | वहीं पर भगवान्को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । यह कार्तिक मासकी कुन्ण चतुर्थीका दिन था । केवलज्ञान होनेपर इन्द्रादि देवोंने पूजा और समवशरणकी रचना कर केवलज्ञान कल्याणक्का उत्सव सनाया । (११) भगवान्की समामें इस भांति चतुर्विय संघ था। १९० चारुपेणादिक गणवर २,१५० साधु ( शिक्षक ) १,२९,३०० पूर्वज्ञानके धारी ९,६०० नवविज्ञानके धारी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ प्राचीन जैन इतिहास। १९००० केवल ज्ञानी १९८०० विक्रिया ऋडि धारी साधु १२१५० मनःपर्यय ज्ञान घारी १२००० वादी मुनि ३३०००० धर्मादि मार्थिकाएँ '३००००० श्रावक '५००००० श्राविका (१२) भगवान् संभवनाथने चौदह वर्ष एकमाप्त कम एक लाख पूर्व समय तक विहारकर प्राणीमात्रको उपदेश दिया। (१३) जब भगवान्की आयुका एक माह शेष रह गया तब भगवान्की दिव्यध्वनि बंद हुई । इस एक माहमें भगवानने वॉकी के चार कर्मोका नाश किया । और मिती चैत्र शुदी छठको एक हजार मुनियों सहित सम्मेदशिखर पर्वतसे मोक्ष पधारे। भगवान्के मोक्ष नानेपर इन्द्रादिकोंने भगवानकी दाहक्रिया की और निर्वाण कल्याणक उत्सव मनाया। १ प्रत्येक तीर्थकरके समान इनके लिये भी घखामूपण स्वर्गसे आते थे व देवगण पालक र घारणकर बाल्यावस्थामें इनके साथ सेलते ये व रलोकी या, पचायर्यगर्भ, जन्म, तप, शान, निर्वाण इन पैचोकल्याणोंके उपद इनमे पूर्वके तीर्थकरके ही धमान विना किसी न्यूनताके इन्द्रादि देवोने किये थे। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । ९० पाठ पंद्रहवाँ । अभिनंदन स्वामी - ( चोये तीर्थंकर) 1 (१) भगवान् संभवनाथके मोक्ष जानेके दश लाख करोड़ सागरके बाद चोथे तीर्थकर भगवान् अभिनंदनका जन्म हुआ । - (२) भगवान्, अभिनंदन वैशाख शुदी छठको माता सिद्वार्थाके गर्भ में आये । आपके पिताका नाम संदर था जो कि अयोध्या के महाराज थे । वंश आपका इक्ष्वाकु और गोत्र काश्यप था । गर्भ में आनेके पहिले पूर्वके तीर्थंकरोंकी माताके समान आपकी माताने स्वप्न देखे | गर्भ में आनेपर इन्द्रादि देवोंने गर्म कल्याणक उत्सव क्रिया । और पंद्रह माह तक रत्नोंकी वर्षा की । (३) माघ सुदी वारस के दिन भगवान् अभिनंदनका जन्म हुआ । इन्द्रोंने देवों सहित मेरु पर्वतपर लेजाकर अभिषेक करना यदि जन्म कल्याणोत्सव उसी भांति किया जिस प्रकार इनसे पूर्वके तीर्थंकरोंका किया था | आप भी जन्ममें तीन ज्ञान धारी थे। (४) इनका शरीर साडेतीनसो धनुष ऊँचा था । इनकी आयु पचास लाख पूर्वकी थी और वर्ण सुवर्णके समान था । (५) साढ़े बारह लाख पूर्व तक आप कुमार अवस्थामें रहे। इसके बाद अपने पिता से राज्य पाकर करीब साड़े बत्तीस काख पूर्वसे कुछ अधिक समय तक नीति सहित राज्य किया । (६) एक दिन आप अपने महलों परसे दिशाओंको देख रहे थे । आपको आकाशमें बादलोंका एक नगरसा बना दिखाई दिया और फिर वह तत्काल वितर बितर हो गया । यही देखकर आपको Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ प्राचीन जनहातहासा वैराग्य उत्पन्न हुआ और आपने अपने पुत्रको राज्य देकर मिती माह शुदी बारसके दिन वनमें जाकर तप धारण किया । वैराग्य होनेपर लोकांतिक देवोंका माना व इन्द्रादि देवोंका पालिकीमें विठलाकर बनमें लेजाना आदि तप कल्याणक उत्सव देवों द्वार मनाया। (७) पहिले मापने दो दिनका उपवास धारण किया और उसके पूरे होनाने पर अयोध्यामें इन्द्रदत्त राजाके यहां माहारं लिपा इस पर देवोंने इन्द्रदत्तके यहां पंचाश्चर्य किये। (८) अठारह वर्ष तक तप करने पर भगवान्को पौष शुदी चौदसके दिन दुपहरमें शालि वृक्षके नीचे केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। केवल ज्ञान होनेपर इन्द्रादि देवोंने समवशरण सभा बनाई और केवलज्ञान कल्याणक उत्सव किया। (९) भगवान अभिनंदनकी सभामें इस भाति चतुर्विध संघ था। १०३ वजनाभि आदि गणधर २९०० पूर्वज्ञान धारी २३२०५० शिक्षक साधु ९८०० तीन ज्ञानके घारी १६००० केवलज्ञनी १९००० विक्रिया ऋद्धिके धारक १९६५० मनःपर्ययज्ञानके धारी . . ११.०० वादी मुनि ३३०६०० मेरुषेणा आदि आर्यिकाएं . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयम भाग | ९१ १००००० श्रावक ९००००० श्राविकाएँ (१०) आर्यदेशके समस्त देशोंमें विहारकर जब आपकी आयु एक महकी शेष रही तब आप सम्मेद शिखर पर्वत पर आये । उस समय दिव्यध्वनि होना बंद होगया था । (११) एक माह में वीके चार कर्मोका नाशकर मिती “वैशाख सुदी छठको बहुत मुनियों सहित सम्मेदशिखर पर्वतसे मोक्ष बधारे | मोक्ष होजाने के बाद इंद्रादि देवोंने पूर्वके तीर्थंकरोंके समान अग्नि- दाह आदि द्वारा निर्वाण कल्याणक उत्सव मनाया। पाठ सोलहवाँ । पॉचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ । (९) भगवान् अभिनंदनके, मोक्ष जानेके नौ करोड़ लाख सागर बाद सुमतिनाथ पाँचवे तीर्थंकर उत्पन्न हुए | (२) आप श्रावण सुदी दूमके दिन अयोध्या के राजा मेघरथकी स्त्री मंगलादेवीके गर्भ में आये । गर्भ में आनेपर इन्द्रादि देवोंने पूर्व तीर्थंकरोंके समान गर्म कल्याणक उत्सव किया | पंद्रह मास तक रत्न वर्षा की । माताको सोलह स्वप्न पूर्वके तीर्थकरों की माताओंके समान आये थे । (३) भगवान् सुमतिनाथ इवाकुवंशी, काश्यप गोत्रके थे ! (१) चैत्र सुदी ग्यारसको भगवान्का जन्म हुआ । इन्द्रादिक देवोंने मेरुपर ले जाना, अभिषेक करना आदि पूर्वक तीर्थंकरकि -समान जन्म कल्याणक उत्सव मनाया। बाल्यावस्थामें भगवान्के Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३. प्राचीन जन इतिहास। साथ खेलनेको देवगण वालकका रूप धरकर स्वर्गसे आते थे। और वहींसे वस्त्राभूषण भी भगवान के लिये आया करते थे। भगवान् जन्मसे ही तीन ज्ञानके धारक थे। (५) आपकी मायु चालीस लाख पूर्वकी थी और शरीर तीनसो धनुष ऊँचा सुवर्णके समान वर्णका महासुदर था। शरीर में १००८ लक्षण थे। (६) दश लाख पूर्व तक आप कुमार अवस्थामें रहे। बाद अपने पिताका राज्य पाया । जो कि उनतीस लाख पूर्व बारह पूर्वाग तक किया । आपका विवाह हुआ था । (७) बाद आपने दीक्षा धारण की । आपकी दीक्षाका दिन वैशाख सुदी नोमी था। लोकांतिक देवादिकोंने भगवान्का तप कल्याणक उत्सव पहिले तीर्थकरों के समान किया । तपका स्थान सहेतुक वन था| मापके साथ एक हजार रानाओंने तप धारण किया था । इसी समय भगवान्को चोथे ज्ञानकी उत्पत्ति हुई। (८) पहिले पहिल मापने दो दिनका उपवास धारण किया। जिसके पूरे होनेपर सौमनसपुरमें पद्मभूपके यहां आहार लिया। आहार लेनपर इन्द्रादिकोंने पंचाश्चर्य किये। (९) बीस वर्ष तक तप करनेपर एक दिन माम छह दिनका उपवास धारण करके प्रियंगु वृक्षके नीचे बैठे और चार धातिया क्रमांका नाशकर मिती चैत्र सुदी ग्यारसके दिन केवलज्ञान प्राप्त किया । केवलज्ञान हो जानेपर इन्द्रादिकांने ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया ! समवशरण सभाकी रचना की । (१०) भगवानकी सभामें इस प्रकार चतुर्विध संघके मनुष्य थे। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। ११६ चामर आदि गणघर. २४०० पूर्वज्ञानके धारी. २५१३५० साधु ११००० अवधि ज्ञानके घारी. १३००० केवलजानो. १८९०० विक्रिया ऋद्विधारी मुनि. १०४०. वादी मुनि. १०४०० मन पर्यय ज्ञानी. २३०००० अनतमती आदि माथिकाएँ, ३००००० श्रावक. ९००००० श्राविकाएँ. (११) भगवान् सुमतिनाथकी मायुमें नब एक भास बाकी रह गया तब आप समाज पृथ्वीपर विहारकर सम्मेदशिखर पर पधारे । यहाँपर दिव्यध्वनिका होना बंद हुआ। इस एक माहमें शेष कर्मोका नागकर चत्र सुदी ग्यारसको एक हजार मुनि सहित सम्मेदशिखरसे मोक्षं पधारे । -- (१२) मोझ जाने के बाद इन्द्रादि देवोंने पूर्वक तीर्थकरोकि समान निर्माण क्ल्याणक उत्सव मनाया। अग्निकुमार मातिक देवोंने अपने मुकुटकी अग्निसे भगवान्के शरीरका दाह किया । पाठ सत्रहवा । पद्ममभु (छठवें तीर्थकर) (१)सुमतिनाथ भगवान्के नब्बे हजार कोटि मागर बाद प्रधान रेपन्न हुए, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ भाचीन जैन इतिहामा (२) आप माघ वदी छठको कोशांबी नगरीके राना मुकुरटवरकी रानी सुसीमाके गर्भ में आये। गर्भमें आनेके छह मास पूर्वसे और गर्भके नौ मास तक देवाने रत्न वर्षा की और गर्ममें थानेपर पूर्वके तीर्थंकरोंके समान गर्भ कल्याणक उत्सब किया । माताको सोलह स्वप्न पूर्वके तीर्थंकरोंकी माताओंके समान आये। (३) आपका वंश इक्ष्वाकु और गोत्र काश्यप था । (४) आपका जन्म कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीको तीनों ज्ञान सहित हुआ, जन्म होनेपर पूर्वके तीर्थकरेंक समान इन्द्रादि देवोंने जन्म कल्याणक उत्सव मन या। (६, भगवान क साथ खेलनेको बालक रूप धारणकर स्वर्गसे देव माया करते थे । वस्त्राभूषण भी स्वर्गसे ही आते थे । (६) आपकी आयु तीस लाख पूर्वकी थी । शरीर अढ़ाईसो धनुष्य उँचा था। (७) साड़े सात लाख पूर्वत माप कुमार अवस्थामें रहे बाद भाप अपने पिताके राज्य सिंहासनपर बैठे। आप पट्टबंध रामा थे। .. (८) साड़े इकवोस लाख पूर्व सोलह पूर्वाग समय तक आपने राज्य किया । आप विवाहित थे। (९) एक दिन राजसमामें आपने सुना कि सेनाके मुख्य हस्तीने खाना पीना छोड़ दिया है तब अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभवोंको न नकर ससारको पनित्य समझ कार्तिक वदी तेरसको एक मार रानाओं सहित मनोहर नामक बनमें आपने दीक्षा पारण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । ९६ की । इन्होंने तप कल्याणक उत्सव मनाया। इस समय आपको मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ । (१०) दो दिन उपवासकर आपने वर्डमान नगरके राना सोमदत्त के यहां आहार लिया | तब इन्द्रादि देवोंने सोमदत्तके यहाँ पंचाश्रये किये । 耳で (११) छह माह तक घोर तपकर त्र सुदी तेरलको आप केवलज्ञानी हुए । चार घातिया कर्मोका नाश किया । देवोंने समवशरणकी रचना की और केवलज्ञान कल्याणकका उत्सव किया । (१२) भगवानकी समवशरण सभानें इस भांति चतुर्विषसंघके मनुभ्य थे । १०० चत्रचामर आदि गणधर २३०० पूर्वज्ञान के धारक २,६९,००० शिक्षक साधु १०,००० अवधि - ज्ञानके घारक १२,००० केवलज्ञ नी १६,८०० विक्रिया ऋद्धिके चारक १०३,०० मन पर्यय ज्ञानके धारक ९,६०० वादी मुनि ४,२०,००० आर्यिका १००,००० श्रावक ५००,००० श्राविकाएं (१३) समस्त भार्यखड में विहारकर जब आयुमें एक माह Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैनइतिहास | वाकी रहा तब आप समेदशिखरपर आये । इस समय दिव्यध्वनिका होना बंद होगया था। इस एक माइके समय में शेष कर्मोंका नाशकर भगवान् फागुण वदी चतुर्थीके दिन एक हजार राजाओं सहित मोक्ष पधारे | इन्द्रादि देव ने आकर शव - दाहकी क्रिया की और निर्वाण कल्याणक किया । १७ पाठ अठारहवाँ । सुपार्श्वनाथ (सातवें तीर्थंकर) (१) पद्मप्रभुके हजार क्रोड़ सागर बाद भगवान् सुपार्श्वनाथका जन्म हुआ । (२) आप भादों वदी छठको माता के गर्भ में आये । गर्भमें आनेपर माताने पूर्व तीर्थकरों की माताओके समान सोन्ह स्वप्न देखे । गर्भमें अनेके छह माह पूर्वसे और गर्भ रहन के समय तक देवोंने रत्नवर्षा की, मालावी सेवाके लिये देवियां रखीं, आदि गर्म कल्याणक उत्सवके कार्य इन्द्रादि देवोंने किये । (३) आपकी माताका नाम पृथ्वीषेणा और पिताका नाम सुप्रतिष्ठ था । (४) मापका वश इक्ष्वाकु और गोत्र काश्यप था । (५) आपके पिता वाराणसी - काशी के राजा थे । (६) आपका जन्म ज्येष्ट सुदो वारसको हुआ। आप जम्म समय से तीन ज्ञानके धारक थे । इन्द्रादि देवोंने मेरुपर ले जाना, अभिषेक, नृत्य व स्तुति आदि जन्माभिषेक कार्य जैसे कि पूर्व तीर्थकरों के किये थे. किये। १ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग (७) आपको वायु वीस लाख पूर्वकी थी और शरीर दोसो वनुष्य उचा था । () आपके साथ खेलनेको स्वर्गसे देव आते थे, और वस्त्राभूषण भी स्वर्गसे आया करते थे। (९) माप पांच लाख पूर्व तक कुमारावस्थामें रहे । (१०) आपका वर्ण प्रियगुके समान था। (११) आपने चौदह लाख पूर्व वीस पूर्वाग समय तक राज्य किया। (१२) एक दिन बादलोंको छिन्नभिन्न होते देख आपके वैराग्य हुआ। लोकांतिक देवोंने आकर आपकी स्तुति की। राज्य होते ही पुत्रको राज्य देकर आपने दीक्षा धारण की । और इन्दादि देवोंने तप कल्याणक उत्सव पहिलेके सीकरोंके समान मनाया। (१२) आपने ज्येष्ठ सदी बारसको तप धारण किया था। रूप धारण करते ही आपको मन पर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ। (१४) आपके साथ एक हजार राजाओं ने तप धारण किया था । पहिले ही मापने दो दिनका उपवास घाण किया । उपरे पूर्ण होने ही आपने सोमखेट नगरफे राना महेन्द्रदत्तके यहा महार लिया। आपके माहारके लेनेसे देवान रनवी आदि पचायरिये। (११) नौ वर्ष तक तप करने के पश्चात् फल्गुन वदी छठरे "दिन सिरीपक यक्ष नीचे चार घातिया कमाको नाशकार केवल. गन माप्त किया। (१६) मगवान्को पेरल ज्ञान होने ही इन्द्रामि देवाने ममवरण सपारची और ज्ञान कल्याणका सय किया। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ዳዩ प्राचीन जैन इतिहास | (१७) भगवान्की सभायें हममांति चारों संघ मनुष्य थे । ७५ बल आदि गण घर २०३० पूर्वज्ञानधारी २१४९२० शिक्षक मुनि ९००० अवधिज्ञान घ.मी ११००० पेवल ज्ञानी १९९०० वैक्रियिक ऋन्द्रि धारी । ९१५० मन ययय ज्ञानी ८६०० घादी मुनि ३३०००० मीनाआर्या माटि आविधा ३००००० श्रावक १००००० श्राविकाएं (१८) आयुके एक मास शेष रहने के पूर्व नका राखी पर विहार किया, नगट नगद धर्मोपदेश देकर टित किया (१९) सायुके एक मास देशमाने पर भी दिव वन बंद हुई तब मापने तप द्वारा चार धाि नाशकर मिती फागुण व ममीको निर्वाचन पर नि निर्माण are fountain सम्मे 1 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग | १०० पाठ उगनीसवाँ । चंद्रप्रभु (आठवें तीर्थंकर ) (1) सुपार्श्वनाथ - स्वामी के मोक्ष जानेके नौसो करोड सागर बाद भगवान् चंद्रप्रभुका जन्म हुआ । (२) चैत्र वदी पंचमीकी रात्रिको आप माताके गर्भ में आये । गर्भमें आनेपर पूर्वके तीर्थकरोके समान इनकी माताने भी सोलह स्वप्न देखे | गर्भ में आने के छह माह पूर्वसे और गर्म में रहने तक इन्द्रादि देव ने रत्नांकी वर्षा की और गर्भकख्याणकका उत्सव मनाया । माताकी सेवा देवियोंने की। (३) आपकी माताका नाम लक्ष्मणा और पिताका नाम महान था । महाराज महासेन चन्द्रपुरीके राजा थे । आपका वश इश्वाकु और गोत्र काश्यप था । ( 8 ) पौष शुदी ग्यारसको आपका जन्म हुआ । जन्मसे ही आप तीन ज्ञान घरी थे । जन्म होते ही इन्द्रादि देवोंने मेरु पर्वत पर ले जाना, अभिषेक करना, स्तुति करना आदि जन्म कल्याणक के उत्सव सम्बंधी कार्य किये । (५) आपके साथ खेलने को स्वर्गसे देव आया करते थे और स्वगसे ही वस्त्राभूषण आते ये ! (६) आपका शरीर डेहसो धनुष ऊँचा था । आयु दशलाख पूर्वकी थी। (७) अढाई लाख पूर्व तक आप कुमार अवस्था में रहे फिर १. बनारस के समीप चन्द्रपुरी नामक छोटीसी चरती है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ प्राचीन जैन इतिहास राज्य प्राप्तकर छह लाख पचास हजार पूर्व और चौवीस पूर्वाग उक राज्य किया। (८) आपका विवाह हुआ था। (९) एक दिन दर्पणमें मुँह देखते देखते आपको वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब अपने पुत्र श्रीमान् वरचंद्रको बुलाकर राज्याभिषेक पूर्वक राज्य दिया और आपने पौष वदी एकादशी के दिन एक हजार राजाओं सहित सवरित नामक वनमें तप धारण किया । वैराग्य होने ही लौकांतिक देवोंने आकर स्तुति की थी। और इन्द्रादि देवोंने मभिषेकपूर्वक तप कल्याणक उत्सव पूर्वके तीर्थकरोंकि समान मनाया था। जिस पालकीपर चढ़कर भगवान् वनको पधारे थे उसका नाम विमला था । और वह स्वर्गसे देवोंद्वारा लाई गई थी। तप धारण करते ही आपको चौथा मन पर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ। (१०) पहिले ही आपने दो दिनका उपवास धारण किया और उसके पूर्ण हो जानेपर नलिन नामक नगरमें सोमदत्त रानाके यहां आहार किया। इसपर देवोंने रत्न वर्षा आदि पंचाश्चर्य किये। (११) तीन मास तक आपने तप किया जिसके कारण मिती फागुण वदी सप्तमीको चार कर्मोका नाश हुआ और भगवान् चंद्रप्रभु केवलज्ञानी चने । केवलज्ञान होनेपर इन्द्रादि देवों द्वारा समवशरणकी रचना की गई व स्तुति पूनादिसे पूर्वके तीर्थककरोंके समान ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया गया । फेवलज्ञान Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । १०१ होते ही केवलज्ञानके देश अतिशय प्रगट हुए और माप मनंत चतुष्टय युक्त हुए । (१२) आपने माये खंड में विहार किया और प्राणियोंको दिव्यध्वनि द्वारा हितका मार्ग बताया । (१३) भगवान् चंद्रप्रभुके समवशरण में चतुर्विध संघ मनुष्य इस भाँति थे । A ९३ दत्तमुनि आदि गणधर २००० पूर्व ज्ञानके धारी ८००० अवधि ज्ञानी २००४०० शिक्षक साधु १०००० केवलज्ञानी १४००० विक्रिया ऋद्धिके वारक. ८००० मन. पर्यय ज्ञानी. ७६०० वादी मुनि. १८०००० वरुणा आदि आर्यिकाएँ ३००००० श्रावक ५००००० श्राविकाएँ. (११) आपकी आयुमें जब एक माह शेष रहा तब आपका विहार बंद हुआ और आप सम्मेदशिखर पर पधारे। इसी समय से आपकी दिव्यध्वनिका दोना बंद हुआ। अंतमें फागुन छुट्टी नमीको मौका नाशकर एक हजार राजाओं सहित सम्मेदविरार मेक्ष पधारे। नोक्ष जानेपर इन्द्रादि देवोंने निर्वाण व्यापक उत्पन मनाया । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ प्राचीन जैन इतिहास पाठ वीसवाँ । भगवान पुष्पदंत ( नौवें तीर्थकरः।), (१) भगवान् चंद्रमभक्के मोक्ष नानेके नव्वे करोड़ सागर बाद भगवान् पुष्पदंतका जन्म हुआ। (२) फागुन वदी नौमीके दिन आप गर्भमें आनेपर पूर्वकी तीर्थंकरोंकी माताओं के समान भापकी माताने भी सोलह स्वम्म देखे जिनका कि फल तीर्थंकरका उत्पन्न होना है। (३) आपके पिताका नाम सुग्रीव और माताका नाम जपरामा था। आप काकंदीपुरीके राजा थे। आपका वंश इस्चाकु और गोत्र काश्यप था। (४) मापका जन्म मार्गशीर्ष सुदी प्रतिपदाके दिन कार्कदीपुरीमें हुआ। जन्मसे ही माप तीन ज्ञानके धारी थे। इन्द्रादि देवोंने मेरु पर ले जाना, स्तुति करना आदि पूर्वके तीर्थंकरोंके समान जन्म कल्याणक उत्सव किया। ___ (५) आपके साथ खेलनेको स्वर्गसे देव आते थे । और वस्त्राभूषण भी स्वगसे आया करते थे । (६) आपकी आयु दो लाख पूर्वकी थी और शरीर एकसो धनुष ऊचा था। (७) पचास हजार पूर्व तक आप कुमार अवस्थामें रहे। (८) भापका भी विवाह हुआ था। (९) कुमारावस्थाके बाद आपने राज्य सिंहासनको सुशोभित किया और पचास हनार पूर्व अट्ठावीस पूर्वाग तक राज्य किया । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। १०४ (१०) एक दिन आकाशमें उल्कापात देखकर वैराग्य उत्पन्न हुआ और अपने पुत्र सुमतिको राज्य देकर मिती मार्गशीर्ष सुदी पड़िवाके दिन दीक्षा धारण की। वैराग्य होते ही लौकांतिक देवोंने आकर स्तुति की और फिर इन्द्रादि देवोंने अभिषेक पूर्वक तप कल्याणक उत्सव मनाया । तप धारण करते ही आपको मन.पर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ । मापने. पुष्पक बनमें उप धारण किया था । वनमें आप सूर्यप्रभा नामक पालकीपर चकर गये थे। (११) पहिले ही आपने दो दिनका उपवास धारण किया। उपवास पूर्ण होने ही सपलपुरमें पुष्पमित्र नामक राजाके यहाँ आपका आहार हुआ तब देवोंने रत्न वर्षा आदि पांच भार्य किये। (१२) चार वर्ष तप करनेपर मिती कार्तिक सुदी दूजले दिन भगवान्को केवलनान उत्पन्न हुआ । समवसरण सभा बनाई गई और इन्द्रादि देवोंने ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया। (१३) आपकी समवशरण सभामें इसप्रकार शिष्य थे। विदर्भ आदि गणधर १५०० श्रुत केवलि. . १९६५०० शिक्षक मुनि. ८४०० भवधिज्ञानी. ७००० केवलजानी. १३००० विक्रिया रिद्धिक धारक. ७६०० मन पर्यय ज्ञानी. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०५ प्राचीन जैनइतिहास। . . . ६६०० वादी मुनि. ३८०००० घोषा आदि आर्थिकाएँ २००००० श्रावक ५००००० श्राविकाएँ (१४) सब दूर विहारकर अंतमें जब कुछ ही दिन आयुके बाकी रह गये तब दिव्य ध्वनि बंद हुई और सम्मेदशिखर पर्वत पर आप रहे । और वहाँसे शेष कर्मोका नाशकर भादों सुदी अष्टमीको मोक्ष पधारे । मापके मोक्ष जानेपर इन्द्रादि देवाने निर्वाण कल्याणकका उत्सव, पूर्वके तीर्थंकरों के समान मनाया। पाठ इकवीसवाँ। भगवान शीतलनाथ (दशवें तीर्थकर ) (१) भगवान् पुष्पदंतके मोक्ष जानेके नोकरोड सागर वाद दशवें तीर्थकर भगवान् शीतलनाथका , जन्म हुआ। इनके जन्म होनेके एक पूर्वकम पाव (एक चतुर्थाश ) पल्य पहिले धर्ममार्ग बध हो गया था। (२) आप चैत्र कृष्ण अष्टमीके दिन माताके गर्भ में आये। माताने सोलह स्वप्न देखे ! इन्द्रादि देवोंने गर्भ कल्याणक उत्सद किया । गर्भमें आनेके छहमास पूर्वसे जन्म होने तक पंद्रह माह देवोंने रत्न वर्षा की। (३) आपके पिताका नाम दृढ़रथ और माताका नाम सुनंदा था । पिता दृढस्थ मालव देशके भद्दलपुरके राजा थे। । वर्तमानमे यह नगर मेलया नामसे ग्वालियर रियासतमें है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग | १०६ (४) माघवदी वारसको आपका जन्म हुआ । इन्द्रादि देवोंने मेकपर ले जाना, अभिषेक करना मादि जन्म कल्याणकका उत्सव किया । (५) आपके साथ खेलनेको स्वर्गसे देव माते थे । और वस्त्राभूषण भी स्वर्ग से ही आया करते थे । (६) आपकी आयु एक लाख पूर्वकी थी और नव्वे धनुष ऊँचा सुवर्णके समान शरीर था । (७) माप पच्चीस हजार पूर्व तक कुमार अवस्थामें रहे 1 आपका विवाह हुआ था | (८) पचास हजार पूर्व तक आपने राज्य किया । (९) एक दिन आप क्रीड़ाके लिये जब वनमें गये तत्र पानीसे लदे हुए बादलोंको देखा पर तत्काल ही उन बादर्लोके विखर जानेसे आपको जगतकी अनित्यताका ध्यान हुआ और वैराग्य चितवन किया। तब लौकांतिक देवने आकर स्तुति की। (१०) माघ वदी द्वादशीको मापने तप धारण किया । इन्द्रदि देवोंने तप कल्याणक उत्सव मनाया । (११) पहिले दो दिनका उपवास धारण किया जिसके पूर्ण होनेपर अरिष्ट नगर के राजा पुनर्वसु के यहाँ आहार लिया । राजा पुनर्वसु के यहा इन्द्रादि देवोंने पंचाश्चर्य किये । " (१२) तीन वर्षतक तपकर मिती पौष वदी चतुदशी के दिन बीलके वृक्षके नीचे आपको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ | इंद्रादि 1 देवोंने केवलज्ञानका उत्सव किया । समवशरणकी रचना की । (१३) समवशरण समामें इस प्रकार चतुर्विध संघके मनुष्य थे | Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ प्राचीन जैन इतिहास। ८१ गणधर पूर्वज्ञानः घारी . १४००. in" . ५९२०० शिक्षक मुनि ७२०० अवधि ज्ञानी । ७००० केवलज्ञानी १२००० विक्रिया ऋद्धिक धारक' . ७६०० मनःपर्यय ज्ञानी ५७०० वादी मुनि ३८०००० घरणा मादि मार्यिकाएँ२००००० श्रावक . ४०.००० श्राविकाएँ (१४) समस्त आर्यखडमें विहारकर जब आयुमें एक मास शेष रहा तब आप सम्मेदशिखर पधारे और शेष काँका नाश कर आसोज सुदी अष्टमीको एक हजार साधुओं सहित सम्मेदशिखरसे मोक्ष गये । आपके मोक्ष मानेपर इन्द्रादि देवोंने निर्वाण कल्याणक उत्सव मनाया। (१५) भगवान् शीतलनाथके तीर्थके अंतिम समयमें भद्दलपुर नामक ग्रामके मेघरथ राजाने दान करनेका विचार मंत्रीसे प्रगट किया ।मंत्रीने शास्त्र, अभय, आहार, औपधि इन चार दानों के करनेकी सम्मति दी परंतु राजाने नहीं मानी और अपने पुरोहित भूतिशर्मा ब्राह्मणके पुत्र मुंडशालायनने हाथी, १ एक तीर्थकरके मोक्ष जाने के बाद दूसरे तीर्थकरके मोल जानेतकका बीचका समय पहिले तीर्थकरका तीर्थसमय कहलाता है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग) घोडा, कन्या, सुवर्ण आदि दश प्रकारका दान वामणादिको देनेकी सम्मति दी और यश व पुण्य. भादिका लोभ बताया । गृहस्थों रचित ग्रथोंमें इन दानोंकी विधि बतलाई । तर रानाने दश रकारके दान दिये । इसी समयसे ब्राह्मावणे भन धर्मका द्रोही होने लगा और इसी समयसे चार दानोंकी बजाय हाथी, घोड़े आदिका दान शुरू हुआ। पाठ वावीसवा। भगवान श्रेयॉसनाथ (ग्याहरवें तीर्थकर) (१) भगवान् शीतलनाथके मोक्ष जानेके एकसो सागर और छामठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक करोड सागर बाद आपका जन्म हुआ । आपके जन्मसे अस्सी लाख वर्ष कम आधे पक्ष्य पहिलेसे ही धर्म मार्ग बंद हो गया था। (२) ज्येष्ठ वदी छठको आप गर्भमें आये । माताने सोलह स्वप्न देखे । इन्द्रोंने आकर गर्भ कल्याणक उत्सव किया । गर्भ में आनेके छह मास पूर्वसे जन्म होने तक पंद्रह माह देवोंने रत्न वर्षा की। (३) आपके पिताका नाम विष्णु और माताका माग नंदा देवी था पिता विष्णु सिंहपुरके राजा थे । वंश इसाकु और गोत्र काश्यप था। (४) फागुन वदी ग्यारसके दिन आपका जन्म हुआ। आप १ वर्तमान सिंहपुर वनारसके पास है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल भाग । ११० Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । १११ (२) अश्वग्रीव पहिला प्रतिनारायण था । प्रत्येक प्रतिनारायण तीन खंडोंके (चक्रवर्त्तीसे आधे ) राज्यके स्वामी होते हैं इसी नियमके अनुसार प्रतिनारायण अश्वग्रीव तीन खंडका ( दक्षिण भरतक्षेत्रका ) स्वामी था। इसके यहाँ चक्ररत्न था । (३) विजयाई पर्वतकी दक्षिण बाजूका क्षेत्र दक्षिण भरतक्षेत्र कहलाता है । इस सब क्षेत्रको अधमीवने वश किया था और इस क्षेत्रके राजाओं को अपने आधीन कर लिया था । ( 8 ) इसकी आठ हजार रानियाँ थीं । (९) इसके समय में त्रिपृष्ठ नामक नारायण' उत्पन्न हुआ था | ( जिसका वर्णन आगेके पठमें है । ) अभ्वग्रीव के लिये किसी राजाके यहाँ से भेट आ रही यी उस भेंटको नारायण पृष्टने छुड़ा लिया | भेंटके साथ एक सिंह था उसे भी मार डाला | यह हाल सुनकर अश्वपीवने चिंतागति, मनोगत, नामक दो दूत भेजकर नारायण तृपृष्ठको आधीन होनेका संदेश भेजा जिसे नारयणने अस्वीकार किया। तब दोनोंका युद्ध होना निश्चय हुआ । पहिले तो सेना के साथ युद्ध होनेका निश्चय हुमा था, परंतु मत्रियोंके समझाने पर दोनोंका परस्पर युद्ध हुआ । जिसमें अश्वग्रीव हारा और उसका राज्य नारायणके आधीन हुआ । नारायणने अपने श्वरको विद्यावर श्रेणीका राजा बनाया है प्रतिनारायणका चक्र'त्न नारायणके यहाँ आया । 3 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पाठ चोवीसवाँ । नारायण तृपृष्ठ और बलदेव - विजय ( प्रथम नारायण और प्रथम बलदेव ) (१) पोदनपुर के राजा प्रजापति और महारानी भगवती पुत्र पृष्ठ इप युगके पहिले नारायण ये । (२) नारायण नृपृष्ठ भगवान् श्रेयास नाथके समयमें उत्पन्न हुए थे । इनका ही जीव पूर्व भवनें मारीचकी पर्याय में था जिसका वर्णन पाठ दशवे आया है । प्राचीन जैन इतिहास | (३) इनकी द्वितीय माताने उत्पन्न बड़े भाईका नाम विजय था जो कि चलदेव था । प्रथम बलदेव यही हुआ है । विजयकी माताका नाम जयावती था । (४) नारायण तृष्ट (९) तृष्ट और प्रेमा माकि तुम आयु चौरासी लाख वर्षकी थी । उन दोनों भाईयोंमें बहा भारी नहीं था । (६) नारायण तु पनि नारायण अचग्रोव (जिसका वर्णन पत्र २१ में किया गया है) को युद्धमे हराया तीन - दक्षिण भारती बने । (५) नारायण पान ती प्राय राज्य आदि विवृति अत्री हुलाकी है मलये नारायण को भी बदलने मनके अनुमान भी (८,१६ १७ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३, प्राचीन जैन इतिहास । (९) बलदेव-विजयके पास चार रत्न थे। . गदा १ माल २ हल । मूसल ४ (१९) नारायण तृटप्ठकी सोलह हजार रानिया थीं। (११) तृपृष्ठकी पट्टरानीका नाम स्वयंप्रभा था। और ज्येष्ठ पुत्र श्री विजय नामक था। इन्होने ज्येष्ठ पुत्रका विवाह अपने सालेकी कन्या "तारा" के साथ कियाथा। (१२) तृपृष्ठके पिता प्रजापति ने पिहिताश्रय मुनिके पास दीक्षा ली और कर्मोंका नाशकर मोक्ष गया। (१३) नारायण तृटष्ठ मरकर नरक गया | इनके भाई बलभद्रने भ्राताकी मृत्युपर बहुत शोक किया यहातहकि छह माहतक तृटप्ठ के शबको पीठपर रखे फिरते रहे। अंतमें मोह छूटनेपर जब आपको भान हुआ तब शवका दाहकर सुवर्ण कुंभ मुनिसे ७०० राजाओं सहित दीक्षा ली। और कोका नाश कर मोक्ष गये। (१३) नारायण का राज्य उनके पुत्र श्रीविजयको मिला ! और द्वितीय पुत्र विजयभद्र युवराज बनाये गये । (१४) राज्यके पुराहितने अपना भोजनकी थालीमे बोडी एडो देखो और मन्तक पर अग्निके फुलिगे उड़ते व पानीके छोटे पड़ते देखे | उसपरसे निमित्त ज्ञान द्वारा उसने रानासे यह फल कहा कि राज्याशनके ऊपर आकाशसे खड्न पडेगा तब निश्चय किया गया कि गादीएर महाराज श्री विजय न वेठकर उनकी मूर्ति रखी नाय और ऐसा ही किया गया। अतमें उस भूर्तिपर खग पहा और श्रीविजय बच गया । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । ११४ (१५) श्रीविनयकी स्त्री ताराको विद्याधर हर कर ले गया -था जिसे युद्ध द्वारा श्रीविजय वापिस लाया । पाठ पंचवीसवाँ । तीर्थकर वासुपूज्य (बारहवें तीर्थकर ) (१) भगवान् श्रेयांसनाथके चोपन सागर बाद वासुपूज्य तीर्थकर उत्पन्न हुए। इनके जन्मसे बहत्तर लाख वर्ष क्रम पोनपल्य (तीन चतुर्थाश ) समय पहिलेसे धर्ममार्ग बंद हो गया था। (२) आषाढ वदी छठको भगवान् वासुपूज्य माता के गर्म में आये | माताने सोलह स्वप्न देखे । गर्भमें आनेके छह माह 'पूर्वमे जन्म होने तक पद्रह माह रत्नोंकी वर्षा देवोंने की व गर्म कल्याणक उत्सव मनाया । ( 3 ) आपके पिताका नाम वसुपूज्य और माताका नाम जग्रावति था । वश इक्ष्वाकु और गोत्र काश्यप था । पिता वसुपूज्य चंपापुरीके राजा थे । यहा पर भगवान् वासपूज्यका जन्म फाल्गुन वदी चतुर्दशीको हुमा । इन्द्रादि देव ने मेरुपरंतपर ले जाना, अभिषेक करना आदि जन्म कल्याणकका टासव क्रिया । (४) आपकी मायु बहुत्तर काख वर्षकी थी और शरीर पिचहत्तर धनुष ऊँचा था । आपका वर्ण कुंकुंमके समान (लाल) था| (५) आपके साथ खेलनेको स्वर्गसे देव भाया करते थे और चहींसे आपके लिये वस्त्राभूषण आते थे । (६) भाप अठारह लाख वर्ष तक कुमार अवस्था रहे । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ प्राचीन जैन इतिहास । (७) आप बालब्रह्मचारी थे । कुमार अवस्थाके बाद आपको वैराग्य हुआ और फाल्गुन वदी चतुर्दशी के दिन छहसो छियत्तर राजाओं सहित तप धारण किया। चौथा मन:पर्ययज्ञान आपको उत्पन्न हुआ । और इन्द्रादि देवोंने तप कल्याणक उत्सव मनाया । (८) एक दिन उपवासकर दूसरे दिन महापुरके राजा सुंदरनाथके यहां आपने आहार लिया। देवोंने राजाके यहां पंचाश्चर्य किये । (९) एक वर्ष तपकर माघ सुदी द्वादशीके दिन केवलज्ञान प्राप्त किया । इन्द्रादि देवने समवशरण सभा बनाकर केवलज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया । (१०) आपकी सभा में इस भाँति चार प्रकारका संघ था६६ धर्म आदि गणधर १२०० पूर्वज्ञानधारी ५४०० अवधिज्ञान धारी १९२०० शिक्षक मुनि ६००० केवल ज्ञानी १०००० विक्रिया रिद्धिके धारी ६००० मन:पर्यय ज्ञानी ४२०० चादी सुनि १०६००० धरसेना आदि आर्यिकाएँ २००००० श्रावक ४००००० श्राविकाएँ (११) समस्त आर्यखंडमें विहार कर आयुमें एक हजार Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। वर्ष नव शेष रह गये तब चंपापुरमें पधारकर वहींपर समयशरण समामें आपकी दिव्यध्वनि द्वारा उपदेशादि हुए । एक मास मायुमें बाकी रह जानेपर दिव्यध्वनिका होना बंद हुअर तब मंदारगिरिक वनमें शेष कर्मोका नाशकर चोरानवे मुनियों सहित मादों सुदी चतुर्दशीको मोक्ष गये। ... (१२) आपके मोक्ष जानेपर इन्वादि देवोंने दाह क्रिया की और निर्वाण कल्याणकका उत्सव मनाया। पाठ छब्बीसवाँ । द्वितीय प्रतिनारायण-तारक । (१) भगवान् वासपूज्यके समयमें भोगवर्द्धनपुरके राजा श्रीधरके पुत्र तारक इस युगके द्वितीय प्रतिनारायण थे। (२) यह भी दक्षिण भरतखड-तीन खडके-स्वामी थे। (३) यह बड़ा प्रतापी परन्तु अन्यायी राना था। (४) मत्र इसकी आज्ञा हिपृष्ट नामक नारायणने नहीं मानी तर उनके नाश करनेके रिये इसने एक दूत भेजकर कहलाया कि तुम्हारे यहाँ जो गंघ नामक हाती है सो वह हमें दो नहीं तो तुम्हारा मस्तक काट लिया जावेगा । इसपर इनका परम्पर युद्ध हुआ । प्रतिनारायणने नारायण हिष्ठ पर चक्र चलाया चक्र, नारायणकी प्रदक्षिणा देकर उनके दहिने हाथमें व्दर गया तर नारायाने वरपर बलाया निमजे तारकको मृत्यु हुई और यह सात नरक गया। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ प्राचीन जैन इतिहास। पाठ सत्तावीसवा । . नारायण-हिपृष्ठ और बलदेव-अचल । (१) भगवान् वासपूज्यके समयमें द्वितीय नारायण और द्वितीय-बलदेव-नारायण हिपृष्ठ ( दूसरे नारायण ) और बलदेव अचल उत्पन्न हुए। - (२) ये दोनों भाई थे । द्विष्टष्ट छोटे और अचल बड़े भ्राता थे। (३) इनके पिता द्वारिका पुरीके राजा ब्रह्म थे । जिनकी सुभद्रा नामक महारानीसे अचल उत्पन्न हुए थे और दूसरी पूषा नामक रानीसे द्विष्टष्ठका जन्म हुआ। (४) नारायण द्विपृष्ठकी आयु वहत्तर लाख वर्षकी थी। और शरीर सत्तर धनुष ऊँचा था। (७) अचलका वर्ण कुंदके पुप्प समान सुंदर और डिप्टष्ठका नीला था। (६) उनके समयमें प्रतिनारायण तारक तीन खंडका स्वामी हुआ था। जिसे युद्धमें जीतकर द्विष्ठ तीनखंडके स्वामी हुए । इन पर तारकने चक्र चलाया था पर चक्रने इनकी प्रदक्षिणा दी और दहिने हाथमें आकर ठहर गया तब इन्होंने उसे तारक पर चलाया जिससे तारककी मृत्यु हुई। ' (७) और नारायणों के समान इनके यहा भी सात रन थे और अचलके पास चार रत्न थे। (८) इनकी सोलह हजार रानिया थीं और चक्रवर्तीसे आधी संपत्ति और राज्य था। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। ' ११८ (९) नारायण द्विष्टष्ट मरकर नरक गया । भाई अचलने बहुत शोक किया फिर दीक्षा धारण की और मोक्ष गये । समाप्त। परिशिष्ट “घ”। . समवशरणकी रचना। समवशरण केवलज्ञानियोंकी सभाका नाम है। अर्थात सर्वज्ञत्व प्राप्त होनेपर निस समामें दिव्यध्वनि हो उसे समवशरण कहते हैं। प्रत्येक तीर्थकरोंका समवशरण समान होता है। समवशरण देवोद्वारा बनाया जाता है। और यह आकाशमैं बनता है । पृथ्वीसे सभामें जानेतक सीढ़िया बना दी जाती हैं। यद्यपि समवशरण प्रत्येक तीर्थंकरोंके लिये समान ही बनाया जाता हैलंबाई चौड़ाई व रचना आदि समान ही होती है, पर पृथ्वीसे ऊँचाईका अंतर कम होता जाता है। भगवान् ऋषभदेवका समवशरण पृथ्वीसे जितने अंतरपर था दूसरे तीर्थंकरका उससे कम हुमा, तीसरेका और भी कम हुआ, इसी तरह चौवीसों वीर्थकरके समवशरणाका अतर पृथ्वीसे कम होता गया था। समवशरणकी रचना इस माति होती है(क) पहिले ही रत्नोंकी धूलिका बना हुआ धूलिसाल होता है। उसके बाद मानस्तंभ होता है जिसे देखते ही अमिमानियों का मान गलित हो जाता है। १ मानस्तमका चित्र परिशिष्ट "व" में दिया गया है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ प्राचीन जैन इतिहासा(ख) मानस्तंभके आस पास वावड़ियां होती हैं। (ग) मानस्तंभसे आगे चलकर लता-वन होते हैं जिनमें छहों ___ऋतुओंके फल-फूल लगे रहते हैं। (घ) लता-वनसे आगे पहिला कोट है जिसकी क्रांति रत्नके समान होती है। इसके दरवाजेपर देव लोग द्वारपालका कार्य करते हैं और इसके छज्जोंपर आठ मंगल द्रव्य रक्खे रहते हैं। (ड) इस पहिले कोटके दरवाजेके अनतर दोनों ओर दो नाटय शालायें होती हैं। (च) नाट्यशालाओंके आगे मार्गके दोनों ओर दो धूपघट रहते हैं। (छ) इससे आगे, मार्गके दोनों ओर दो दो, वन होते हैं। ये चारों वन आम, सप्तपर्ण, अशोक और चंपाके हुआ करते हैं। इन वनोंमें चैत्यवृक्ष होते हैं। जिनमें जिनेन्द्र भगवान्की मूर्ति होती है । इन बोंके बाद वनकी वेदी रत्नोंसे नड़ी हुई होती है। () वनकी वेदीके बादकी भूमिपर एकसो आठ ध्वजायें होती हैं इन ध्वनाओंपर सिंह, वस्त्र, कमल, मयूर, हाथी, गरुड़, पुष्पमाला, बैल, इस और चक्र ये दश चिन्ह होते है। (झ) इसके बाद दूसरा कोट रहता है यह चांदीका होता है। इसके दरवाजे के बाद दोनों ओर फिर दो नाटयशालाएं (ञ) इनके बाद कल्पवृक्षोंका वन होता है। इस वनमें सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं जिनमें सिद्ध परमेष्टीकी प्रतिमा रहती है। इस बनकी भी वेदी रहती है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। (ट) वेदीके बाद बड़े बड़े तीन चार और पांच मजिलके मकान होते है। इनमें देवगण रहते हैं। (3) मकानों के बाद स्तूप रहते हैं जिनपर भगवान्की प्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं। (ड) स्तूपोंके बाद स्फटिकमणिका तीसरा कोट होता है । इस कोटके दरवाजेपर कल्पवासी जातिके देव महाद्वारपालका कार्य करते हैं। ___ नोट-समवशरणका आकार गोल होता है । अपर लिखी रचना एक दिशाकी है। इसी प्रकार चारों दिशाओंकी रचना समझना चाहिये। (द) तीसरे कोटके बाद एक योनन लंबा और एक योजन चौडा गोल श्रीमंडप होता है यही सभास्थान है। (ण) इसके बीचमें तीन कटनीकी गंधकुटी होती है जिसमें पहिली क्टनीपर चारों ओर यक्षों के इन्द्रोंके मस्तकों पर चार धर्मचक्र होने हैं, दूसरी कटनीपर चक्र, हाथी, बैल, कमल, सिंह, पुष्पमाला, वस्त्र, गरुड़ इन आठों चिन्होंको आठ महाध्वजाय होती है। तीसरी कटनीपर गधकुटी होती है गधकुटीके भीतर रत्नोंका सिहासन होता है। निसपर तीर्थकर या केवली भगवान् विराजमान होते है । सिंहासनके ऊपर तीन छत्र रहते है । सिंहासन के पास अशोकवृक्ष होता है । महतक मस्तकके आसपास प्रभामंडल रहता है निमका प्रकाश मूर्यके समान होता है और जिसमें प्रत्येक देखनेवाले प्राणीके सात सात भूत, भविष्यत् बालके भव दिखाई देने है। (स) अहंतके चार मुख चारों दिशाओंमें टीखते हैं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। - १९२० परिशिष्टमें जो कुछ लिखा गया है वह सब चौवीस तीर्थकरोंके जीवन संबंधीं समझना चाहिये। (१) तीर्थकगेंका शरीर-तीर्थंकरों के शरीरमें साधारण मनुप्यके शरीरसे निम्नलिखित विशेषतायें होती हैं। (क) संसारके दूसरे मनुष्योंमें न पाया जाय ऐसा रूप । (ख) सुगंधयुक्त शरीर। (ग) शरीरमें पसीना न होना। (घ) मल-मूत्रका न होना। (ङ) इनके सब वचन मीठे और हितरूप होते हैं। (च) किसीमें न पाया जाय इतना (अनुपम) बल | (छ) सफेद रुधिर (खून)। (ज) शरीरमें एक हनार आठ लक्षण । (झ) शरीरके आंगोपांगोंका यथोचित स्थानपर-सममागमें होना। (ल) वजवृषभनाराचसहनन (किसी भी तरहसे छिद-मिद न सके ऐसा शरीर) ये जन्मके दश अतिशय कहलाते है। (२) पंच कल्याणक-प्रत्येक तीर्थकरके पंच कल्याणक उत्सव इन्द्रादि देवों द्वारा किये जाते है अर्थात गर्भके समय, जन्मके समय, तपके समय, केवलज्ञान प्राप्त होनेपर और मोक्ष मानेपर | ये पांचों कल्याणकोत्सव सब तीर्थंकरोंके एकसे होते हैं। इन उत्सवोंमें इस भाति कार्य किया जाता है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ मार्चान जैन इतिहास १ गभ कल्याणक उत्सव(क) गर्भमें आनेके छह माह पहिलेसे इन्द्रादि देवों द्वारा प्रतिदिन तीन वार साड़े दश करोड़ रस्नोंकी वर्षा होना। (ख) पंद्रह मास पहिलेसे जन्म नगरकी विशाल रूपसे सुदरता पूर्वक देवों द्वारा रचना होना. और उसमें माता-पिताके लिये रानभवनका देवों द्वारा बनना। (ग) भगवान्के गर्भ में मानेपर इन्द्रादि देवों द्वारा नगरकी प्रदक्षिणा देना। (घ) गर्भ में आनेके पहिले देवियों द्वारा माताका गर्भ संशो धन होना और गर्भमैं मानेपर देवियों द्वारा माताकी सेवा होना। (ड) गर्ममें अन्य बालकोंकी भाति उलटे न रहकर सीधे ___ रहना (सिंहासनपर)। (च) माताका सोहल स्वैम देखना। (छ) माता-पिताका अभिषेक देवों द्वारा होना । २ जन्म कल्याणक उत्सव(क) मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान युक्त उत्पन्न होना। (ख) जन्म होनेपर स्वर्गमें इस भाति घटनायें होना। १ कल्पवासी देवोंके यहाँ स्वयमेव घंटोंका बनना। २ ज्योतिषियोंके यहाँ सिंहनादका स्वयमेव होना । १ सोलह स्वप्न महाराज नाभिगयके पाठ पाचवेनें बतलाये गये हैं ये ही सोल स्वप्न तीर्थंकरोंकी माताओंको आते है। - - - - - - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भधम भाग 1. १२४ ३ भवनवासियोंके यहाँ ध्वनिका स्वयं होना । ४ व्यंतरोंके यहाँ तासका बनना । ५ इन्द्रका आसन कॅपने लगना । (ग) आसनके कँपने - हिलने पर इन्द्र अवधिज्ञान से तीर्थकर के उत्पन्न होने का हाल जानता है और उसी समय आसन से उठकर नमस्कार करता है । फिर वह एक लाख योजनका हाथी विक्रियासे बनाता है जिसकी सात सूडें होती है । इसे ऐरावत । हाथी कहते है । प्रत्येक सुँडपर दो दात और प्रत्येक दातपर एक २ तलाव बनाता है, प्रत्येक तलाव में एकसो पच्चीस कमलिनिया नाता है, जिनमें एक सो आठ पाखुडो के पच्चीस पच्चीस कमलके फूल होते है, कमलके फुलकी प्रत्येक पाखुड़ीपर अप्सरायें नृत्य करती हैं । ऐसे हाथीपर चढ़कर प्रथम स्वर्गके इन्द्र व इन्द्रानी तथा और भी इन्द्र, मय अपने परिवार और देवोंकी प्रजाके साथ भगवान्के जन्म-नगरमें आते है । और उस नगरकी तीन प्रदक्षिणा जय जय शः बोलते हुए देते हैं । फिर इन्द्रानीको प्रसूति गृहमें भेजते हैं वहाँ इन्द्रानी मायारूप दूमरा चालक रखकर तीथकरको उठा लाती है और इन्द्रके हाथोंमें देती है, तब इन्द्र उन्हें नमस्कार करता है और उनके सुंदररूपको देखने के लिये एक हजार नेत्र बनाता है तो भी तृप्त नहीं होता। फिर प्रथम स्वर्गका इन्द्र भगवान्को उस हाथीपर गोदी में बिठलाकर मेरु पर्वतपर जाता है । मार्ग में ईशान इन्द्र भगवान्पर छत्र लगाता है ' और सनत्कुमार व महेन्द्र नामक इन्द्र चेंबर ढालते हैं । बाकीके Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ प्राचीन जैन इतिहास । इन्द्रादि 'जय' शब्दका उच्चारण करते हुए जाते हैं । मेरु पर्वतपर पहुंचकर उस पर्वतके पाडुकचनमें जो अईचद्राकार पांडुकशिला ( रत्नमय ) है इस शिलापरके रत्नों के मडपमें सिंहासन रखकर पूर्व, दिशाकी ओर मुंहकरके भगवानको विराजमान करते हैं। इस शिलापर अष्टमगल द्रव्य भी रहते हैं । इस समय अनेक प्रकारके बाजे बजते हैं । इन्द्रानियों मंगल-गान गाती है। अप्सरायें नाटक करती हैं। ऐसे उत्सव करते हुए क्षीरसागरके जलसे एक हजार आठ कलशों द्वारा सौधर्म और ईशान इन्द्र भगवानका अभिषेक करते हैं । क्षीरसागरसे मेरु पर्वत तक देवगण जलको हाथोंहाथ ( एकके हाथसे दूसरेके हाथमें देकर ) पहुँचाते हैं । जिन कलशोंसे अभिषेक किया जाता है उनका मुह एक योजनका, भीतर हिस्सा चार योजनका होता है और लंबाई आठ योजनको होती है । अभिषेकके बाद इन्द्र स्तुति करता है और भगवान का नाम प्रगट करता है । इन्द्रानिया भगवान्का शृगार करती है । इस प्रकार मेरु पर्वतपर क्रिया करनेके बाद माता-पिताके यहा लाते है और माताको देकर बहुत हपं मनाते हुए कुवेरको उनकी सेवामे छोड़कर सब इन्द्र व देव अपने अपने स्थानपर जाते है। (घ) भगवान के साथ खेलनेको स्वर्गसे देवगण बालकका रूप धारण करके आते है। (ढ) भगवान् के लिये वस्त्राभूषण स्वर्गसे ही आते हैं। (च) तीर्थकर किसीके पास नहीं पढ़ते । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग तप कल्याणक उत्सव'(क) वैराग्य होने ही लौकातिक देवोंका आना, स्तुति करना और वैराग्य धारणके मावोंकी प्रशंसा करना। (ख) इन्द्रादि देवोंका पालकी लेकर आना। (ग) कुछ दूर तक राजाओं द्वारा पालीका वनकी ओर ले माना फिर देवों द्वारा आकाश मार्गसे वनको ले जाना। (घ) देवोंका स्तुति, पूना और अभिषेक करना । (ट) तीर्थकर अन्य पुत्पोक समान तप धारण करते समय 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः ' धडकर केशलोंच नहीं करते वितु " नमः सिद्धम्यः " कहकर करते हैं । लौंच किये हुए केशोंको इन्द्र रत्नके टिपारेमें रखकर ले जाता है और क्षीरसागर, क्षेपण (डालता) करता है। (च) तप धारण करनेके बाद तीर्थर पहिले पहिल जिसके यहाँ माहार करते हैं उसके यहाँ पंचाश्चर्य होने हैं अर्थात् देवगण रत्नवा १ गंधोदककी वर्षा १ आदि करते है। ४ ज्ञान कल्याणक उत्सव (क) केवलज्ञान होनेपर जान कल्याण किया जाता है। केनलज्ञान होते ही इस प्रकार अतिशय होते हैं। (क) सौ योजन लंबे चौड़े क्षेत्रमें सुझाल हो जाता है। - (ख) केवलज्ञानी होनेपर आनाश गमन करने लगते हैं। (ग) चारों दिशाम चार मुख दीखते हैं। यद्यपि होता एक ही है, पर अतिशयसे चार दिखाई देते हैं। १ लीफोषिक देव पाच स्वर्गमें होते है। ये ब्रह्मचारी होते है । माद आते। सान कल्याण Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ प्राचीन जैन इतिहास। (घ) किसीके द्वारा उपसर्ग नहीं होता और न कोई वैर करता है। (ड) कवलाहार नहीं करते ( केवली होनेपर भोजन-पानकी आवश्यकता नहीं रहती)। (च) सम्पूर्ण विद्याभोंके स्वामी हो जाते हैं। (छ) ईश्वरत्व प्रगट हो जाता है। (ज) नख और केश नहीं बढते । (झ),पलक नहीं लगते। (अ) शरीरकी छाया नहीं पड़ती। (ख) उक्त दश अतिशयोंके सिवाय देवों कत चौदह अतिशय नीचे लिखे मुताविक होते हैं। (क) केवलीका उच्चारण अर्धमागधी भाषारूप हो जाना । नोट-केवल ज्ञानियोंका उचारण अनक्षर होता है अर्थात कठ, तालु नादि अगों की सहायताके विना ही मेघोंकी वनिके समान होता है उसे देवगण अर्धमागधी भाषारूप कर देते हैं। तथा आपकी अनिमें एक अतिशय यह भी होता है कि सब प्राणी (पशु तक) उसे अपनी अपनी भाषामें समझ लेने है। यइदिव्य पनि विना इच्छाके होती है। (ख) जीवों में परस्पर मैत्री। (ग) दिशाभोंका निर्मल हो जाना। (घ) आकाशका निर्मल हो जाना। (ड) छहों ऋतुओंके फल-फूलॊका एक साथ फलना । (च) पृथ्वीका काचके समान निर्मल हो जाना। (छ) विहार करते समय देवों द्वारा चरणों के नीचे कमलोंका रचा जाना। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । १२८ नोट- भगवानका विहार भी बिना इच्छा होता है । विहार करने समय भाव अघर - भाकाशमेंटने और care arisi कमल रचते जाते हैं । (ज) विहारके समय जय जय शब्दका होना । (झ) मंद मंद सुगंधित वायुका चरना । (ञ) सुगंधित जल ( गंघोदक ) की वर्षा होना । (ट) भूमिका कंटक रहित हो जाना । (ठ) पृथ्वीपर हर्ष ही हर्षका होना । (ड) धर्मचक्रका आगे चलना ( विहार के समय यह चक्र आगे आगे चलता है ) । (a) अष्टमंगळ द्रव्योका आगे चलना । (ग) केवलज्ञान होनेपर भगवान् की समवशरण नामक एक सभा बनाई जाती है । इस सभाका पूरा वर्णन परिशिष्ट 'घ' दिया गया है। (घ) केवलज्ञान होने पर निम्नलिखित माठ प्रातिहार्य होते है । (क) मशोक (ख) सिंहासन (ग) तीन छत्र (घ) मामडल (ड) दिव्यव्वनि (ज) पुप्पवृष्टि (छ) चौसठ चमर Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ प्राचीन जैन इतिहास। (ज) दुंदुभी बाजे (ड) केवलज्ञान होते ही भगवान् अनंतचतुष्टययुक्त हो जाते हैं। . १ अनंत दर्शन, २ अनंत ज्ञान, ३ अनंत सुख, ४ अनंत वीर्य । (च) भगवान्के भामंडलमें प्रत्येक मनुष्यके सात भव मूतकालके और सात भविष्यके दीखते हैं। ५ मोक्ष कल्याणक उत्सव (क) स्वर्गसे इन्द्रादि देवोंका आना और शरीरका चंदनादिके साथ अग्निकुमार जातिके देवोंके मुकुटकी अग्निसे दाह करना। (ख) भस्म मस्तकपर लगाना । (ग) स्तुति, पूना आदि करना । (२) परिशिष्ट "" (चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदिके जीव ___ नकी समान घटनायें) (१) चक्रवर्तीः (क) प्रत्येक चक्रवर्तीके मल-मूत्र नहीं होता । (ख) चक्रवर्तियोंके छयानवे छयानवे हमार रानियाँ होती हैं। (ग) चक्रवर्ति व्ह खंड पृथ्वीका स्वामी होता है । छह खंड पृथ्वी-पांच म्लेच्छ खंड और एक आर्य खंड जिसका Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग । १३० कि विजय चक्रवर्ती करता है । इसका वर्णन भरत चक्रवर्तीके पाठ किया गया है वहाँ देखना चाहिये । (घ) चक्रवर्ती की संपत्ति - भरत चक्रवर्ती के पाठ में जो वताई गई है - होती है । प्रत्येक चक्रवर्तीकी उतनी ही संपत्ति समझना चाहिये । (ङ) प्रत्येक चक्रवर्ती में छह खंडके सम्पूर्ण प्राणियोंके बल से कई गुनवल होता है । (च) चक्रवर्तियों के शरीर में चौंसठ लक्षण होते हैं। (२) बलदेव: (क) बलदेव नारायण के बड़े माई होते हैं । यद्यपि नारायण और वलदेव एक ही पिताके पुत्र होते हैं, पर मातायें दोनोंकी न्यारी न्यारी होती हैं । (ख) बलदेवके लिये चार रत्न उत्पन्न होते हैं । इनके नाम विजय नामक पहिले बलदेवके वर्णनसे जानना चाहिये जो कि पाठ चौवीस में दिया गया है । W (ग) बलदेव और नारायणमें दूसरोंमें न पाया जाय ऐसा परस्पर प्रेम होता है । (घ) नारायण के मरने पर चलदेव उसके शवको छह महीने लेकर इधर-उधर फिरते हैं । उस वक्त वे समझते हैं कि भाई नाराज हो गया है । (ड) इनके भी मल मूत्र नहीं होता । (३) नारायण (क) इनके शरीर में भी मल-मूत्र नहीं होता । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ प्राचीन जैन इतिहास। परिशिष्ट "ज"। पुराणकारों में परस्पर मतभेद । इस पुस्तकमें (प्राचीन जैन इतिहास) जो कुछ लिखा गया है वह जैनसमाजके अनन्य श्रद्धास्पद भगवान् जिनसेन और गुणभद्रके मतसे लिखा गया है, पर अन्य प्रथकारोंका इनसे किसी किसी घटनामें मतभेद है । यहां वही दिखलाया जाता है। (१) भगवान ऋषभदेवके गर्ममें आनेकी निथि आदिपुराणकार श्रीजिनसेनस्वामीने आषाढ मुदी दून मानी है । और हरिवंशपुराणकार जिनसेनस्वामीने आषाढ वदी द्वन मानी है। । (२) भगवान् ऋषभदेवकी स्त्रियोंका नाम आदिपुराणकार यशस्वती और सुनदा बतलाते हैं; पर हरिवंशपुराणकारने नंदा और सुनंदा लिखा है । संभव है कि यशस्वतीका उपनाम नंदा भी हो। (३) मादिपुराणकारने सोमप्रम, हरि, अकंपन और काश्यपको कुरु आदि चार वंशोंके स्थापक माना है; पर हरिवंशपुराणकार-कुरु आदि वंशोंके स्थापक भगवान् ऋषभहीको मानते हैं। () आदिपुराणकारने हरिवंशकी उत्पत्ति भगवान् ऋषभके समयमें महामंडलेश्वर " हरि" के द्वारा बतलाई है; पर हरिवंशपुराणकार लिखते हैं कि शीतलनाथ भगवान के तीर्थ समय में चंपापुरीके राजा हरिसे हरिवंशकी उत्पत्ति हुई। (५) ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्तिके संबंधमें आदिपुराणकारने लिखा है कि भरत चक्रवर्तीको जब दान देनेकी इच्छा हुई तब Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग १३४ उन्होंने अपने अधीनस्थ राजाओंके सदाचारी मित्र व कर्मचारियोंको बुलाया और उनकी परीक्षाकर व्रती श्रावकका चाह्नण वर्ण स्थापन किया और इस वर्णकी स्थापना समाचार स्वयं चक्रवर्तीने भगवान ऋषमसे निवेदन किये। इस संबंध में पद्मपुराणकार लिखते हैं कि जब भगवान् ऋषभका समवशरण अयोव्याके समीप आया तत्र चक्रवर्तीने भगवान्पे मुनियोंका स्वरूप पूछा । भगवान्ने जब मुनियोंके स्वरूपको बतलाया तब भरतने मुनियाँको निम्ह जान श्रावकों को दान देनेकी इच्छा की और भोजनार्थ बुलाया | उनमें जो श्रावक वनस्पतिको पावोंसे रूंद हुए नहीं आये उनका चक्रवतीने सन्मान किया और उन्हींका ब्राह्मण वर्ण बनाया | चक्रवर्तीके द्वारा इस प्रकार सन्मानित होनेके कारण कई ब्राह्मण गर्विष्ट ( अभिमानी ) हो गये और कई लोभके कारण धनिकों से याचना करने लगे। तब मतिसमुद्र मंत्रीने कहा कि मैंने भगवान् ऋषभके मुख से समवशरण में सुना हैं कि ब्राह्मण वर्ण पंचम कालमें धर्मका विरोधी होगा । इसपर भरत ब्राह्मणोंपर क्रोधित हुए । तब ब्राह्मण भगवान् के पास गये । भगवान्ने भरतसे कहा कि भविष्य ऐसा ही है अतएव तुम काय मत करो । (६) भगवान् अजितनाथके साथ एक हमार राजाओंने दीक्षा ली ऐसा भगवद्गुणभद्रका मत है। रविषेणाचार्य दश हजार राजाओ सहित अजितस्वामीका दोक्षा लेना बतलाते हैं । (७) उत्तरपुराणकार गुणमद्रस्वामीने चक्रवर्ती सगर के साठ हजार पुत्रोंका मणिकेतु नामक देवके द्वारा कैलाशकी खाई खोदते > Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग। .. १३६ (६) भगवान् अजितनाथको स्त्रीका नाम सुनयानंदा था। (प. पु.) (७), सगर चक्रवर्तीकी माताका नाम सुबाला और पिताका नाम समुद्रविजय उत्तरपुराणकारने लिखा है और पद्मपुराणमें विनयसागर पिताका नाम व माताका नाम सुमंगला लिखा है । भाव देखनेसे पिताका नाम तो दोनोंके मवसे ठीक वैठ जाता है पर माताके नाममें अंतर रहता है। . (८) सगर चक्रवर्ती के विवाहके विषयमें पद्मपुराणमें लिखा है कि " भरतक्षेत्रके विजयाई पर्वतकी दक्षिण श्रणीके चक्रवाल नगरके राजा पूर्णवर विद्याधरने तिलक नगरके नरेश सुलोचनुकी कन्यासे विवाह करना चाहा, पर सुलोचनने उसे नहीं दी, सगर चक्रवर्तीको देना चाहा । इसपर दोनोंका युद्ध हुआ । मुलोचून युद्ध में मारा गया। तब सुलोचनका पुत्र सहस्रनयन अपनी बहिन उत्पलमतीके साथ भाग कर वनमें छिप गया । इधर । चक्रवर्तीको मायामई मश्व उड़ा कर उसी वनमें नहीं सहस्त्रनयन छिपा था, ले गया। वहाँ सहस्त्रनयनने उत्पलमतीके साथ सगरका विवाह किया। यही उत्पलमती सगर चक्रवर्तीका स्त्रीरत्न थी। परिशिष्ट "झ”। विद्याधर। . इस पुस्तक पहिले पाठमें भरतक्षेत्रके मानचित्रमें मो विनयाई पर्वत दिखलाया गया है उसके ऊपर दक्षिण और उत्तरकी श्रेणी में रहनेवाले मनुप्य विद्याधर कहलाते थे। ये प्राय Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७५ प्राचीन जैन इतिहास। अग्नी विद्याओं के बलसे आकाशमें चलते फिरते थे और आकाश मार्ग ही से प्रायः युद्ध करते थे । इनके बहुतसे कार्य विद्या बलसे होने के कारण ये विद्याधर कहलाते थे । आकाश मार्गमें ये लोग विमानों के द्वारा भ्रमण करते थे। इन विमानोंकी गति बहुत तीव्र हुआ करती थी। ये लोग आर्यखंडके रहनेवालोंसे भूमिगोचरी कहते थे । इतिहासके देखनेसे ज्ञात होता है कि भूमिगोचरी थी विद्याधर हो सकते थे । विद्याघरोंको विद्याएँ तीन मार्गोसे मायः प्राप्त हुआ करती थीं । पहिला माग-वित्रा सिद्ध करना, दूसरा मार्ग अपने पूर्वनोंसे प्राप्त करना और तीसरा माग घरणेन्द्र आदि देवोंद्वारा प्राप्त होना । ये सब विद्याएँ प्रायः देवोंके आधीन हुआ करती थीं । अर्थात् विद्या संबंधी सर्व कार्य देव किया करते थे। विद्याओं के बलसे विद्याधर क्षणमात्रमें नगर बना और वसा देते थे। मनुष्यों के कई रूप बना लिया करते थे । सारांश यह कि जो ये चाहते वही तत्क्षण बननाया करता था । वर्तमान अवसपिणी कालमें विद्याधरोंके सवसे पहिले राना नमि विनमी हुए हैं। ये भूमिगोचरी थे । और जब भगवान आदिनाथने कुटुम्बियों आदिको राज्य वितरणकर तप धारण कर लिया था तब उक्त दोनों भाइयोंने बोकर भगवान्मे राज्य मागा था उस समय धरणेन्द्रने इन्हें कई विद्याप देकर विद्याघरोंकी दोनों श्रेणियों के राजा बना दिये थे । विद्याधर अपनी कन्याएं भृनिगोचरीको भी दिया करने थे और लेते भी थे । नमि विनमिने अपनी वहिन समद्राका विवाह भरत चक्रवर्ती से किया था जो कि भूमिगोचरी थे। आकाश मार्गसे युद्ध करनेपर भी भूमिगोचरी इन्हें जीत भी सकते Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रथम भाग | १३८ थे । पर उसके लिये बड़े बलकी आवश्यकता होती थी । भूमिगोचरी भी विद्याएँ रखते थे, पर बहुत कम । विद्याधरोंका युद्ध भी प्राय विद्याओंसे हुवा करता था । एक पक्ष विद्याओंसे सर्प छोडकर शत्रु पक्षके योद्धाओको कष्ट देता तो दूसरा पक्ष गरुड़ोको छोड़ता था । कभी एक पक्ष बादलोंको बना और जल वर्षाकर कटकमें अन्धकार करता तो दूसरा पक्ष दूसरी जातिको विद्यासे उसे दूर करता । इसी प्रकार विद्याओं और बाणोंसे युद्ध हुआ करता था | पृथ्वीपर भी युद्ध करते थे । भगवान् वासुपूज्यके समय तक विद्याधरों में ऐसे कोई प्रसिद्ध पुरुष नहीं हुए है जिनके कारण वहाँके इतिहास में कुछ परिवर्तन हुआ हो । मौर यद्यपि इनके आचार विचार आर्यखंडके मनुष्योंही के समान प्राय होते थे पर तो भी इनकी जाति आर्यखंडके निवासियों से पृथक होनेके कारण हमने इस भागमें इनका कुछ विशेष वर्णन नहीं दिया हैं | Page #143 -------------------------------------------------------------------------- _