SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२५ प्राचीन जैन इतिहास । इन्द्रादि 'जय' शब्दका उच्चारण करते हुए जाते हैं । मेरु पर्वतपर पहुंचकर उस पर्वतके पाडुकचनमें जो अईचद्राकार पांडुकशिला ( रत्नमय ) है इस शिलापरके रत्नों के मडपमें सिंहासन रखकर पूर्व, दिशाकी ओर मुंहकरके भगवानको विराजमान करते हैं। इस शिलापर अष्टमगल द्रव्य भी रहते हैं । इस समय अनेक प्रकारके बाजे बजते हैं । इन्द्रानियों मंगल-गान गाती है। अप्सरायें नाटक करती हैं। ऐसे उत्सव करते हुए क्षीरसागरके जलसे एक हजार आठ कलशों द्वारा सौधर्म और ईशान इन्द्र भगवानका अभिषेक करते हैं । क्षीरसागरसे मेरु पर्वत तक देवगण जलको हाथोंहाथ ( एकके हाथसे दूसरेके हाथमें देकर ) पहुँचाते हैं । जिन कलशोंसे अभिषेक किया जाता है उनका मुह एक योजनका, भीतर हिस्सा चार योजनका होता है और लंबाई आठ योजनको होती है । अभिषेकके बाद इन्द्र स्तुति करता है और भगवान का नाम प्रगट करता है । इन्द्रानिया भगवान्का शृगार करती है । इस प्रकार मेरु पर्वतपर क्रिया करनेके बाद माता-पिताके यहा लाते है और माताको देकर बहुत हपं मनाते हुए कुवेरको उनकी सेवामे छोड़कर सब इन्द्र व देव अपने अपने स्थानपर जाते है। (घ) भगवान के साथ खेलनेको स्वर्गसे देवगण बालकका रूप धारण करके आते है। (ढ) भगवान् के लिये वस्त्राभूषण स्वर्गसे ही आते हैं। (च) तीर्थकर किसीके पास नहीं पढ़ते ।
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy