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________________ ३६ (२३) सबसे पहिले भगवान् ने ईख - साटोंके रसको संग्रह करनेका उपदेश दिया था इससे भगवान् इक्ष्वाकु कहलाये और इसीके कारण आपके वंशका नाम इक्ष्वाकुवंश प्रसिद्ध हुआ । प्रथम भाग - (२४) भगवान्ने ४४१६२८००००००००००००००० वर्ष राज्य किया था । 000 (२५) भगवान्ने कच्छ महाकच्छ आदि नरेशोंको अधिराज पद दिया और अपने पुत्रोंके लिये भी राज्य - विभाग कर दिया था। (२६) भगवान् ने अपना समय सदा परोपकार में लगाया और लोगोंकी इच्छानुसार दान दिया । (२७) एक दिन भगवान् राजसभामें बैठे थे कि भगवान्की सेवा व पूजा करने व उनका मनोविनोद करनेके लिये इन्द्र आया । उसके साथमें नृत्य करनेवाली अप्परा व गंधर्व जातिके-गाने --- बजानेवाले देव भी थे । नीलांजना नामक अप्सराका नृत्य इन्द्रने कराया । इस अप्सराकी आयु बहुत ही थोड़ी रह गई थी अर्थात् नृत्य करते करते ही उसकी आयु पूरी हो गई । यद्यपि इन्द्रने ऐसा प्रबंध कर दिया कि उसके नष्ट होनेके साथ ही दूसरी अप्सरा उसीके रूपकी होकर नृत्य करने लगी, और दूसरे सभासद इसको समझ भी न सके, परंतु बहुज्ञानी भगवान्‌ने समझ लिया और संसारको असार समझ आपका चित्त वैराग्यकी ओर लग गया । यह देखते ही लौकांतिक देवोंने स्तुति की और भगवान के वैराग्य चितवनकी (२८) भगवान् ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरतको अपने सम्राट् पद आकर भगवान्की प्रशंसा की ।
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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