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________________ ११३, प्राचीन जैन इतिहास । (९) बलदेव-विजयके पास चार रत्न थे। . गदा १ माल २ हल । मूसल ४ (१९) नारायण तृटप्ठकी सोलह हजार रानिया थीं। (११) तृपृष्ठकी पट्टरानीका नाम स्वयंप्रभा था। और ज्येष्ठ पुत्र श्री विजय नामक था। इन्होने ज्येष्ठ पुत्रका विवाह अपने सालेकी कन्या "तारा" के साथ कियाथा। (१२) तृपृष्ठके पिता प्रजापति ने पिहिताश्रय मुनिके पास दीक्षा ली और कर्मोंका नाशकर मोक्ष गया। (१३) नारायण तृटष्ठ मरकर नरक गया | इनके भाई बलभद्रने भ्राताकी मृत्युपर बहुत शोक किया यहातहकि छह माहतक तृटप्ठ के शबको पीठपर रखे फिरते रहे। अंतमें मोह छूटनेपर जब आपको भान हुआ तब शवका दाहकर सुवर्ण कुंभ मुनिसे ७०० राजाओं सहित दीक्षा ली। और कोका नाश कर मोक्ष गये। (१३) नारायण का राज्य उनके पुत्र श्रीविजयको मिला ! और द्वितीय पुत्र विजयभद्र युवराज बनाये गये । (१४) राज्यके पुराहितने अपना भोजनकी थालीमे बोडी एडो देखो और मन्तक पर अग्निके फुलिगे उड़ते व पानीके छोटे पड़ते देखे | उसपरसे निमित्त ज्ञान द्वारा उसने रानासे यह फल कहा कि राज्याशनके ऊपर आकाशसे खड्न पडेगा तब निश्चय किया गया कि गादीएर महाराज श्री विजय न वेठकर उनकी मूर्ति रखी नाय और ऐसा ही किया गया। अतमें उस भूर्तिपर खग पहा और श्रीविजय बच गया ।
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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