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________________ १९ प्राचीन जैन इतिहास। हलचल करता हुआ मगधके निवास स्थानपर जाकर पड़ा । इसे देख मगध बड़ा क्रोधित हुआ। पर अंतमें मंत्रियों के समझानेपर वह चक्रवर्ती भरतके सामने आया और उनकी नाधीनता स्वीकार कर रत्नोंका एक हार व रत्नों के दो कुंडल महाराजकी मेंट किये । इस प्रकार चक्रवर्तीने पूर्व दिशा विनय की। यहांले दक्षिण दिशा जीतनेको भरत अपनी सेना महिन चले । राम्तेके सत्र रामाओंको वश करते जाते थे। मे राजा अधिक कर लेता था उसे निकालकर दुसरा राजा बनाते और मो अनी. तिसे चलता था उस रानाको ढह देते हुए दक्षिण दिशाके मद्रपर पहने और वहाके स्वामी देवको पूर दिशाक देव समान वश किया । इम देवका नाम वरतन था । इस देवने कवच, हार, चूडारत्न, कडे और रत्नोंका यज्ञायवोत आ'द मेंटमें दिये थे। पुवदिशा और दक्षिण दिश की विनयको नाते हुए भार्गमें अंग, बंगाल, कलिंग, मगव, कुरु, अवन' ‘उजना पचाल. काशी, कोशल, विदर्भ, मद्र, कच्छ, वेदी, वन, लुत्प, पुडू और गौड, दशार्ण कामरूप. काश्मोर, उशीनर, मध्यदेश, चहा, कोरु, कालिद, कालकुट, मल्ल (भीलों का प्रदेश विनिग, औद्र, आंध्र, प्रातर, चेर, पुन्नार, कूट, ओलिक, महिप. ३,मेकुर, पांड्य, अंतर पांड्य, केरल कर्णाकट आदि प्रदेशोंको चक्रवतिको आज्ञासे सेनापतिने वश किया था। दक्षिणको विजयकर चक्रवनि पश्चिम दिशाकी विजय के लिये निकले । पहिले वे सिहलद्वीपको गये १ इन प्रान्तोकी विनय करते समय जो पर्वत और नदियाँ ' मिली थीं उनके नाम ग्याहदवे पाठमें दिये गये हैं।
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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