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प्रथम भाग। भरतखंडकी विनय समाप्त हुई और इसीके साथ साथ भरतकी दिग्विजय भी समाप्त हुई।
(१७) दिग्विजयमें भरतको साठ हजार वर्ष लगे थे।
(१८) दिग्विजयमे लौटकर भरत कैलाश पर्वतपर गया और वहाँ भगवान् ऋषभदेवकी स्तुति व पूजा की तथा धर्मका उपदेश सुना। ' (१९ कैलाशमे चलकर मरन अपनी राजधानी अयोध्या भाकर जब नगर प्रवेश करने लगे तब चक्रवतीका चक्ररल नगर पारि ही रह गया। इस पर मातको आश्चर्य हुआ और अपने पुरोहितसे इसका कारण पूछा । पुरोहितने कहा-यद्यपि आप निग्विजय कर चुके हैं तो भी कुछ राजाओंको वश करना बाकी है। और वे राजा मापके छोटे भाई हैं। इसपर भरतने अपने भाइयोंपर क्रोध किया परंतु पुरोहितके समझानेसे कुछ शांत हुए । और दूनों को अपने भाइयों के पास भेजकर भायीन होने के समाचार कहलाये । परंतु छोटे भाइयोंने भाधीनता स्वीकार न को स्ति भगवान् ऋपमदेवके पाम आनर कहा कि हम आपकी दी हुई प्रवीका उपभोग करते हैं तो भी भरत हमें अपने आधीन करना चाइता है । हम भरतकी हम आज्ञाको स्वीकार नहीं कर सक्ने । भगवान नपमने उन्हें धर्मोपदेश देकर समझाया कि वह चक्र है, यदि तुम राना हो रहोगे तो तुम्हें उस वश होना ही पड़ेगा । यदि अभिमान रखना चाहते हो तो मुनि पनो इसपर मन्तरे मन छोटे माइयोंने दीमा धारण की । केवल बाहुपनीने न तो दीक्षा ली और न मरत की नाना ही स्वीकार