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१९ प्राचीन जैन इतिहाम। (९) तीनोंहीमें बाहुबलीकी जय हुई । परंतु मल युद्ध, बाहुबलीने भरतको बड़ा भाई समझ जमीन पर नहीं पटका किंतु कंधे पर बैठाया । इसपर क्रोधित होकर मरतने बाहुवीपर चक्र चलाया । परंतु चक्रने भी बाहुबलीकी प्रदक्षिणा दी और बाहुबलोके पास आकर ठहर गया।
(१०) अपने बड़े भाई द्वारा भाश्ना घात करनेका प्रयत्न देख बाहुबलीको वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने भरतको यह कहकर कि 'भाप ही इस विनाशीक पृथ्वीके स्वामी वनें दीक्षा धारण की और अपना राज्य अपने पुत्र महाबलको दिण।
(११) बाहुबलीने वड़ा भारी तप किया था। उनके तपके संबंधौ पूर्वके ग्रंथकार लिखते हैं कि "बाहुबलीने प्रतिमा योग (एक वर्षतक एक ही जगह खड़े रहना) धारण किया था। इनके मास-पास वृक्ष व लतायें उगी थी | सोने अपनी वामी चनाई थीं । अनेक सर्प इनके पास फिरा करते थे। बावीमों प्रकारकी परीपहोंगे इन्होंने अच्छी तरह सहा था । अनेक ऋडिया इनके शरीरमें उत्पन्न हो गई थीं । बाहुगली महाउस, दोप्त, तप्त घोर मादि कई प्रकारके तप किये थे। इनके तपके प्रभावसे मिल बनमें ये थे उस वनके सिंहादि विरोधी नीयों ने भी विरोध -मात्र छडार मापसमें मैत्रीभाव धारण किया था।
(१२) निस दिन बाहुबलिका एक वर्षका अवाम पूर्ण हुआ उमी दिन भरतने पाकर पूना की थी मात की . पुना करने के पहिले बाहुबली के हृदयमें एक सून रागभावकी शंका थी कि मेरे द्वारा मरतको युद्ध कट पहुंचा है। यही रागमा काम