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________________ 1. प्रथम भाग । ५० और यहाँ विजय प्राप्त की । वहाँसे चलकर रास्ते में विंध्याचल पर डेरा दिये । भरतकी सेना विंध्याचलकी नर्मदा नदीके दोनों ओर ठहरी थी । यहाँ के जंगली राजाओंने भी भग्तकी आधोनता स्वीकारकर मोतियों आदिकी पैंटें दी थीं। रास्ते के मत्र राजा भरतकी आधीनता स्वयं स्वीकार की और लाट देशके राजाओं को भरतने कालाटिक पत्र स्वामीका मनिप्राय समझ उनकी आज्ञानुसार काम कालाटिन कहलाते हैं। मोस्ट देशके राजाओंको वशंकर भरत गिरनार पर्वतपर पहुँचे और यह ममझकर कि इस पर्वतमे आगामी बावीसवें तीर्थकर नोमनाथ मोक्ष जावेगे उपने गिरनारकी प्रदक्षिणा की। इस प्र' पश्चिम दिशाके सत्र जाओंको नीतकर वह पश्चिम समु के किनारे पहुँचे और उप समुद्र स्वामी प्रभा नामक देवको पूर्व दिशामें निम पकार विजय की थी उस प्रकार जता । प्रभाक नामक देव सुवर्णका जाल और मोतियों का जल तथा कलरवृक्षोंके फूलों की माला भेंट में दी । पश्चिम दिशा विजयकर उत्तर दिशाक विजयको भरत चक्रवर्ती चला। रास्तेके सर्व गनाओंको वश करते इसकी सेना जाने लगी और पहुँची । हम पर्वतकी शिखर सफेद था क्योंकि यह पर्वत 1 1 दिया [ जो करते हैं वे हुए सिंधु नदीके किनारे किनारे अंत में विजयाई पर्वत पर जाकर अणियोंकी हैं। और इसका वर्ण चांदीता है । मेरतकी सेना विजयाई पर्वतके बीच में पांचवें वि रके पास जाकर ठहरी । भरतके ठहर जानेपर विजयार्द्ध पर्वतका · १ पती दिग्विजय दिश्यार्द्धपर पहुँच जानेसे आधी हो जाती है। इसलिये इस पवका नाम विजयाने पटा है। ▾
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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