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५५ प्राचीन जनै शतहास। घोड़े और चौरासी लाख हाथी हैं। जिसने समस्त पृथ्वी वश की है। जो नाभिरामाका पौत्र ऋषभदेषका पुत्र और छहों खंडोंकी एथ्वीका पालक है ऐसे उक्त भरत द्वारा इस पर्वतपर जगतमें फैलनेवाली कीर्ति स्थापन की गई । इस प्रकारको प्रशस्ति भरतने उस शिलापर लिखी । इस प्रशस्तिपर देवोंने फूलों की वर्षा की थी। फिर भरत हिमवान के उस स्थानपर पहुंचे महासे गंगा नदी निकली है । वहापर गंगा नदीकी स्वामिनी गगादेवीने भरतका अभिषेक किया और एक सिंहासन मेंटमें दिया। यहांसे चलकर.. भरत फिर विजयाई पर्वतकी तलहटीमें भाकर ठहरा और पश्चिमकी गुफाके समान विजयाडकी पूर्व गुफाको खोलनेकी तथा पूर्व दिशाके म्लेच्छ खेडको नीतनेकी सेनापतिको माज्ञा दी तबतक चंक्रवर्ति, विनयाईकी तलहटीमें ही ठहरा था। यहींपर विजयाई, पर्वतपर दक्षिण और उत्तरमें रहनेवाले विद्याधरोंने भाकर भरतकी आधीनता स्वीकार की और अनेक प्रकारकी मेटें दी। तथा विद्या. धरों के अधिपति नमि, विनमि नामक विद्याधरोंने अपनी बहिन सुभद्रा के साथ महाराज मरतका विवाह किया। भरतने अपने. सेनापतिको निस गुफाके खोलेनेकी आज्ञा दी थी उसका नाम कांडकप्रपात था। उस गुफाको खोलकर तथा पूर्व खंडके म्लेच्छोंको जीत कर छह मासमें सेनापति भी लोट माया । अव चक्रवर्ती उत्तर भरत खडसे दक्षिण भारतकी ओर उक्त कांडाप्रपात गुफाके मागद्वारा सेना सहित चले । गुफाका मागं तय हो जानेपर गुफाके दक्षिण द्वारपर आये । यहां गुफाके रक्षक नाट्यपाल नामक देवने भरतकी माधीनता स्वीकार की व पूना की। यहींपर भरतकी उत्तर