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प्रथम भाग |
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(१३) सेनाके साथ महाराज भरतकी महारानियाँ भी थीं।
(१४) जिन रास्तों से महाराज भरत अपनी सेना सहित जाते थे उन मार्गो में आये हुए गांवोंके अधिपति घी, दूध, मक्खन, दही, फल, और भील मादि जंगली जातियोंके राजा आदि गजमोती, हाथीदांत तथा चमरी गायके बाल और कस्तूरी हिरणकी नामि भेंट करते थे ।
(१५) अयोध्या से चलकर महाराज भरतकी सेनाने गंगा नदी के किनारे सबसे पहिले डेरा दिये थे । साथके मनुष्योंको ठहरनेके लिये कपड़े के तंबू लगाये गये थे । घोडोंकी घुडशाला | भी कपडे की ही बनाई गई थी। डे के आसगस काटोंकी बाढ़ बनाई गई थी । रास्ते में जिसने राजा महाराजा मिले सबने भरत की आधीनता स्वीकार की । गंगासे चलकर गंगाके किनारे किनारे हीके मार्गसे महाराज भरत पूर्व समुद्र के समीप पहुचे । वहां किनारेपर अपनी सेनाको छोड और सेनापनिको उसकी रक्षाकी माज्ञा दे स्वयं महाराज भरत अतिंजय नामक रथपर सवार हो अस्त्र शस्त्रों सहित समुद्रके भीतर समुद्र के स्वामी सगध नामक देवको वश करनेके लिये चले | भरतके रथके घोड़े जल और स्थल दोनों में जा'
सकते थे । समुद्रके भीतर बारह योजन जाकर रथ ठहर गया । वहांसे भरतने वाण छोडा इस वाणका नाम अमोघ था। वाणके साथ महाराजने यह समाचार भी लिखकर भेजे थे कि "मैं . भरत चक्रवर्ती ऋषभदेवका पुत्र हूं । अतएव सत्र व्यंतर देव मेरे भाधीन हों, " यह वाण समुद्रके स्वामी मगध देवकी सेनामें
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