Book Title: Prachin Jain Itihas 01
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 67
________________ मयम भाग वहां भरतने अपने दिव्यास्त्रों की पूजा की और उपवास किया और पवित्र डामकी शय्यापर सोये । फिर अपना अमोघ नामक चाण हिमवान् शिखरपर छोड़ा वह वाण इस शिखरके अधिष्ठाता देवके रहनेकी जगहपर गिरा इससे देवने चक्रवर्तिका माना समझ वह भक्ति के साथ भक्ति के साथ मरतके पास आया और आधीनता - स्वीकार कर भरतका अभिषेक किया । तथा हरिचंदन नामक चंदन भरतकी मेंटमें दिया । यहांसे मरत वृपभाचल नामक पतिको देखने के लिये लोटे। यह पर्वत सौ योजन ऊंचा है। और तलहटीमें सौ योजन नथा ऊपर पचास योनन चोड़ा है । इस पर्वतके किनारेकी शिलाकी दिवालपर चक्रवर्ति अपना नाम लिखनेको तैयार हुमा क्योंकि चक्रवर्तिकी दिग्विजय समाप्त हो चुकी थी। जब वह कांकिणी रलसे नाम लिखने लगा तब उसने देखा कि. वहांपर इतने चक्रवर्तियों के नाम लिखे हुए हैं कि उसे अपना नाम लिखनेकी जगह ही नहीं है । तब यह सोचकर कि मेरे समान' इस अनादि पृथ्वीपर असंख्य चक्रवर्ती हो गये हैं भरतका अमि. मान खंडित हुवा । फिर उसने किसी एक चक्रवर्तीका नाम मिटा कर उसके स्थानपर अपने नामकी प्रशस्ति इस मांति लिखी" स्वस्तिश्री इत्वाकु कुलरूपी माकाशमें चंद्रमाके समान उद्योत करनेवाला चारों दिशाओंकी पृथ्वीका स्वामी मैं भरत हूं। मैं अपनी माताके सौ पुत्रोंमें ज्येष्ट पुत्र हूं। राज्वल मीका स्वामी इं। मैंने समस्त देव, विद्याधर और राजामोंको वश किया है । मैं वृषभदेवका पुत्र, सोलहवां कुलकर, मान्य, शूरवीर और चक्रवतियोंमें मुख्य प्रथम चक्रवर्ती हूं। जिसकी सेनामें अठारह करोड

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