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प्राचीन जैन इतिहास स्वामी अंतरदेव भरतके पास आया और भरतकी आधीनता स्वीकार की और भरतका अभिषेक किया । तथा रत्न, सफेद छत्र, भृगार, दो चंवर और एक सिंहासन भेंट किया । यहाँ तक भरतने दक्षिण भारतकी विजय की ।
(१६) अब वे उत्तर भारतकी विजयके लिये तैयार हुए । पहिले उन्होंने चकात्नकी पूजा की फिर कुछ हटकर विनयाद पर्वतकी पश्चिम गुफाके पासवाले वनमें ठहरे । यहाँ पर कई राजाओंने आकर भरतकी सेवा की और अनेक भेंट दीं। यहींपर कुरुदेशके राजा सोमप्रभके जयकुमार व और भी कई राना भरतकी सेना में आकर मिले थे । यहींपर विजयार्द्धकी एक शिखरपर रहनेवाला कृतमाल नामक देवने भरतकी पावनता स्वीकार की और विजयार्द्धकी पश्चिम गुफाका मार्ग चतलाया जिमका हार सोकनेके लिये भरतने अपने सेनापतिको भेजा । सेनापतिको गुफा का द्वार " चक्रवतीकी जय " इन शब्दोंको बोलकर दंडरत्न से खोला और पश्चिम म्लेच्छ खडकी विजयके लिये चला। इसे देखकर म्लेच्छ खंडके राजा डरे और कई सन्मुख आकर आधीन हुए । डरे हुए राजाओं को समझाकर तथा विद्रोहियोंको वशकर सबसे भेंट व चक्रवर्ती के लिये कन्याएं लीं । और म्लेच्छ राजामोंके साथ वापिस लोटा । ऊपर जिस गुफाके बारेमें कहा गया है गुफाके खोलनेसे इतनी गर्मी निकली कि वह छह माहमें शां हुई थी । वापिस जाकर म्लेच्छ रामामोंसे चक्रवर्तीका परिचय फराया | इस गुफाका नाम तमिस्रा है। इसकी ऊँचाई माठ योजन और चौड़ाई बारह योजनकी है। इसके किवाड़ वत्रमण