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________________ प्रथम भाग तप कल्याणक उत्सव'(क) वैराग्य होने ही लौकातिक देवोंका आना, स्तुति करना और वैराग्य धारणके मावोंकी प्रशंसा करना। (ख) इन्द्रादि देवोंका पालकी लेकर आना। (ग) कुछ दूर तक राजाओं द्वारा पालीका वनकी ओर ले माना फिर देवों द्वारा आकाश मार्गसे वनको ले जाना। (घ) देवोंका स्तुति, पूना और अभिषेक करना । (ट) तीर्थकर अन्य पुत्पोक समान तप धारण करते समय 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः ' धडकर केशलोंच नहीं करते वितु " नमः सिद्धम्यः " कहकर करते हैं । लौंच किये हुए केशोंको इन्द्र रत्नके टिपारेमें रखकर ले जाता है और क्षीरसागर, क्षेपण (डालता) करता है। (च) तप धारण करनेके बाद तीर्थर पहिले पहिल जिसके यहाँ माहार करते हैं उसके यहाँ पंचाश्चर्य होने हैं अर्थात् देवगण रत्नवा १ गंधोदककी वर्षा १ आदि करते है। ४ ज्ञान कल्याणक उत्सव (क) केवलज्ञान होनेपर जान कल्याण किया जाता है। केनलज्ञान होते ही इस प्रकार अतिशय होते हैं। (क) सौ योजन लंबे चौड़े क्षेत्रमें सुझाल हो जाता है। - (ख) केवलज्ञानी होनेपर आनाश गमन करने लगते हैं। (ग) चारों दिशाम चार मुख दीखते हैं। यद्यपि होता एक ही है, पर अतिशयसे चार दिखाई देते हैं। १ लीफोषिक देव पाच स्वर्गमें होते है। ये ब्रह्मचारी होते है । माद आते। सान कल्याण
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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