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प्राचीन जैन इतिहास ।'
न हुआ और वह हाथीपर विराजमान कर भगवान्को मेरु पर्वतपर ले गये । भगवान् सौधर्म इन्द्रकी गोदी में मेरु पर्वतपर गये थे । सनत्कुमार माहेन्द्र नामक दोनों इन्द्र भगवानूपर चँवर ढालते थे और ईशान इन्द्र भगवान्पर छत्र लगाये हुए गये थे । मेरु पर्वतपर इन्होंने उसके पांडुक वनमें - उत्तर दिशाकी ओर जो आधे चंद्रमा के आकार एक पांडुक शिला हैं उस शिलापर भगवान्को बिराजमान किया और भगवान्का क्षीरसागर के जलसे अभिषेक किया । भगवान्को आभूषण व वस्त्र पहिनाये गये । फिर मेरु पर्वतपर से भगवान्को अयोध्या में लाकर इन्द्र व देवोंने घरपर बड़ा भारी उत्सव किया । अयोध्यामें मातपिठाने भी बहुत उत्सव रिया । इन्द्रोने उस समय संगीत और नाटक भी किया था । ऋषभदेव धर्म के सबसे पहिले प्रकाशक थे अतएव इन्द्रने इन्हें "वृषभस्वामी" कहकर पुकारा था । तथा इनके गर्भ में आनेके पहिले सबसे अंतिम स्वम माताने वृषभका देखा था इससे भी इनके मातापिता इन्हें 'वृषभ' वहकर पुकारा करते थे ।
(२) चालक वृषभकी सेवा के लिये इन्द्रने देव - देवियां सेवामें रख छोड़ी थीं । भगवान् ऋषभ बाल्यावस्था में बड़े ही सुदर और मनोभावन थे इनके साथमें देवगण बालरूप धारण करके खेला करते थे । इनके लिये वस्त्राभूषण स्वर्गसे आया करते थे । (३) भगवान् ऋषभ स्वयभू थे स्वयंज्ञानी थे । उन्होंने विना पढे ही सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था । ये बड़े यत्नसे संसा