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प्रथम भाग
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उन्होंने अपने अधीनस्थ राजाओंके सदाचारी मित्र व कर्मचारियोंको बुलाया और उनकी परीक्षाकर व्रती श्रावकका चाह्नण वर्ण स्थापन किया और इस वर्णकी स्थापना समाचार स्वयं चक्रवर्तीने भगवान ऋषमसे निवेदन किये। इस संबंध में पद्मपुराणकार लिखते हैं कि जब भगवान् ऋषभका समवशरण अयोव्याके समीप आया तत्र चक्रवर्तीने भगवान्पे मुनियोंका स्वरूप पूछा । भगवान्ने जब मुनियोंके स्वरूपको बतलाया तब भरतने मुनियाँको निम्ह जान श्रावकों को दान देनेकी इच्छा की और भोजनार्थ बुलाया | उनमें जो श्रावक वनस्पतिको पावोंसे रूंद हुए नहीं आये उनका चक्रवतीने सन्मान किया और उन्हींका ब्राह्मण वर्ण बनाया | चक्रवर्तीके द्वारा इस प्रकार सन्मानित होनेके कारण कई ब्राह्मण गर्विष्ट ( अभिमानी ) हो गये और कई लोभके कारण धनिकों से याचना करने लगे। तब मतिसमुद्र मंत्रीने कहा कि मैंने भगवान् ऋषभके मुख से समवशरण में सुना हैं कि ब्राह्मण वर्ण पंचम कालमें धर्मका विरोधी होगा । इसपर भरत ब्राह्मणोंपर क्रोधित हुए । तब ब्राह्मण भगवान् के पास गये । भगवान्ने भरतसे कहा कि भविष्य ऐसा ही है अतएव तुम काय मत करो ।
(६) भगवान् अजितनाथके साथ एक हमार राजाओंने दीक्षा ली ऐसा भगवद्गुणभद्रका मत है। रविषेणाचार्य दश हजार राजाओ सहित अजितस्वामीका दोक्षा लेना बतलाते हैं ।
(७) उत्तरपुराणकार गुणमद्रस्वामीने चक्रवर्ती सगर के साठ हजार पुत्रोंका मणिकेतु नामक देवके द्वारा कैलाशकी खाई खोदते
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