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________________ प्रथम भाग। (ट) वेदीके बाद बड़े बड़े तीन चार और पांच मजिलके मकान होते है। इनमें देवगण रहते हैं। (3) मकानों के बाद स्तूप रहते हैं जिनपर भगवान्की प्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं। (ड) स्तूपोंके बाद स्फटिकमणिका तीसरा कोट होता है । इस कोटके दरवाजेपर कल्पवासी जातिके देव महाद्वारपालका कार्य करते हैं। ___ नोट-समवशरणका आकार गोल होता है । अपर लिखी रचना एक दिशाकी है। इसी प्रकार चारों दिशाओंकी रचना समझना चाहिये। (द) तीसरे कोटके बाद एक योनन लंबा और एक योजन चौडा गोल श्रीमंडप होता है यही सभास्थान है। (ण) इसके बीचमें तीन कटनीकी गंधकुटी होती है जिसमें पहिली क्टनीपर चारों ओर यक्षों के इन्द्रोंके मस्तकों पर चार धर्मचक्र होने हैं, दूसरी कटनीपर चक्र, हाथी, बैल, कमल, सिंह, पुष्पमाला, वस्त्र, गरुड़ इन आठों चिन्होंको आठ महाध्वजाय होती है। तीसरी कटनीपर गधकुटी होती है गधकुटीके भीतर रत्नोंका सिहासन होता है। निसपर तीर्थकर या केवली भगवान् विराजमान होते है । सिंहासनके ऊपर तीन छत्र रहते है । सिंहासन के पास अशोकवृक्ष होता है । महतक मस्तकके आसपास प्रभामंडल रहता है निमका प्रकाश मूर्यके समान होता है और जिसमें प्रत्येक देखनेवाले प्राणीके सात सात भूत, भविष्यत् बालके भव दिखाई देने है। (स) अहंतके चार मुख चारों दिशाओंमें टीखते हैं।
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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