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मयम भाग।
कार और दूसरा अकारु | घोची, नाई वगैरह का कहलाते थे। इनसे भिन्न मचा।
(१२) कार शूद्रोंके भी दो भेद किये गये, एक स्पृश्य-छूने योग्य । दुसरा न छूने योग्य । स्टथ्योंमें नाई वगैरह थे । और जो प्रनासे अलग रहते थे वे अस्टस्य कहलाते थे।
(१३) विवाह आदि संबंध भगवान्की आज्ञानुसार ही किये जाते थे।
(११) इस प्रकार कर्मयुगका प्रारंभ भगवान् ऋषभने भाषाह कृष्णा प्रतिपदाको किया था । इस लिये भगवान् कृतयुग-युगके करनेवाले बहलाने हैं। और इसी लिये उस समय प्रना आपको विधाता, मृष्टा, विश्वकर्मा आदि कहा करती थी।
(१५, इस युगके प्रारंभ करनेके कितने ही वर्षों बाढ भगवान ऋषम. सम्राट पदवीसे विभूषित किये गये और उनका राज्याभिषेक किया गया । सब क्षत्रिय रामामोंने मगवानको अपना स्वामी माना था व महाराजा नाभिरायने मी आगेसे भगवान्को ही अपने राज्यका स्वामी बनाकर अपना मुकुट भगवान्के सिरपर रखा था।
(१६) सगष्ट " क अनंतर भगवान्ने व्यापारादिके द शामनके नियम बनाये।
(१७) भगवान्ने क्षत्रियोंको शस्त्र चलानेकी शिक्षा स्वयं टी और पैथ्योक लिये परदेशगमनका मार्ग सुला करने के लिये म्य विदेशोंको गये । भोर स्थलयात्रा व जलयात्रा-समुदयात्रा भारभ की।