Book Title: Prachin Jain Itihas 01
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 22
________________ १२ प्राचीन जैन इतिहास (१) प्रत्येक परिवर्तन दशकोड़ा कोड़ी सागरका होता है (हम सागरोंकी गिनती असे नहीं कर सकने अतएव यह संख्या असंख्यात है।) (१) प्रत्येक परिवर्तन के छह हिस्से होते हैं। . (२) अवनतिक परिवर्तनके पहिले हिस्से का नाम सुःपमानुपमा होता है । यह समय चार छोड़ाकोड़ी सागरका होता, है। इस समयके मनुष्योंगी आयु तीन पल्यैकी होती है। गरीरकी उंचाई चौबीस हजार हाथोंकी होती है । ये मनुष्य बडे ही सुंदर और सरल-चित्तके होने है । इन्हें भोजनकी इच्छा तीन दिन वाद होती है । और इच्छा होते. ही कल्पवृक्षोंसे प्राप्त दिव्य मोगन जो कि बेर (फल) के बराबर होता है, करने हैं। इनको मल, नुक्की बाधा व बीमारी आदि नहीं होती । स्त्री और पुरुष दोनों एक साथ एक ही उट से उत्पन्न होते हैं और बड़े होनेपर पति, पत्नीके समान व्यवहार भी करते हैं। परंतु उस समय माई बहिनके भावकी कल्पना न होनेसे दोष नहीं समझा जाता । वस्त्र, आभूषण आदि भोगोपमोगकी सामग्री इन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है । कल्पवृक्ष पृथ्वीके परमाणुओंके होते हैं । वनस्पतिकी जातिके नहीं होते। इनके दश भेद होते हैं । और दों तरहके वृक्षोंसे मनुष्योंको भोगोपभोगकी सामग्री जैसे-वस्त्र, । एक पन्च ४१३४५२६१०३०८२०३१७७७४९५१२१ ९२०००००००००००००००००००० वर्षका होता है। पन्यकी सत्याको ए म १००००००००००००००० में गुणा करनेसे एक सागरकी सम्वा होती है। और एक कोनका धर्म चोदाचोडी कहलाता है।

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