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________________ ११ प्राचीन जनै इतिहास। 'प्रतिदिन तीन बार हुआ करता था और वह ऐसे उच्चारणसे होता था कि जिसे प्राणीमात्र अग्नी अपनी भाषामें समझ लेते थे । और उसका उच्चारण अक्षर रहित; विना दंत, ओठ, तालु आदिमें क्रिया हुए ही होता था । भगवानके उपदेशको-ज्ञानको रसुनकर धारण करनेवाले गणघर होते हैं । भगवान् ऋषमके चौरासी गणघर थे । और उनमें से मुख्य गणधर वृषभसेन थे। -मभामें हर कोई प्रश्न कर सकता था, · विसीको रोक टोक नहीं थी । इसी समामें भगवानने आत्माके स्वाभाविक धर्म-जैन धर्मका प्रकाश किया था। और भिन्न भिन्न साधुओं, राजाओं, देवों और सर्व साधारणोंके पन्नोंका उत्तर दिया था। इस समामें सबसे अधिक प्रश्न चक्रवर्ती भरतने किये थे। (१०) भगवानके उपदेशके बाद भगवानके पुत्र वृषभसेनने दीक्षा ली और ये ही सबसे पहिले गणधर. हुए। यह वृषभसेन पुरिमताल नगर, जिमके कि समीपी वनमें भगवान्को केवल ज्ञान हुआ था, का स्वामी और भरतका छोटा भाई था । कहा जाता है कि विना गणधरके सर्वज्ञकी दिव्यध्वनि नहीं खिरती परतु भगवान् ऋषभदेवके संबंधमे ऐसा नहीं हुआ । भगवान्के उपदेभको सुनकर वृषभसेनने पीछेसे दीक्षा धारण की थी और गणघर हुआ था। (११) वृषभमेनके समान कुरु देशके राजा सोमभ और श्रेयांसने भी दीक्षा ली और वे भी गणधर हुए। ____ (४२) वाह्मीदेवी और सुदरीदेवी ( भगवानकी दोनों पुत्रिया ) भी दीक्षा लेकर सबसे पहिली मार्थिकाएँ बनीं थीं ।
SR No.010440
Book TitlePrachin Jain Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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