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________________ प्रथम भाग । (४३) इस शकट वनसे उठकर भगवान फिर विहार करने को चले और कुरुनांगल, कौशल, सुदन, पुंडू, चेदि, अंग, बंग, मगध, अंध्र, कलिंग, भद्र, पंचाल, मालव, दशार्ण, विदर्भ आदि अनेक देशों में भगवानने विहार किया । और अपने उपदेशामृतले जगत्का कल्याण किया | भगवान जहाँ जहाँ जाते थे वहाँ वहाँ ऊपर कहे अनुसार समवशरण मंडप बन जाता था । विहार करते करते अंतमें भगवान कैलाश पर्वतपर पहुँचे । ४२ ( 88 ) जिस समय भगवान विहार करते थे उस समय सबसे आगे धर्म चक्र चलता था । देवोंकी सेना चलती थी । आकाशमें जयध्वनि की जाती थी। भगवान के चरणोंके नोचे देवगण एक सौ आठ पाखुडीके कमल रचते जाते थे । भगवान पृथ्वीसे बहुत ऊँचे घर चलते थे । (१५) जब छोटे भाइयोंने भरत चक्रवर्तीकी आज्ञा न मान भगवान ऋषभसे प्रार्थना की कि आप हमारे स्वामी है, आप हीने हमें राज्य दिया है, अब हम भरतको नमस्कार नहीं कर सकते तब भगवान ने उन्हें धर्मोपदेश देकर कहा कि तुम्हारे अभिमानकी रक्षा केवल मुनित अगीकार करनेसे हो सकती है अतएव तुम दीक्षा धारण करो । भगवान्के इम उपदेशके अनुसार भरतके छोटे मइयॉन- भगवान के छोटे पुत्राने भगवन्से ही दीक्षा ली थी । और कठोर तरद्वारा द्वादशांगका ज्ञान प्राप्त किया था । इस समय केवल श्रावळीने दीक्षा नहीं ली थी । (१६) भरतने जिस केथे ब्रह्मण वर्णकी स्थापना की थी
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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